सत्य के प्रयोग/ शांति

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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किसी पर मुकदमा चलाना नहीं चाहता । जब असली और सच्ची बात लोगों पर प्रकट हो जायगी और लोग जान जायंगे तब अपने-आप पछतायंगे ।”

“तो आप लोग मुझे यह बात लिखकर दे देंगे ? मुझे मि० चेम्बरलेन को इस आशय का तार देना पड़ेगा । मैं नहीं चाहता कि आप जल्दी में कोई बात लिख दें । मि० लाटन से तथा अपने दूसरे मित्रों से सलाह करके जो उचित मालूम हो, वही करें । हां, यह बात मैं जानता हूं कि यदि आप हमलाइयों पर मामला न चलावेंगे तो सब बातों को ठंडा करने में मुझे बहुत मदद मिलेगी और आपकी .प्रतिष्ठा तो बहुत ही बढ़ जायगी ।”

मैंने उत्तर दिया--“ इस संबंध में मेरे विचार निश्चित हो चुके हैं । यह तय हैं कि मैं किसीपर मुकदमा चलाना नहीं चाहता, इसलिए मैं यहीं-का-यहीं आपको लिख देता हूं ।”

यह कहकर मैने वह आवश्यक पत्र लिख दिया ।


शांति

हमले के दो-एक-दिन बाद जब मैं मि० ऐस्कंब से मिला तब में पुलिस थाने में ही था । मेरे साथ मेरी रक्षा के लिए एक-दो सिपाही रहते थे । पर वास्तव में देखा जाय तो जब मैं मि० ऐस्कंब के पास ले जाया गया था तब इस तरह रक्षा करने की जरूरत ही नहीं रह गई थी ।

जिस दिन मैं जहाज से उतरा उसी दिन, अर्थात् पीला झंडा उतरते ही, तुरंत 'नेटाल एडवरटाइजर' का प्रतिनिधि मुझसे आकर मिला था । उसने कितनी ही बातें पूछी थीं और उसके प्रश्नों कि उत्तर में मैंने एक-एक बात का पूरा-पूरा जवाब दिया था । सर फिरोजशाह की नेक सलाह के अनुसार उस समय मैंने भारतवर्ष में एक भी भाषण अलिखित नहीं दिया था । अपने इन तमाम लेखों और भाषणों का संग्रह मेरे पास था ही । ये सब मैने उसे दे दिये, और यह साबित कर दिया कि भारत में मैंने ऐसी एक भी बात नहीं कहीं थी, जो उससे तेज [ २१७ ]
शब्दों में दक्षिण अफ्रीका में न कही हो । मैंने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि 'कुरलैंड' तथा 'नादरी' के मुसाफिरों को लाने में मेरा हाथ बिलकुल नहीं हैं । उनमें से बहुतेरे तो नेटाल के ही पुराने वाशिंदे थे और शेष नेटाल जाने वाले नहीं, बल्कि ट्रांसवाल जाने वाले थे । उस समय नेटाल में रोजगार मंदा था । ट्रांसवाल में काम-धंधा खूब चलता था, और आमदनी भी अच्छी होती थी । इसलिए अधिकांश हिंदुस्तानी वहीं जाना पसंद करते थे ।

इस स्पष्टीकरण का तथा आक्रमणकारियों पर मुकदमा न चलने का प्रभाव इतना जबरदस्त हुआ कि गोरों को शर्मिदा होना पड़ा । अखबारों ने मुझे निर्दोष बताया और हुल्लड़ करनेवालों को बुरा-भला कहा । इस तरह अंतको जाकर इस घटना से लाभ ही हुआ । और जो मेरा लाभ था वह हमारे कार्य का ही लाभ था । इससे हिंदुस्तानी लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ी और मेरा रास्ता अधिक सुगम हो गया ।

तीन या चार दिन में मैं घर गया और थोड़े ही दिनों में अपना काम-काज देखने-भालन लगा । इस घटना के कारण मेरी वकालत भी चमक उठी ।

