सत्य के प्रयोग/ कसौटी

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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कसौटी

जहाज किनारे लगा। मुसाफिर उतरे; परंतु मेरे लिए मि० एस्कंब ने कप्तान से कहला दिया था कि गांधी को तथा उनके बाल-बच्चों को शाम को उतारिएगा। गोरे उनके खिलाफ बहुत उभरे हुए हैं, और उनकी जान खतरे में है। ढाॅक के सुपरिटेंडेंट टैटम उन्हें शाम को लिवा ले जायंगे।

कप्तान ने मुझे इस संदेश का समाचार सुनाया। मैंने उनके अनुसार करना स्वीकार किया; परंतु इस संदेश को मिले अभी आधा घंटा भी न हुआ होगा कि मि० लाटन आये और कप्तान से मिलकर कहा--“ यदि मि० गांधी मेरे साथ आना चाहें तो मैं उन्हें अपनी जिम्मेदारी पर ले जाना चाहता हूं। जहाज के एजेंट के वकील की हैसियत से मैं आपसे कहता हूं कि मि० गांधी के संबंध में जो संदेश आपको मिला है उससे आप अपने को बरी समझें। ”इस तरह कप्तान से बातचीत करके वह मेरे पास आये और कुछ इस प्रकार कहा-- “यदि आपको जिंदगी का डर न हो तो मैं चाहता हूं कि श्रीमती गांधी और बच्चे गाड़ी में रुस्तम जी सेठ के यहां चले जाय और मैं और आप आम-रास्ते होकर पैदल चलें। रात को अंधेरा पड़ जाने पर चुपके-चुपके शहर में जाना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। मैं समझता हूं कि आपका बाल तक बांका नहीं हो सकता है। अब तो चारों ओर शांति है। गोरे सब इधर-उधर बिखर गये हैं। और जो भी हो, मेरा तो यही मत है कि आपका इस तरह छिपकर जाना उचित नहीं। ”

मै इससे सहमत हुआ। धर्म-पत्नी और बच्चे रुस्तम जी सेठ के यहाँ गाड़ी में गये और सही-सलामत जा पहुँचे! मैं कप्तान से विदा मांगकर मि० लाटन के साथ जहाज से उतरा। रुस्तम जी सेठ का घर लगभग दो मील था।

जैसे ही हम जहाज से उतरे, कुछ छोकरों ने मुझे पहचान लिया और वे ‘गांधी-गांधी' चिल्लाने लगे। तत्काल ही दो-चार आदमी इकट्ठे हो गये और मेरा नाम लेकर जोर से चिल्लाने लगे। मि० लाटन ने देखा कि भीड़ बढ़ जायगी, उन्होंने रिक्शा मंगाई। मुझे रिक्शा में बैठना कभी भी अच्छा न मालूम होता था। [ २१३ ]मुझे उसका अनुभव यह पहली ही बार होने वाला था । पर छोकरे क्यों बैठने देने लगे ? उन्होंने रिक्शा वाले को धमकाकर भगा दिया ।

हम आगे चले । भीड़ भी बढ़ती जाती थी । काफी मजमा हो गया । सबसे पहले तो भीड़ ने मुझे मि० लाटन से अलग कर दिया । फिर मुझपर कंकड़ और सड़े अंडे बरसने लगे । किसी ने मेरी पगड़ी भी गिरा दी और मुझे लातें लगनी शुरू हुइँ ।

मुझे गश आ गया । नजदीक के घर के सींखचे को पकड़कर मैंने सांस लिया । खड़ा रहना तो असंभव ही था । अब थप्पड़ भी पड़ने लगे ।

इतने में ही पुलिस सुपरिन्टेंडेंट की पत्नी जो मुझ जानती थीं, उधर होकर निकलीं । मुझे देखते ही वह मेरे पास आ खड़ी हुई, और धूप के न रहते हुए भी अपना छाता मुझपर तान दिया । इससे भीड़ कुछ दबी । अब अगर वे चोट करते भी तो श्रीमती अलेक्जेंडर को बचाकर ही कर सकते थे ।

