सत्य के प्रयोग/ आखिर विलायतमें

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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हैसियतसे अपना अनुभव भी सुनाते। कहते-"अंग्रेजी हमारी मातृ-भाषा नहीं, इसलिए बोलनेमें भूलें होना स्वाभाविक है। फिर भी बोलनेका रफ्त तो करना ही चाहिए, आदि।" परन्तु मेरे लिए अपना दब्बूपन छोड़ना भारी पड़ता था।

मुझपर तरस खाकर एक भले अंग्रेजने मुझसे बातचीत करना शुरू कर दिया; वह मुझसे बड़े थे। मैं क्या खाता हूं, कौन हूं, कहां जा रहा हूं, क्यों किसीके साथ बातचीत नहीं करता, इत्यादि सवाल पूछते। मुझे खानेके लिए मेजपर जानेकी प्रेरणा करते। मांस न खानेके मेरे आग्रहकी बात सुनकर एक रोज हंसे और मुझपर दया प्रदर्शित करते हुए बोले- "यहां तो (पोर्टसईद पहुंचेतक) सब ठीक-ठाक है, परंतु बिस्केके उपसागरमें पहुंचनेपर तुम्हें अपने विचार बदलने पड़ेंगे। इंग्लैंडमें तो इतना जाड़ा पड़ता है कि मांसके बिना काम चल ही नहीं सकता।"

मैन कहा- "मैंने तो सुना है कि वहां लोग बिना मांसाहार किये रह सकते हैं।"

उन्होंने कहा- "यह झूठ है। मेरी जान-पहचानवालोंमें कोई आदमी ऐसा नहीं है, जो मांस न खाता हो। मैं शराब पीनेके लिए तुमसे नहीं कहता; पर मैं समझता हूं, मांस तो तुम्हें अवश्य खाना चाहिए।"

मैंने कहा- "आपकी सलाह के लिए मैं आपका प्राभारी हूं। पर मैंने अपनी माताजीको वचन दिया है कि मैं मांस न खाऊंगा। अत: मैं मांस नहीं खा सकता। यदि उसके बिना न रह सकते हों तो मैं फिर हिंदुस्तानको लौट जाऊंगा, पर मांस हरगिज न खाऊंगा।"

बिस्केका उपसागर आया। वहां भी मुझे न तो मांसकी आवश्यकता मालूम हुई, न मदिराकी ही। घरपर मुझसे कहा गया था कि मांस न खानेके प्रमाणपत्र संग्रह करते रहना। सो मैंने इन अंग्रेज मित्रसे प्रमाणपत्र मांगा। उन्होंने खुशीसे दे दिया। बहुत समय तक मैंने उसे धनकी तरह संभालकर रक्खा। पीछे जाकर मुझे पता चला कि प्रमाणपत्र तो मांस खाकर भी प्राप्त किये जा सकते हैं। तब उससे मेरा दिल हट गया। मैंने कहा-यदि मेरी बातपर किसीको विश्वास न हो तो ऐसे मामलोंमें प्रमाणपत्र दिखानेसे भी मुझे क्या लाभ हो सकता है? [ ६४ ]किसी तरह दुःख-सुख उठा, हमारी यात्रा पूरी हुई और साउदेम्प्टन बंदरपर हमारे जहाजने लंगर डाला। मुझे याद पड़ता है, उस दिन शनिवार था। मैं जहाजपर काले कपड़े पहनता था। मित्रोंने मेरे लिए सफेद फलालैनके कोटपतलून भी बना दिये थे। मैंने सोचा था कि विलायतमें उतरते समय मैं उन्हें पहनूं। यह समझकर कि सफेद कपड़े ज्यादा अच्छे मालूम होते हैं, इस लिबासमें मै जहाजसे उतरा। सितंबरके अंतिम दिन थे। ऐसे लिबासमें मैंने सिर्फ अपनेको ही वहां पाया। मेरे संदूक और उनकी तालियां ग्रिंडले कंपनीके गुमाश्ते लोग ले गये थे। जैसा और लोग करते हैं, ऐसा ही मुझे भी करना चाहिए, यह समझकर मैंने अपनी तालियां भी उन्हें दे दी थीं।

मेरे पास चार परिचय-पत्र थे- एक डाक्टर प्राणजीवन मेहताके नाम, दूसरा दलपतराम शुक्लके नाम, तीसरा प्रिंस रणजीतसिंहके नाम, और चौथा दादाभाई नौरोजीके नाम। मैने साउदेम्प्टनसे डाक्टर मेहताको तार कर दिया था। जहाजमें किसीने सलाह दी थी कि विक्टोरिया होटलमें ठहरना ठीक होगा, इसलिए मजूमदार और मैं वहां गये। मैं तो अपने सफेद कपड़ोंकी शर्ममें ही बुरी तरह झेंप रहा था। फिर होटलमें जाकर खबर लगी कि कल रविवार होनेके कारण सोमवारतक ग्रिंडलेके यहांसे सामान न आ पावेगा। इससे मैं बड़ी दुविधामें पड़ गया।

