सत्य के प्रयोग/ मेरी पसंदगी

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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मेरी पसंदगी

डाक्टर मेहता सोमवारको विक्टोरिया होटलमें मुझसे मिलने गये। वहां उन्हें हमारे नये मकानका पता लगा। वह वहां आये। मेरी बेवकूफीसे जहाजमें मुझे दाद हो गई थी। जहाजमें खारे पानीसे नहाना पड़ता। उसमें साबुन घुलता नहीं। इधर मैं साबुनसे नहानेमें सभ्यता समझता था। इसलिए शरीर साफ होनेके बदले उलटा चिकटा हो गया और मुझे दाद पैदा हो गई। डाक्टरने तेजाब-सा एसिटिक-एसिड दिया, जिसने मुझे रुलाकर छोड़ा। डाक्टर मेहताने हमारे कमरे आदिको देखकर सिर हिलाया व कहा- "यह मकान कामका नहीं। इस देशमें आकर महज पुस्तकें पढ़नेकी अपेक्षा यहांका अनुभव प्राप्त करना ज्यादा जरूरी है। इसके लिए किसी कुटुंबमें रहने की जरूरत है। पर फिलहाल कुछ बातें सीखनेके लिए . . . के यहां रहना ठीक होगा। मैं तुमको उनके यहां ले चलूंगा।"

मैंने सधन्यवाद उनकी बात मान ली। उन मित्रके यहां गया। उन्होंने मेरी खातिर-तवाजोमें किसी बातकी कसर न रक्खी। मुझे अपने सगे भाईकी तरह रक्खा, अंग्रेजी रस्म-रिवाज सिखाये। अंग्रेजीमें कुछ बातचीत करनेकी टेव भी उन्होंने मुझे डाली।

पर मेरे भोजनका सवाल बड़ा विकट हो पड़ा। बिना नमक, मिर्च, मसालेका साग भाता नहीं था। मालकिन बेचारी मेरे लिए पकाती भी क्या? सुबह ओट-मीलकी एक किस्मकी लपसी बनती, उससे कुछ पेट भर जाता, पर दोपहरको और शामको हमेशा भूखा रहता। यह मित्र मांसाहार करने के लिए रोज समझाते। पर मैं अपनी प्रतिज्ञाका नाम लेकर चुप हो रहता। उनकी दलीलोंका मुकाबला न कर सकता था। दोपहरको सिर्फ रोटी और चौलाईके साग तथा मुरब्बेपर गुजर करता। यही खाना शामको भी। मैं देखता था कि रोटीके तो दो ही तीन टुकड़े ले सकते हैं, अतः ज्यादा मांगते हुए झेंप लगती। फिर मेरा आहार भी काफी था। जठराग्नि तेज थी, और काफी आहार भी [ ६७ ]
चाहती थी। दोपहरको या शामको दूध बिलकुल नहीं मिलता था। मेरी यह हालत देखकर वह मित्र एक दिन झल्लाये और बोले- "देखो, यदि तुम मेरे सगे भाई होते तो मैं तुमको जरूर देश लौटा देता। निरक्षर मांको यहांकी हालत जाने बगैर दिये गये वचनका क्या मूल्य? इसे कौन प्रतिज्ञा कहेगा? मैं तुमसे कहता हूं कि कानूनके अनुसार भी इसे प्रतिज्ञा नहीं कह सकते। ऐसी प्रतिज्ञा लिये बैठे रहना अंध-विश्वासके सिवा कुछ नहीं। और ऐसे अंध-विश्वासोंका शिकार बने रहकर तुम इस देशसे कोई बात अपने देशको नहीं ले जा सकते। तुम तो कहते हो कि मैंने मांस खाया है। तुम्हें तो वह भाया भी था। अब जहां खानेकी कोई जरूरत न थी वहां तो खा लिया, और जहां खास तौरपर उसकी जरूरत है वहां उसका त्याग। कितने ताज्जुबकी बात है।"

पर मैं टससे मस न हुआ।

ऐसी दलीलें रोज हुआ करतीं। छत्तीस रोगोंकी दवा ‘नन्ना' ही मेरे पास थी। वह मित्र ज्यों-ज्यों मुझे समझाते त्यों-त्यों मेरी दृढ़ता बढ़ती जाती। रोज मैं ईश्वरसे अपनी रक्षाकी याचना करता और रोज वह पूरी होती। मैं यह तो नहीं जानता था कि ईश्वर क्या चीज है, पर उस रंभाकी दी हुई श्रद्धा अपना काम कर रही थी।