इसी बीच कोई हिंदुस्तानी, मुझपर हमला होता हुआ देख, पुलिस थाने पर दौड़ गया । सुपरिन्टेंडेंट अलेक्जेंडर ने पुलिस की एक टुकड़ी मुझे बचानेके लिए भेजी । वह समय पर आ पहुंची । मेरा रास्ता पुलिस चौकी से ही होकर गुजरता था । सुपरिन्टेंडेंट ने मुझे थाने में ठहर जाने को कहा । मैंने इन्कार कर दिया कहा--“जब लोग अपनी भूल समझ लेंगे तब शांत हो जायंगे । मुझे उनकी न्याय-बुद्धिपर विश्वास है ।”

पुलिस की रक्षा में में सही-सलामत पारसी रुस्तम जी के घर पहुंचां । पीठ पर मुझे अंदरूनी चोट पहुंची थी । जख्म सिर्फ एक ही जगह हुआ था । जहाज के डाक्टर दादी बरजोर वहीं मौजूद थे। उन्होंने मेरी अच्छी तरह सेवा-शुश्रूषा की ।

इस तरह जहां अंदर शांति थी, वहां बाहर से गोरों ने घर को घेर लिया । शाम हो गई थी । अंधेरा हो गया था । हजारों लोग बाहर शोर मचा रहे थे और पुकार रहे थे--“गांधी को हमारे हवाले कर दो । ”मामला संगीन देखकर सुपरिन्टेंडेंट अलेकजेंडर वहां पहुंच गये थे और भीड़ को डरा-धमका कर नहीं; बल्कि हंसी-मजाक करते हुए काबू में रख रहे थे ।

फिर भी वह चिंतामुक्त न थे । उन्होंने मुझे इस आशय का संदेश भेजा-- “यदि आप अपने मित्र के जान-माल को, मकान को तथा अपने बाल-बच्चों को

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बचाना चाहते हों तो मै जिस तरह बताऊं, आपको छिपकर इस घर से निकल जाना चाहिए।” एक ही दिन मुझे एक-दूसरे से विपरीत दो काम करने का समय आया । जबकि जान जाने का भय केवल कल्पित मालूम होता था तब मि० लाटन ने मुझे खुले आम बाहर चलने की सलाह दी और मैंने उसे माना; पर जब खतरा आंखों के सामने था तब दूसरे मित्र ने इससे उलटी सलाह दी और उसे भी मैने मान लिया । अब कौन बता सकता है कि मैं अपनी जान की जोखिम से डरा, अथवा मित्र के जान-माल को या अपने बाल-बच्चों को हानि पहुंचने के डरसे, या तीनों के ? कौन निश्चयपूर्वक कह सकता है कि मेरा जहाज से हिम्मत दिखाकर उतरना और फिर खतरे के प्रत्यक्ष होते हुए छिपकर भाग जाना उचित था ? परंतु जो बातें हो चुकी हैं उनकी इस तरह चर्चा ही फिजूल है । उसमें काम की बातें सिर्फ इतनी हैं कि जो-कुछ हुआ, उसे समझ लें । उससे जो नसीहत मिल सकती हो, उसे ले लें । किंस मौके पर कौन मनुष्य क्या करेगा, यह निश्चय-पूर्वक नहीं कह सकते । उसी तरह हम यह भी देख सकते हैं कि मनुष्य के बाह्याचार से उसके गुण की जो परीक्षा होती हैं वह अधूरी होती है और अनुमान-मात्र होती है ।

जो कुछ हो, भागने की तैयारी में मैं अपनी चोटों को भूल गया । मैन हिंदुस्तानी सिपाही की वर्दी पहनी । कहीं सिरपर चोट न लगे, इस अंदेशे से सिरपर एक पीतल की तश्तरी रख ली और उसपर मदरासियों का लंबा साफा लपेटा । साथ में दो जासूस थे, जिनमें एक ने हिंदुस्तानी व्यापारी का रूप बनाया था; अपना मुंह हिंदुस्तानी की तरह रंग लिया था । दूसरे ने क्या स्वांग बनाया था यह में भूल गया हूं । हम नजदीक की गली से होकर पड़ौस की एक दुकान में पहुंचे, और गोदाम में रक्खे बोरों के ढेर के अंधेरे में बचते हुए दुकान के दरवाजे से निकल भीड़ में होकर बाहर चले गये । गली के मुंहपर गाड़ी खड़ी थी, उसमें बैठकर हम उसी थानेपर पहुंचे जहां ठहरने के लिए सुपरिन्टेंडेंट ने पहले कहा था । मैंने सुपरिन्टेंडेंट का तथा खुफिया पुलिस के अफसर का अहसान माना । :