परंतु इस तरह एक ओर हिंदुस्तानियों की प्रतिष्ठा बढ़ी तो इसके साथ ही दूसरी और उनके प्रति द्वेष भी बढ़ा । लोगों को यह निश्चय हो गया कि इनमें दृढ़ता के साथ लड़ने की सामर्थ्य हैं और इस कारण उनका भय भी बढ़ गया । नेटाल की धारा-सभा में दो बिल पेश हुए, जिनसे हिंदुस्तानियों के कष्ट और बढ़ गये । एक से हिंदुस्तानी व्यापारियों के धंधे को हानि पहुंचती थी और दूसरे से हिंदुस्तानियों के जाने-आने में भारी रुकावट होती थी । सुदैव से मताधिकार की लड़ाई के समय यह फैसला हो गया था कि हिंदुस्तानियों के खिलाफ उनके हिंदुस्तानी होने की है सियत से, कोई कानून नहीं बनाया जा सकता । इसका अर्थ यह हुआ कि कानून में जाति-भेद और रंग-भेद को स्थान न मिलना चाहिए । इस कारण पूर्वोक्त दोनों बिलों की भाषा तो ऐसी रक्खी गई, जिसमें वे सब लोगों पर घटते हुए दिखाई दें; पर उनका असली हेतु था हिंदुस्तानियों के हकों को कम कर देना ।

इन बिलों ने मेरा काम बहुत बढ़ा दिया था और हिंदुस्तानियों में जाग्रति भी बहुत फैला दी थी । इन बिलों की बारीकियां इस तरह लोगों को समझा दी गई थीं कि कोई भी भारतवासी उनसे अनजान न रहने पाये और उसके अनुवाद [ २१८ ]
भी प्रकाशित किये गये। झगड़ा अंतको विलायत तक पहुंचा; परंतु बिल नामंजूर न हुए।

अब मेरा बहुतेरा समय सार्वजनिक कामों में ही जाने लगा। मैं लिख चुका हूं कि मनसुखलाल नाजर नेटालमें थे। वह मेरे साथ हुए। जबसे वह सार्वजनिक कामोंमें अधिक योग देने लगे तबसे मेरा बोझ कुछ हलका हुआ।

मेरी गैरहाजिरीमें आदमजी मियांखानने मंत्री-पदका काम सुचारुरूपसे किया। उनके समयमें सभासदोंकी संख्या भी बढ़ी और लगभग एक हजार पौंड स्थानीय कांग्रेसके कोषमें बढे़। हम मुसाफिरोंपर हुए उस हमलेकी बदौलत तथा पूर्वोक्त बिलोंके विरोधके फलस्वरूप जो जाग्रति हुई उसके द्वारा मैने इस बढ़तीमें और भी बढ़ती करनेका विशेष उद्योग किया और अब हमारे कोषमें लगभग पांच हजार पौंड जमा हो गये। मुझे यह लोभ लग रहा था कि यदि कांग्रेसका कोष स्थायी हो जाय और जमीन ले ली जाय तो उसके किरायेसे कांग्रेस आर्थिक दृष्टिसे निश्चित हो जाय। सार्वजनिक संस्थाओंका यही मुझे पहला अनुभव था। मैंने अपना विचार अपने साथियोंके सामने रक्खा। उन्होंने उसका स्वागत किया। मकान खरीदे गये और वे किराये पर उठाये गये। जायदाद का अच्छा ट्रस्ट बनाया गया। यह जायदाद आज भी मौजूद हैं; परंतु वह आपस के कलहका मूल हो गई हैं और उसका किराया आज अदालतमें जमा हो रहा है।

यह दु:खद बात तो मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़ देनेके बाद हुई है; परंतु सार्वजनिक संस्थाओंके लिए स्थायी कोष रखनेके संबंधमें मेरे विचार दक्षिण अफ्रीकामें ही बदल गये। कितनी ही सार्वजनिक संस्थाओंका जन्म देने तथा उनका संचालन करनेकी जिम्मेदारी रह चुकनेके कारण मेरा यह दृढ़निर्णय हुआ है कि किसी भी सार्वजनिक संस्थाको स्थायी कोष पर निर्वाह करनेका प्रयत्न न करना चाहिए; क्योंकि इसमें नैतिक अधोगतिका बीज समाया रहता है।

सार्वजनिक संस्थाका अर्थ है लोगोंकी मंजूरी और लोगोंके धनसे चलनेवाली संस्था। जब लोगोंकी मदद मिलना बंद हो जाय तब उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। स्थायी संपत्तिपर चलने वाली संस्था लोकमतसे स्वतंत्र होती हुई देखी जाती हैं और कितनी ही बार तो लोकमतके विपरीत भी आचरण करती है। इसका अनुभव भारतवर्षमें हमें कदमकदमपर होता है। कितनी ही धार्मिक

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