एक दिन मित्रने मेरे सामने बेंथमकी पुस्तक पढ़नी शुरू की। उपयोगितावादका विषय पढ़ा। मैं चौंका। भाषा क्लिष्ट। मैं थोड़ा-बहुत समझता। तब उन्होंने उसका विवेचन करके समझाया। मैंने उत्तर दिया, "मुझे इससे माफी दीजिए। मैं इतनी सूक्ष्म बातें नहीं समझ सकता। मैं मानता हूं कि मांस खाना चाहिए, परंतु प्रतिज्ञाके बंधनको मैं नहीं तोड़ सकता। इसके संबंधमें मैं वाद-विवाद भी नहीं कर सकता। मैं जानता हूं कि बहसमें मैं आपसे नहीं जीत सकता। अतः मुझे मूर्ख समझकर, अथवा जिद्दी ही समझकर, इस बातमें मेरा नाम छोड़ दीजिए। आपके प्रेमको मैं पहचानता हूं। आपका उद्देश्य भी समझता हूं। आपको अपना परम हितेच्छु मानता हूं। मैं यह भी देखता हूं कि आप इसीलिए आग्रह करते हैं कि आपको मेरी हालतपर दुःख होता है। पर मैं लाचार हूं। प्रतिज्ञा किसी तरह नहीं टूट सकती।"

मित्र बेचारे देखते रह गये। उन्होंने पुस्तक बंद करदी। "बस,अब [ ६८ ]
मैं तुमसे इस बात पर बहस न करूंगा।" कहकर चुप हो रहे। मैं खुश हुआ। इसके बाद उन्होंने बहस करना छोड़ दिया।

पर मेरी तरफसे उनकी चिंता दूर न हुई। वह सिगरेट पीते, शराब पीते। पर इसमेंसे एक भी बातके लिए मुझे कभी नहीं ललचाया। उलटा मना करते। पर उनकी सारी चिंता तो यह थी कि मांसाहारके बिना मैं कमजोर हो जाऊंगा और इंग्लैंडमें आजादीसे न रह सकूंगा।

इस तरह एक मास तक मैंने नौसिखियेके रूपमें उम्मीदवारी की। उन मित्रका स्थान रिचमंडमें था, इससे लंदन सप्ताहमें एक-दो बार ही जाया जाता। अब डाक्टर मेहता तथा श्री दलपतराम शुक्लने यह विचार किया कि मुझे किसी कुटुंबमें रखना चाहिए। श्री शुक्लने वेस्ट फेसिंगटनमें एक एंग्लो-इंडियनका घर खोजा, और वहां मेरा डेरा लगा। मालकिन विधवा स्त्री थी। उससे मैंने अपने मांस-त्यागकी बात कही। बुढ़ियाने मेरे लिए निरामिष भोजनका प्रबंध करना स्वीकार किया। मैं वहां रहा, पर वहां भी भूखे ही दिन बीतते। घरसे मैंने मिठाइयां आदि मंगाई तो थीं, पर वे अभी पहुंच नहीं पाई थीं। बुढ़ियाके यहांका खाना सब बे-स्वाद लगता। बुढ़िया बार-बार पूछती, पर बेचारी करती क्या, फिर मैं अभीतक शरमाता था। बुढ़ियाके दो लड़कियां थीं। वे आग्रह करके कुछ रोटी ज्यादा परोस देतीं, पर वे बेचारी क्या जानती थीं कि मेरा पेट तो तभी भर सकता था, जब उनकी सारी रोटियां सफा कर जाता।

लेकिन अब मेरे पंख फूटने लग गये थे। अभी पढ़ाई तो शुरू हुई भी नहीं। यों हीं अखबार वगैरा पढ़ने लगा था। वह हुआ शुक्लजीके बदौलत। हिंदुस्तानमें मैंने कभी अखबार नहीं पढ़ा था। परंतु निरंतर पढ़नेके अभ्याससे उन्हें पढ़नेका शौक लग गया। 'डेलीन्यूज़', 'डेली टेलीग्राफ' और 'पेलमेल गजट' इतने अखबारों पर नजर डाल लिया करता था। परंतु शुरु-शुरुमें इसमें एक घंटे से ज्यादा न लगता था।

मैंने घूमना शुरू कर दिया। मुझे निरामिष अर्थात् अन्नके भोजनवाले भोजन-गृहकी तलाश थी। मकान-मालकिनने भी कहा था कि लंदन शहरमें ऐसे गृह हैं अवश्य। मैं १०-१२ मील रोज घूमता। किसी मामूली भोजनालयमें जाकर रोटी तो पेट-भर खा लेता, पर दिल न भरता। इस तरह भटकते हुए

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