इस तरह एक ओर जब मैं दूसरी जगह ले जाया जा रहा था तब दूसरी ओर सुपूरिन्टेंडेंट-भीड़ को गीत-सुना रहा था-उसक-हिंदी-भाव यह है--

“चलो, इस गांधी को हम इस इमली के पेड़ पर-फांसी लटका दें ।”

जब सुपरिन्टेंडेंट को खबर मिल गई कि मैं सही-सलामत मुकाम पर [ २१५ ]
गया तब उन्होंने भीड़ से कहा--“लो, तुम्हारा शिकार तो इस दुकान से होकर सही-सलामत बाहर सटक गया । ” यह सुनकर भीड़ में से कुछ लोग बिगड़े, कुछ हंसे और बहुतेरों ने तो उनकी बात ही न मानी ।

“तो तुममें से कोई जाकर अंदर देख ले । अगर गांधी यहां मिल जाय तो उसे मैं तुम्हारे हवाले कर दूंगा, न मिले तो तुमको अपने-अपने घर चले जाना चाहिए । मुझे इतना तो विश्वास है कि तुम पारसी रुस्तम जी के मकान को न .जलाओगे और गांधी के बाल-बच्चों को नुकसान न पहुंचाओगे । ”सुपरिन्टेंडेंट ने कहा ।

भीड़ ने प्रतिनिधि चुने । प्रतिनिधियों ने भीड़ को निराशा-जनक समाचार सुनाये । सब सुपरिन्टेंडेंट अलेक्जेंडर की समय-सूचकता और चतुराई की स्तुति करते हुए, और कुछ लोग मन-ही-मन कुढ़ते हुए, घर चले गये ।

स्वर्गीय मि० चेम्बरलेन ने तार दिया कि गांधी पर हमला करने वालों पर मुकदमा चलाया जाय और ऐसा किया जाय कि गांधी को इन्साफ मिले । मि० ऐस्कंब ने मुझे बुलाया । मुझे जो चोटें पहुंची थीं, उसके लिए दुःख प्रदर्शित किया और कहा--“आप यह तो अवश्य मानेंगे कि आपको जरा-भी कष्ट पहुंचने से मुझे खुशी नहीं हो सकती । मि० लाटन की सलाह मानकर आप ने जो उतर जाने का साहस किया, उसका आपको हक था; पर यदि मेरे संदेश के अनुसार आपने किया होता तो यह दुःखद घटना न हुई होती । अब यदि आप आक्रमणकारियों को पहचान सकें तो मैं उन्हें गिरफ्तार कर के मुकदमा चलाने के लिए तैयार हूं । मि० चेम्बरलेन भी ऐसा ही चाहते हैं । ”

मैंने उत्तर दिया-- “मैं किसी पर मुकदमा चलाना नहीं चाहता । हमलाइयों मे से एक-दो को मैं पहचान भी लूं तो उन्हें सजा कराने से मुझे क्या लाभ ? फिर मैं तो उन्हें दोषी भी नहीं मानता हूं; क्योंकि उन बेचारों को तो यह कहा गया कि हिंदुस्तान में मैंने नेटाल के गोरों की भरपेट और बढ़ा-चढ़ाकर निंदा की है । इस बातपर यदि वे विश्वास कर लें और बिगड़ पड़े तो इसमें आश्चर्य की कौन बात है ? कुसूर तो ऊपर के लोगों का, और मुझे कहने दें तो आपका, माना जा सकता है । आप लोगों को ठीक सलाह दे सकते थे; पर आपने रॉयटर के तार पर विश्वास किया और कल्पना कर ली कि मैने अत्युक्ति से काम लिया होगा । मैं

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