सत्य के प्रयोग/ अहिंसादेवीका साक्षात्कार

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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४१६ आत्म-कथा : भाग ५ अनिश्चित समयके लिए बंद करके लेखकके रूपमें काम करना भी मेरी कुछ कम मांग नहीं है । यहांकी बोली समझने में मुझे बहुत दिक्कत पड़ती है। कागजपत्र सब उर्दू या कॅथीमें लिखे होते हैं, जिन्हें मैं पढ़ नहीं सकता। उनके अनुवादकी मैं आपसे माशा रखता हूँ । रुपये देकर यह काम कराना चाहें तो अपनी सामर्थ्य के बाहर है। यह सब सेवा-भावसे, बिना पैसेके, होना चाहिए । बृजकिशोरबाबू मेरी बातको समझ तो गये; परंतु उन्होंने मुझसे तथा अपने साथियोंसे जिरह शुरू की । मेरी बातोंका फलितार्थ उन्हें बताया । मुझसे पूछा--- "आपके अंदाजमें कबतक वकीलोंको यह त्याग करना चाहिए, कितना करना चाहिए, थोड़े-थोड़े लोग थोड़ी-थोड़ी अवधिके लिए ऋतेि रहें तो काम चलेगा या नहीं ?" इत्यादि । वकीलोंसे उन्होंने पूछा कि लोग कितनाकितना त्याग कर सकेंगे ? अंतमें उन्होंने अपना यह निश्चय प्रकट किया- “हम इतने लोग तो आप जो काम सौंपेंगे करने के लिए तैयार रहेंगे। इनमें से जितनोंको श्राप जिस समय चाहेंगे आपके पास हाजिर रहेंगे। जेल जानेकी बात अलबत्ता हमारे लिए नई है; पर उसकी भी हिम्मत करनेकी हम कोशिश करेंगे ।" अहिंसादेवीको साक्षात्कार । मुझे तो किसानोंकी हालतकी जांच करनी थी । यह देखना था कि नीलके मालिकोंकी जो शिकायत किसानोंको थी, उसमें कितनी सचाई है। इसमें हजारों किसानों से मिलनेकी जरूरत थी; परंतु इस तरह आमतौरपर उनसे मिलने-जुलनेके पहले, निलहे मालिकोंकी बात सुन लेने और कमिश्नरसे मिलनेकी आवश्यकता मुझे दिखाई दी। मैंने दोनोंको चिट्ठी लिखी । .:: मालिकोंके मंडलके मंत्रीसे मिला तो उन्होंने मुझे साफ कह दिया, “आप तो बाहरी आदमी हैं। आपको हमारे और किसानोंके झगड़ेमें न.पुड़ना चाहिए। फिर भी यदि आपको कुछ कहना हो तो लिखकर भेज दीजिएगा।" मैंने मंत्रीसे सौजन्यके साथ कहा--- " मैं अपने को बाहरी श्रादमी नहीं समझती और किसान [ ४३४ ]________________

