सत्य के प्रयोग/ मजदूरोंसे संबंध

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४४९ ]४३२ आत्म-कथा: भाग ५ लिखी जा सकती थी और अंतको जो कानून बना वह न बन पाता । निलहों की सत्ता बहुत प्रबल थी । रिपोर्ट हो जाने के बाद भी कितनों ने बिलका विरोध किया था, परंतु सर एडवर्ड गेट दृढ़ रहे और समिति की सिफारिशोंका पूरा-पूरा पालन उन्होंने कराया । इस तरह सौ वर्षका पुराना यह तीन कठिया' कानून रद हुआ और उसके साथ ही निलहों का राज्य भी अस्त हो गया । रैयतने, जो दबी हुई थी, अपने बलको कुछ पहचाना और उसका यह वहम दूर होगया किं नीलका दाग वो धोये नहीं धुलता । - मेरी इच्छा थी कि चंपारन में जो रचनात्मक कार्य आरंभ हुआ है उसे जारी रखकर लोगों में कुछ वर्षों तक काम किया जाय और अधिक पाठशालाएं खोल कर अधिक गांवोंमें प्रवेश किया जाय । क्षेत्र तो तैयार था; परंतु मेरे मनसूबे ईश्वरने बहुत बार पार नहीं पड़ने दिये हैं । मैंने सोचा था एक और दैवने मुझे दूसरे ही काममें ले घसीटा । - २० मजदूरों से संबंध अभी मैं चंपारन में जांच-समिति का काम खतम कर ही रहा था कि इतने में खेड़ासे मोहन लाल पंड्या और शंकरलाल परीखका पत्र मिला कि खेड़ा जिलेमें फसल नष्ट हो गई है और उसका लगान माफ होना जरूरी है । आप आइये और वहां चलकर लोगों को राह दिखाइए । वहां जाकर जबतक मैं खुद जांच न करलूं, तबतक कुछ सलाह देने की इच्छा मुझे न थी और न ऐसी सामथ्र्य और साहस ही था । - . दूसरी ओर श्रीमती अनसूया बहनकी चिट्ठी उनके ‘मजूर-संघ' के संबंधमें मिली । मजदूरों का वेतन कम था । बहुत दिनोंसे उनकी मांग थी कि वेतन बढ़ाया जाय । इस संबंध में उनका पथ-प्रदर्शन करनेका उत्साह मुझे था । । यह काम यों तो छोटा-सा था; परंतु मैं उसे दूर बैठकर नहीं कर सकता था । इससे में तुरंत अहमदाबाद पहुंचा । मैंने सोचा तो यह था कि दोनों कामोंकी [ ४५० ]अध्याय २० : मजदूरोंसे संबंध ४३३ जांच करके थोड़े ही समयमें चंपारन लौट आऊंगा और वहांके रचनात्मक कामको संभाल लूंगा । परंतु अहमदाबाद पहुंचने के बाद ऐसे काम निकल आये कि मैं बहुत समय तक चंपारन न जा सका और जो पाठशालायें वहां चलती थीं वे एकके बाद एक टूट गई । साथियों ने और मैंने जो कितने ही हवाई किले बांध रक्खे थे, वे कुछ समयके लिए टूट गये । चंपारन में ग्राम-पाठशाला और ग्राम-सुधार के अलावा गोरक्षा का काम भी मैंने अपने हाथ में ले लिया था । अपने भ्रमण में मैं यह बात देख चुका था कि गोशाला और हिंदी-प्रचार के काम का ठेका मारवाड़ी भाइयों ने ले लिया है । बेतिया में एक मारवाड़ी सज्जन ने अपनी धर्मशाला में मुझे आश्रय दिया था । बेतियाके मारवाड़ी सज्जनों ने मुझे उनकी गोशाला की ओर आकृष्ट किया था । गोरक्षाके संबंध में जो विचार मेरे आज हैं वही उस समय बन चुके थे । गोरक्षा का अर्थ है गोवंश की वृद्धि, गोजाति का सुधार, बैलसे मर्यादित काम लेना, गोशा ला को आदर्श दुग्धालय बनाना, इत्यादि । इस काममें मारवाड़ी भाइयोंने पूरी मदद देने का वचन दिया था; परंतु मैं चंपारनमें जमकर नहीं बैठ सका । इसलिए बह काम अधूरा ही रह गया । बेतियामें गोशाला तो आज भी चल रही है; परंतु वह आदर्श दुग्धालय नहीं बन सकी । चंपारनमें बैलोंसे आज भी ज्यादा काम लिया जाता है । हिंदू-नामधारी अब भी बैलोंको निर्दयतासे पीटते हैं और इस तरह अपने धर्मको डुबोते हैं। यह अफसोस मुझे हमेशा के लिए रह गया है । मैं जब-जब चंपारन जाता हूं तब-तब उन अधूरे रहे कामों को स्मरण करके एक लंबी सांस छोड़ता हूं और उन्हें अधूरा छोड़ देनेके लिए मारवाड़ी भाइयों और बिहारियोंका मीठा उलाहना सुनता हूं । पाठशालाओं का काम तो एक नहीं दूसरी रीति से दूसरी जगह चल रहा है; परंतु गो-सेवाके कार्यक्रम की तो जड़ ही नहीं जमी थी; इसलिए उसे प्रावश्यक दिशामें गति नहीं मिल सकी । । अहमदाबादमें खेड़ाके कामके लिए सलाह-मशवरा चल रहा था कि इतनेमें मजदूरोंका काम मैंने अपने हाथमें ले लिया । इसमें मेरी स्थिति बड़ी नाजुक थी । मजदूरोंका पक्ष मुझे मजबूत मालूम [ ४५१ ]४३४ आत्म-कथा: भाग ५

