सत्य के प्रयोग/ बिहारकी सरलता

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय १३ : बिहारकी सरलता ४१३ बाहरके पाखानेकी तरफ उंगली बताई । मेरे लिए इसमें असमंजसकी या रोषकी कोई बात न थीं; क्योंकि ऐसे अनुभवोंसे मैं पक्का हो गया था। नौकर तो बेचारा अपने धर्मका पालन कर रहा था, और राजेंद्रबाबूके प्रति अपना फर्ज अदा करता था। इन मजेदार अनुभवोंसे राजकुमार शुक्ल प्रति जहां एक ओर मेरा मान बढ़ा, तहां उनके संबंध में मेरा ज्ञान भी बढ़ा। अब पटनासे लगाम मैंने अपने हाथमें ले ली । बिहारकी सरलता मौलाना मजहरुलहक और मैं एक साथ लंदनमें पढ़ते थे। उसके बाद हम बंबई १९१५की कांग्रेसमें मिले थे। उस साल वह मुसलिमलीगके सभापति थे। उन्होंने पुरानी पहचान निकालकर जब कभी मैं पटना आऊं तो उनके यहां ठहरनेका निमंत्रण दिया था। इस निमंत्रणके आधारपर मैंने उन्हें चिट्ठी लिखी और अपने कामका परिचय भी दिया। वह तुरंत अपनी मोटर लेकर आये और मुझे अपने यहां चलनेकी इसरार करने लगे। इसके लिए मैंने उनको धन्यवाद दिया और कहा कि “ मुझे अपने जाने के स्थानपर पहली ट्रेनसे रवाना कर दीजिए। रेलवे गाइडसे मुकामका मुझे कुछ पता नहीं लग सकता।' उन्होंने राजकुमार इक्लके साथ बात की और कहा कि पहले मुजफ्फरपुर जाना चाहिए। उसी दिन शामको मुजफ्फरपुरकी गाड़ी जाती थी। उसमें उन्होंने मुझे रवाना कर दिया । मुजफ्फरपुरमें उस समय प्राचार्य कृपलानी भी रहते थे। उन्हें मैं पहचानता था । जब मैं हैदराबाद गया था तब उनके महात्यागकी, उनके जीवनकी और उनके द्रव्यसे चलनेवाले प्रश्रमकी बात डॉक्टर चोइथरामके मुंखसे सुनी थी । वह मुजफ्फरपुर कॉलेजमें प्रोफेसर थे; पर उस समय वहांसे मुक्त हो। बैठे थे। मैंने उन्हें तार किया । ट्रेन मुजफ्फरपुर अधीरातको पहुंचती थी । वह अपने शिष्य-मंडल को लेकर स्टेशन आ पहुंचे थे; परंतु उनके धर-बार कुछ न था । वह अध्यापक मलकानीके यहां रहते थे; मुझे उनके यहां ले गये । मलकानी भी वहांके कॉलेजमें प्रोफेसर थे और उस जमानेमें सरकारी कॉलेजके प्रोफेसर [ ४३१ ]________________

त्मि-कथा : भाग ५ की मुझे अपने यहां ठहराना एक असाधारण बात थी । कृपलानीजीने बिहारकी और उसमें तिरहुत-विभागको दीन दशा का वर्णन किया और मुझे अपने कामकी कठिनाई का अंदाज बताया । कृपलानीजीने बिहारियोंके साथ गाढ़ई संबंध कर लिया था। उन्होंने मेरे कामकी बात वहांके लोगोंसे कर रक्खी थी। सुबह होते ही कुछ वकील मेरे पास अर्थ । उनमें से रामनवमीप्रसादजीका नाम मुझे याद रह गया है। उन्होंने अपने इस अाग्रहके कारण मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा था---- “आप जिस काभको करने यहां आये हैं वह इस जगह नहीं हो सकता है। आपको तो हम-जैसे लोगों के यहां चलकर ठहरना चाहिए। गयाबाबू यहांके मशहूर वकील हैं। उनकी तरफसे मैं आपको उनके यहां ठहरनेका आग्रह करता हैं । हम सब सरकार तो जरूर डरते हैं; परंतु इससे जितनी हो सकेगी आपकी मदद करेंगे । राजकुमार शुक्लकी बहुतेरी बातें सच हैं। हमें अफसोस है कि हमारे अगुअा अाज यहां नहीं हैं। बाबू बृजकिशोरप्रसादको और राजेंद्रप्रसादको मैंने तार दिया है। दोनों यहां जल्दी आ जायंगे और आपको पूरी-पूरी वाकझियत और मदद दे सकेंगे । मिहबानो करके आप गयाबाबूके यहां चलिए ।” | यह भाषण सुनकर मैं ललचाया; पर मुझे इस भवसे संकोच हुआ, मुझे ठहरानेसे कही गयाबावूकी स्थिति विषम न हो जाय; परंतु गयाबाबूने इसके विषय में मुझे निश्चित कर दिया । अब मैं गयाबाबूके यहां ठहरा। उन्होंने तथा उनके कुटुंबी-जनोंने मुझपर बड़े प्रेमकी वर्षा की । बृजकिशोरबाबू : दरभंगासे और राजेंद्रबाबू पुरीसे यहां आये । यहां लो मैंने देखा तो वह लखनऊवाले बृजकिशोरप्रसाद नहीं थे। उनके अंदर बिहारीकी नम्रता, सादगी, भलमंती और असाधारण श्रद्धा देखकर मेरा हृदय हर्षसे फूल उठा। बिहारों वकील-मंडलका उनके प्रति आदरभाव देखकर मुझे आनंद और आश्चर्य दोनों हुए । तबसे इस वकील-मंडलके और मेरे जन्म-भरके लिए, स्नेह-गांठ बंध गई। बृजकिशोरबाबूने मुझे सब बातोंसे वाकिफ कर दिया। वह गरीब किसानों. की तरफसे मुकदमे लड़ते थे। ऐसे दो मुकदमे उस समय चल रहे थे। ऐसे मुकदमों [ ४३२ ]________________