अध्याय १४ : अहिंसादेवीका साक्षात्कार ४१७ यदि चाहते हों तो उनकी स्थितिकी जांच करने का मुझे पूरा अधिकार है। कमिश्नर साहबसे मिला तो उन्होंने तो मुझे धमकानेसे ही शुरूआत की और आगे कोई कार्रवाई न करते हुए मुझे तिरहुत छोड़नेकी सलाह दी है। मैंने साथियोंसे ये सब बातें करके कहा कि संभव है, सरकार जांच करनेसे मझे रोके और जेल-यात्राका समय शायद मेरे अंदाजसे पहले ही जाय । यदि पकड़े जानेका ही मौका आवे तो मुझे मोतीहारी शौर हो सके तो बेतिया गिरफ्तार होना चाहिए । इसलिए जितनी जल्दी हो सके मुझे वहां पहुंच जाना चाहिए । | चंपारन तिरहुत जिलेका एक भाग था और मोतीहारी उसका एक मुख्य शहर । बेतियाके ही आसपास राजकुमार शुक्लका मकान था। अौर उसके आसपास कोठियोंके किसान सबसे ज्यादा गरीब थे। उनकी हालत दिखानेका लोभ राजकुमार शुक्लको था और मुझे अब उन्हींको देखनेकी इच्छा थी, इसलिए साथियोंको लेकर मैं उस दिन मोतीहारी जानेके लिए रवाना हुआ । मोतीहारीमें गोरखबाबूने आश्रय दिया और उनका घर खासी धर्मशाला बन गया । हम सब ज्यों-त्यों करके उसमें समा सकते थे। जिस दिन हम पहुंचे उसी दिन हमने सुना कि मोतीहारीसे पांचैक मील दूर एक किसान रहता था और उसपर बहुत अत्याचार हुअा था । निश्चय हुआ कि उसे देखनेके लिए धरणीधरप्रसाद वकीलको लेकर सुबह जाऊं । तदनुसार सुबह होते ही हम हाथीपर सवार होकर चल पड़े। चंपारनमें हाथी लगभग वही काम देता है जो गुजरातमें बैलगाड़ी देती है। हम प्राधे रस्ते पहुंचे होंगे कि पुलिस-सुपरिटेंडेंट का सिपाही आ पहुंचा। और उसने मुझसे कहा---- “सुपरिंटेंडेंट साहबने आपको सलाम भेजा है।" मैं उसका मतलब समझ गया। धरणीधरबाबूसे मैंने कहा, आप आगे चलिए, और मैं उस जासूसके साथ उस गाड़ीमें बैठा, जो वह किराये पर लाया था। उसने मुझे चंपारन छोड़ देनेका नोटिस दिया । घर लेजाकर उसपर मेरे दस्तखत मांगे । मैंने जबाब दिया कि “ मैं चंपारन छोड़ना नहीं चाहता । अागे मुफस्सिलातमें जाकर जांच करनी है । इस हुक्मका अनादर करनेके अपराधमें दूसरे ही दिन मुझे अदालत हाजिर होनेका समन मिला ।। | सारी रात जगकर मैंने जगह-जगह आवश्यक चिट्ठियां लिखीं और जो-जो आवश्यक बातें थीं वे बृजकिशोरबाबूको समझा दीं ।। [ ४३५ ]________________

४१८ वि-कथा : भाग ५ समनकी बात एक क्षण में चारों ओर फैल गई और लोग कहते थे कि ऐसा दृश्य मोतीहारीमें पहले कभी नहीं देखा गया था । गोरखबाबूके घर और अदालतमें खचाखच भीड़ हो गई । खुशकिस्मतीसे मैंने अपना सारा काम रातको ही खतम कर लिया था, इससे उस भीड़का मैं इंतजाम कर सका। इस समय अपने साथियों की पूरी-पूरी कीमत देखने का मुझे मौका मिला। वे लोगोंको नियमके अंदर रखनेमें जुट पड़े । अदालतमें मैं जहां जाता वहीं लोगोंकी भीड़ मेरे पीछे-पीछे आती। कलेक्टर, मजिस्ट्रेट, सुपरिंटेंडेंट वगैरा के और मेरे दर मियान भी एक तरहका अच्छा संबंध हो गया। सरकारी नोटिस इत्यादिका अगर मैं बाकायदा विरोध करता तो कर सकता था; परंतु ऐसा करनेके बजाय मैंने उनके तमाम नोटिसको मंजूर कर लिया। फिर राज-कर्मचारियोंके साथ मेरे जाती ताल्लुकातमें जिस मिठासको मैंने अवलंबन किया उससे वे समझ गये कि मैं उनका विरोध नहीं करना चाहता। बल्कि उनके हुक्मका सविनय विरोध करना चाहता हूं । इससे वे एक प्रकार निश्चित हुए । मुझे दिक करनेके बजाय उन्होंने लोगोंको नियममें रखनेके काममें मेरी और मेरे साथियोंकी सहायता खुशीसे ली; पर साथ ही वे यह भी समझ गये कि आजसे हमारी सत्ता यहांसे उठ गई। लोग थोड़ी देरके लिए सजाका भय छोड़कर अपने नये मित्रके प्रेमकी सत्ताके अधीन हो गये ।। । यहां पाठक याद रखें कि चंपारनमें मुझे कोई पहचानता न था । किसान लोग बिलकुल अनपढ़ थे। चंपारन गंगाके उस पार, ठेठ हिमालयकी तराईमें नेपालके नजदीकका हिस्सा है। उसे नई दुनिया ही कहना चाहिए। यहां कांग्रेसका नाम-निशान भी नहीं था, न उसके कोई मेंबर ही थे। जिन लोगोंने कांग्रेसका नाम सुन रखा था वे उसका नाम लेते हुए और उसमें शरीक होते हुए डरते थे; पर आज वहां कांग्रेसके नामके बिना कांग्रेसने और कांग्रेसके सेवकोंने प्रवेश किया और कांग्रेसकी दुहाई धूम गई । साथियोंके साथ कुछ सलाह करके मैंने यह निश्चय किया था कि कांग्रेसके नामपर कुछ भी काम यहां न किया जाय । हमको नामसे नहीं कामसे मतलब है। कथनीकी---कहतेकी----नहीं, करन की जरूरत है। कांग्रेसका नाम यहां लोगोंको खलता है। इस प्रांतमें कांग्रेसका अर्थ है वकीलोंकी तू-तू, मैं-मैं, [ ४३६ ]________________