हुआ । श्रीमती अनसूया बहनको अपने सगे भाईके साथ लड़नेका प्रसंग आगया था । मजूरों और मालिकोंके इस दारुण युद्धमें श्री अंबालाल साराभाईने मुख्य भाग लिया था । मिल-मालिकोंके साथ मेरा मीठा संबंध था । उनके साथ लड़ना मेरे लिए विषम काम था । मैंने उनसे आपसमें बातचीत करके अनुरोध किया कि पंच बनाकर मजदूरोंकी मांगका फैसला कर लीजिए; परंतु मालिकोंने अपने और मजदूरोंके बीचमें पंचकी मध्यस्थताके औचित्यको पसंद न किया।

       तब मजदूरोंको मैंने हड़ताल कर देनेकी सलाह दी । यह सलाह देनेके पहले मैंने मजदूरों और उनके नेताओंसे काफी पहचान और बातचीत कर ली थी । उन्हें मैंने हड़तालकी नीचे लिखी शर्ते समझाई-
       (१) किसी हालतमें शांति भंग न करना । 
       (२) जो कामपर जाना चाहें उनके साथ किसी किस्मकी ज्यादती या जवरदस्ती न करना।
       (३) मजदूर भिक्षान्न न खावें ।  
       (४) हड़ताल चाहे जबतक करना पड़े, पर वे दृढ़ रहें और जब रुपया-पैसा न रहे तो दूसरी मजदूरी करके पेट पालें । 
        अगुप्रा लोग इन शर्तोको समझ गये और उन्हें ये पसंद भी आई । अब मजदूरोंने एक प्राम सभा की और उसमें प्रस्ताव किया कि जबतक हमारी मांग स्वीकार न की जाय अथवा उसपर विचार करनेके लिए पंच न मुकरैर हों तबतक हम काम पर न जायेंगे ।
        इस हड़तालमें मेरा परिचय श्री वल्लभभाई पटेल और श्री शंकरलाल बैंकरसे बहुत अच्छी तरह हो गया । श्रीमती अनसूया बहनसे तो मेरा परिचय पहले ही खूब हो चुका था । 
        हड़तालियोंकी सभा रोज साबरमतीके किनारे एक पेड़के नीचे होने लगी । वे सैकड़ोंकी संख्या में आते । मैं रोज उन्हें अपनी प्रतिज्ञाका स्मरण कराता । शांति रखने और स्व-मानकी रक्षा करनेकी आवश्यक्ता उन्हें समझाता । वे अपना 'एक टेक'का झंडा लेकर रोज शहरमें जलूस निकालते और सभामें आते ।
        यह हड़ताल २१ दिन चली । इस बीच में समय-समयपर मालिकोंसे 

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