अध्याय १३ : बिहारकी सरलता के द्वारा वह कुछ व्यक्तियोंको राहत दिलाते थे; पर कभी-कभी इसमें भी असफल हो जाते थे। इन भोले-भाले किसानोंसे वह फीस लिया करते थे । त्यागी होते हुए भी बृजकिशोरबाबू या राजेंद्रबाबू फीस लेने में संकोच न करते थे । “पेशेके काममें अगर फीस न लें तो हमारा घर-खर्च नहीं चल सकता और ह लोगोंकी मदद भी नहीं कर सकते।" यह उनकी दलील थी। उनकी तथा बंगाल-बिहारके बैरिस्टरोंकी फीसके कल्पनातीत अंक सुनकर मैं तो चकित रह गया । ...को हमने 'ओपीनियन के लिए दस हजार रुपये दिये ।" हजारों सिवाय तो मैंने बात ही नहीं सुनी । | इस मिडलने इस विषय में मेरा मीठा उलाहना प्रेमके साथ सुना । उन्होंने उसका लेटा अर्थ नहीं लगाया । मैंने कहा- “इन सुकदमोंकी मिसलें देखने के बाद मेरी तो यह राय होती है कि हम यह मुकदमेबाजी अब छोड़ दें। ऐसे मुकदमोंसे बहुत कम लाभ होता है। जहां प्रजा इतनी कुचली जाती है, जहां सब लोग इतने भयभीत रहते हैं, वहां अदालतोंके द्वारा बहुत कम राहत मिल सकती है । इसका सच्चा इलाज तो है लोगोंके दिलसे डरको निकाल देना। इसलिए अब जबतक यह ‘तीन कठिया प्रथा मिट नहीं जाती तबतक हम आरामसे नहीं बैठ सकते । मैं तो अभी दो दिनमें जितना देख सकू, देखने के लिए आया हूं; परंतु मैं देखता हूं। कि इस काममें दो वर्ष भी लग सकते हैं; परंतु इतने समयकी भी जरूरत हो तो में देनेके लिए तैयार हूं। यह तो मुझे सुझ रहा है कि मुझे क्या करना चाहिए। परंतु आपकी मददकी जरूरत है।” • मैंने देखा कि बृजकिशोरबाबू निश्चित विचारके आदमी हैं। उन्होंने शांतिके साथ उत्तर दिया--- "हमसे जो-कुछ बन सकेगी वह मदद हम जरूर करेंगे; परंतु हमें आप बतलाइए कि आप किस तरहकी मदद चाहते हैं । हम लोग रातभर बैठकर इस विषयपर विचार करते रहे। मैंने कहा--- “मुझे आपकी वकालतकी सहायताकी जरूरत कम होगी । आप-जैससे मैं लेखक और दुभाषियेके रूपमें सहायता चाहता हूं। संभव हैं, इस काममें जेल जाने की भी नौबत आ जाय। यदि आप इस जोखिममें पड़ सकें तो मैं इसे पसंद, क़रूभा; परंतु यदि अपि न पड़ना चाहें तो भी कोई बात नहीं । वकालत को

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