अध्याय १४ : अहिंसादेवीका साक्षात्कार कानूनकी गलियोंमें निकल भागने की कोशिश । कांग्रेसका अर्थ यहां है बम-गोले और कहना कुछ, करना कुछ । ऐसा खयाल कांग्रेसके बारेमें यहां सरकार और सरकारकी सरकार यानी निलहे मालिकोंके मन था; परंतु हमें यह साबित करना था कि कांग्रेस ऐसी नहीं, दूसरी ही वस्तु है। इसलिए हमने यह निश्चय किया था कि कहीं भी कांग्रेसका नाम न लिया जाय और लोगोंको कांग्रेसके भौतिक दैका भी परिचय न कराया जाय। हमने सोचा कि वे कांग्रेसके अक्षरको--- मामको न जानते हुए उसकी आत्माको जाने और उसका अनुसरण करें तो बस है। यहीं वास्तविक बात है ! | इसलिए कांग्रेसकी तरफसे किसी छिपे या प्रकट दूतोंके द्वारा कोई जमीन तैयार नहीं कराई गई थी; कोई पेशबंदी नहीं की गई थी । राजकुमार शुक्लमें हजारों लोगोंमें प्रवेश करनेकी सामर्थ्य न थी, वहां लोगोंके अंदर किसीने भी आज तक कोई राजनैतिक काम नहीं किया था । चंपारनके सिवा बाहकी दुनियाको वे जानते ही न थे। फिर भी उनका और मेरा मिलाप किसी पुराने मित्रके मिलापसा था । अतएव यह कहने मुझे कोई अत्युक्ति नहीं मालूम होती, बल्कि यह अक्षरशः सत्य है कि मैंने वहां ईश्वरका, अहिंसाका और सत्यका, साक्षात्कार किया । जब साक्षात्कार-विष्यक अपने इस अधिकारपर विचार करता हूं तो मुझे उसमें लोगोंके प्रति प्रेमके सिवा दूसरी कोई बात नहीं दिखाई पड़ती और यह प्रेम अथवा अहिंसाके प्रति मेरी अचल श्रद्धाके सिवा और कुछ नहीं है । | चंपारनका यह दिन मेरे जीवन ऐसा था, जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता । यह मेरे तथा किसानों के लिए उत्सबका दिन था। मुझपर सरकारी कानूनके मुताबिक मुकदमा चलाया जानेवाला था; परंतु सच पूछा जाय तो मुकदमा सरकारपर चल रहा था। कमिश्नरने जो जाल मेरे लिए फैलाया था उसमें उसने सरकारको ही फंसा सारा ।

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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।