सत्य के प्रयोग/ आश्रमकी झांकी

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४५२ ]अध्याय २१ : अाश्रमकी झांकी ४३५ोो

बातचीत करता और उन्हें इंसाफ करने के लिए समझाता । “हमें भी तो अपनी टेक रखनी है । हमारा और मजदूरोंका वाप-बेटोंका संबंध है । . . . . उसके बीचमें यदि कोई पड़ना चाहे तो इसे हम कैसे सहन कर सकते हैं ? बाप-बेटोंमें पंचकी क्या जरूरत है ?” यह जवाब मुझे मिलता ।

                               २१
                         आश्रमकी भांकी
   
   मजदूर-प्रकरणको आगे ले चलनेके पहले आश्रमकी एक झलक देख लेनेकी आवश्यकता है। चंपारनमें रहते हुए भी मैं आश्रमको भूल नहीं सकता था । कभी-कभी वहां आ भी जाता था । 
   कोचरब अहमदाबादके पास एक छोटा-सा गांव है । आश्रमका स्थान इसी गांवमें था । कोचरबमें प्लेग शुरू हुआ । बालकोंको मैं बस्तीके भीतर सुरक्षित नहीं रख सकता था । स्वच्छताके नियमोंका पालन चाहे लाख करें, मगर आस-पासकी गंदगीसे आश्रमको अछूता रखना असंभव था । कोचरबके लोगोंसे स्वच्छताके नियमों का पालन करवानेकी अथवा ऐसे समय में उनकी सेवा करनेकी शक्ति हममें न थी । हमारा आदर्श तो आश्रमको शहर या गांवसे दूर रखना था, हालांकि इतना दूर नहीं कि वहां जानेमें बहुत मुश्किल पड़े। आश्रमकॊ आश्रमके रूप में सुशोभित होनेके पहले उसे अपनी जमीनपर खुली जगहमें स्थिर तो हो ही जाना था । 
   इस महामारीको मैंने कोचरब छोड़नेका नोटिस माना। श्री पुंजाभाई हीराचंद आश्रमके साथ बहुत निकट संबंध रखते और आश्रमकी छोटी-बड़ी सेवायें निरभिमानं-भावसे करते थे । उन्हें अहमदावादके काम-काजका बहुत अनुभव था । उन्होंने आश्रमके लायक आवश्यक जमीन तुरंत ही ढूंढ़ देनेका बीड़ा उठाया । कोचरबके उत्तर-दक्षिणका भाग मै उनके साथ घूम गया । फिर मैंने उनसे कहा कि उत्तरकी ओर तीन-चार मील दूरपर अगर जमीनका टुकड़ा मिले तो खोजिए । अब  जहांपर आश्रम है, वह जमीन उन्हींकी ढूंढी हुई है । [ ४५३ ]४३६                  आत्म-कथां : भाग ५

मेरे लिए वह खास प्रलोभन था कि वह जमीन जेलके निकट है । मैंने यह माना हैं कि सत्याग्रहश्रम वासीके भाग्यमें जेल तो लिखा ही है, जेलका पड़ौस पसंद पड़ा । इतना तो मैं जानता था कि हमेशा जेलके लिए वैसा ही स्थान ढूंढ़ा जाता है, जिसके आस-पासकी जगह साफ-सुथरी हो ।

     कोई आठ दिनोंमें ही जमीनका सौदा हो गया । जमीनपर मकान एक भी न था । न कोई झाड़-पेड़ ही था । उसके लिए सबसे बड़ी सिफारिश तो यह थी कि वह एकांत और नदी के किनारे पर है । शुरूमें हमने तंबूमें रहनेका निश्चय किया । रसोईके लिए टीनका एक काम-चलाऊ छप्पर बना लिया और सोचा कि स्थायी मकान धीरे-धीरे बना लेंगे ।
     इस समय आश्रममें काफी आदमी थे । छोटे-बड़े कोई चालीस स्त्रीपुरुष थे । इतनी सुविधा थी कि सब एक ही रसोईमें खाते थे । योजनाकी कल्पना मेरी थी, उसे अमलमें लानेका भार उठानेवाले तो नियमानुसार स्व: मगनलाल ही थे ।
     स्थायी मकान बननेके पहले असुविधाका तो कोई पार ही न था । बरसातका मौसम सिरपर था । सारा सामान चार मील दूर शहरसे लाना था । इस उजाड़ जमीनमें सांप वगैरा तो थे ही । ऐसे उजाड़ स्थानमें बालकोंको संभालनेकी जोखिम ऐसी-वैसी नहीं थी । सांप वगैराको मारते न थे; मगर उनके भयसे मुक्त तो हममेंसे कोई न था, आज भी नहीं है ।
     हिंसक जीवोंको न मारनेके नियमका यथाशक्ति पालन फिनिक्स, टॉलस्टाय-फार्म और साबरमती-तीनों जगहों में किया है। तीनों जगहोंमें उजाड़ जंगलमें रहना पड़ा है । तीनों जगहोंमें सांप वगैरा का उपद्रव खूब ही था; मगर तो भी अबतक एक भी जान हमें खोनी नहीं पड़ी है। इसमें मेरे-जैसा श्रद्धालु तो ईश्वरका हाथ, उसकी कृपा ही देखता है । ऐसी निरंथक शंका कोई न करे कि ईश्वर पक्षपात नहीं करता, मनुष्यके रोजके काममें हाथ डालनेको वह बेकार नहीं बैठा है । अनुभवकी दूसरी भाषामें इस भावको रखना मैं नहीं जानता । ईश्वरकी कृतिको लौकिक भाषामें रखते हुए भी मैं जानता हूं कि उसका 'कार्य' अवर्णनीय है; किंतु अगर पामर मनुष्य उसका वर्णन करे तो उसके पास तो अपनी तोतली बोली ही होगी । आम तौर पर सांपको न मारते हुए भी वहांका 

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