सात-आठ बजे डाक्टर मेहता आये। उन्होंने प्रेम-भावसे मेरा खूब मजाक उड़ाया। मैंने अनजानमें उनकी रेशमी रोएंवाली टोपी देखनेके लिए उठाई और उसपर उलटी तरफ हाथ फेरने लगा। टोपीके रोएं उठ खड़े हुए। यह डाक्टर मेहताने देखा। मुझे तुरंत रोक दिया, पर कुसूर तो हो चुका था। उनकी रोकका फल इतना ही हो पाया कि मैं समझ गया- आगे फिर ऐसी हरकत न होनी चाहिए।

यहांसे मैंने यूरोपियन रस्म-रिवाजका पहला पाठ पढ़ना शुरू किया। डाक्टर मेहता हंसते जाते और बहुतेरी बातें समझाते जाते। 'किसीकी चीजको यहां छूना न चाहिए। हिंदुस्तानमें परिचय होते ही जो बातें सहज पूछी जा सकती हैं, वे यहां न पूछनी चाहिए। बातें जोर-जोरसे न करनी चाहिए। हिंदुस्तानमें साहबोंके साथ बातें करते हुए 'सर' कहनेका जो रिवाज है वह यहां अनावश्यक [ ६५ ]
है । 'सर' तो नौकर अपने मालिकको अथवा अपने अफसरको कहता है।' फिर उन्होंने यह भी कहा कि 'होटलमें तो ख़र्चा ज्यादा पड़ेगा, इसलिए किसी कुटुंबके साथ रहना ठीक होगा।' इस संबंधमें विचार सोमवारतक मुल्तवी रहा। और भी कितनी ही हिदायतें देकर डाक्टर मेहता विदा हुए।

होटलमें तो हम दोनों को ऐसा मालूम हुआ मानो कहींसे आ घुसे हों। खर्च भी बहुत पड़ता था। माल्टासे एक सिंधी यात्री सवार हुए थे। मजूमदारकी उनके साथ अच्छी जान-पहचान हो गई थी। वह सिंधी यात्री लंदनके जानकार थे। उन्होंने हमारे लिए दो कमरे ले लेनेका जिम्मा लिया। हम दोनों रजामंद हुए और सोमवारको ज्यों ही सामान मिला, होटलका बिल चुकाकर उन कमरोंमें दाखिल हुए। मुझे याद है कि होटलका खर्चा लगभग तीन पौंड मेरे हिस्से में आया था। मैं तो भौंचक रह गया। तीन पौंड देकर भी भूखा ही रहा। वहांकी कोई चीज अच्छी नहीं लगी। एक चीज उठाई, वह न भाई। तब दूसरी ली। पर दाम तो दोनोंका देना पड़ता था। मैं अभीतक प्राय: बंबईसे लाये खाद्यपदार्थोंपर ही गुजारा करता रहा।

उस कमरेमें तो मैं बड़ा दु:खी हुआ। देश खूब याद आने लगा। माताका प्रेम साक्षात् सामने दिखाई पड़ता। रात होते ही रुलाई शुरू होती। घरकी तरह-तरहकी बातें याद आतीं। उस तूफानमें नींद भला क्यों आने लगी? फिर उस दुःखकी बात किसीसे कह भी नहीं सकता था। कहनेसे लाभ ही क्या था? मैं खुद न जानता था कि मुझे किस इलाजसे तसल्ली मिलेगी। लोग निराले, रहन-सहन निराली, मकान भी निराले और घरोंमें रहनेका तौर-तरीका भी निराला। फिर यह भी अच्छी तरह नहीं मालूम कि किस बातके बोल देनेसे अथवा क्या करनेसे यहांके शिष्टाचारका अथवा नियमका भंग होता है। इसके अलावा खान-पानका परहेज अलग; और जिन चीजोंको मैं खा सकता था, वे रूखी-सूखी मालूम होती थीं। इस कारण मेरी हालत सांप-छछूंदर जैसी हो गई। विलायतमें अच्छा नहीं लगता था और देशको भी वापस नहीं लौट सकता था। फिर विलायत आ जानेके बाद तो तीन साल पूरा करके ही लौटने का निश्चय था।

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