सत्य के प्रयोग/ कार्य-पद्धति

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय १६ । कार्य-पद्धति रखा था कि जब जरूरत हो तब मुझे बुला लेना; मैं अनेके लिए तैयार हैं; पर उन्हें भी कष्ट नहीं दिया और न आंदोलनको राजनैतिक रूप ही ग्रहण करने दिया। वहांके समाचारोंका विवरण मैं समय-समयपर मुख्य-मुख्य पत्रोंको भेजता रहता था। राजनैतिक कामोंमें भी जहां राजनीतिकी गुंजाइश न हो वहां राजनैतिक रूप दे-देने से “माया मिली न राम वाली मसल होती और इस तरह विषयोंका स्थानांतर न करनेसे दोनों सुधरते हैं, यह मैंने बहुत बार अनुभव करके देखा था। शुद्ध लोक-सेवामें प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूपमें राजनीति समाई ही रहती है, यह बात चंपारनका आंदोलन सिद्ध कर रहा था। कार्य-पद्धति चंपारनकी जांचको विवरण देना मानो चंपारनके किसानोंका इतिहास देना है । यह सारा इतिहास इन अध्यायोंमें नहीं दिया जा सकता। फिर चंपारनकी जांच क्या थी, अहिंसा और सत्यका एक बड़ा प्रयोग ही था । और जितनी बातोंका संबंध इस प्रयोगसे हैं वे जैसे-जैसे मुझे सूझती जाती हैं, प्रति सप्ताह देता जाता है । | अब मूल विषयपर आता हूं । गोरखबाबूके यहां रहकर जांच की। जाती तो गोरखबाबूको अपना घर ही खाली करना पड़ता । मोतीहारी में लोग इतने निर्भय नहीं थे कि मांगते ही अपना मकान किरायेपर दे दें; परंतु चतुर बृजकिशोरबाबूने एक अच्छा चौगानबाला मकान किरायेपर ले लिया और हम लोग वहां चले गये। वहांका कामकाज चलानेके लिए धनकी आवश्यकता थी । सार्वजनिक कामके लिए लोगोंसे रुपया मांगने की प्रथा आजतक न थी । बृजकिशोरबाबूका यह मंडल मुख्यतः वकील-मंडल था। इसलिए जब कभ प्रावश्यकता होती तो वे या तो अपनी जेवसे रुपया देते या कुछ मित्रोंसे मांग लाते । उनका खयाल अह था कि जो लोग खुद रुपये-पैसेसे सुखी हैं वे सर्व-साधारणसे ।' अधिक विवरण जाननेके लिए आबू राजेंद्रप्रसाद-लिखित 'चम्पारनमें महात्मा गांधी' नामक पुस्तक पढ़नी चाहिए। अनु० : :.. [ ४४१ ]૪૨૪ अंतिम-कथा : भाग ५ धनी भिक्षा कैसे मांग सकते हैं? और मेरा यह दृढ् निश्चय था कि चंपारनकी रैय्श्रतरो एक कौड़ी न लेनी चाहिए । यदि ऐसा करते तो उसका उल्टा अर्थ होता । यह भी निश्चय था कि इस जांच के लिए भारतवर्षमें भी आम लोगों से चंदा नहीं मांगना चाहिए । ऐसा करने से इस जांच को राष्ट्रीय और राजनैतिक स्वरूप प्राप्त हो जाता । बंबई से मित्रों ने १५०००) सहायता भेजने का तार दिया; पर उनकी सहायता मैंने सधन्यवाद अस्वीकार कर दिया । यह सोचा था कि चंपारन के बाहर से, परंतु बिहार के ही हैसियतदार और सुखी लोगों से ही बृजकिशोरबाबू का मंडल जितनी सहायता प्राप्त कर सके उतनी ले लूं और शेष रकम मैं डाक्टर प्राणजीवन से मंगा लूँ । डाक्टर मेहता ने लिखा कि जितनी आवश्यकता हो मंगा लीजिएगा । इससे हम रुपये-पैसेके बारेमें निश्चिंत हो गए । गरीबोंके साथ भरसक कम खर्च करके यह आन्दोलन चलाना था । इसलिए बहुत रुपयोंकी आवश्यकता न थी । और दरहकीकत जरूरत पड़ी भी नहीं । मेरा खयाल है कि सब मिलाकर दो-तीन हज़ारसे ज्यादा खर्च न हुआ होगा । और मुझे याद है कि जितना रुपया इकट्ठा किया था उसमेंसे भी पांचसौ या हजार बच गए थे ।

   शुरूमें वहां हमारी रहन-सहन बड़ी विचित्र थी । और मेरे लिए तो वह रोज हंसी-मजाक का विषय हो गई थी । इस वकील-मंडलेमें हर एक के पास एक नौकर-रसोइया होता ! हरेककी अलग रसोई बनती । रातके बारह बजे तक भी वे लोग खाना खाते । ये महाशय खर्च वगैरा तो सब अपना ही करते थे; फिर भी मेरे लिए यह रहन-सहन एक आफत  थी । अपने इन साथियोंकि पास मेरी स्नेह-गांठ ऐसी मजबूत हो गई थी कि हमारे दरमियान कभी गलत-फहमी न होने पाती थी । मेरे शब्द-वाणोंको वे प्रेमसे झेलते । अंतको यह तय हुआ कि नौकरों को छुट्टीं दे दी जाय्, सब एक-साथ खाना खावें और भोजनके नियमों का पालन करें। उसमें सभी निरामिषाहरी न थे और तरह-तरह की अलग रसोई बनाने का इंतज़ाम  करने से खर्च बढ़ता था । इससे यही निश्चय किया गया कि निरामिष  भोजन ही पकाया जाय और एक ही जगह सबकी रसोई बनाई जाय । भोजन भी सादा ही रखनेपर ज़ोर दिया जाता था । इससे खर्च बहुत कम पड़ा, हम लोगोंके काम करने की सामथँ बढ़ी, और समय भी बच गया । ।

हमें अधिक शक्ति बचानेकी आवश्यकता भी थी; क्योंकि किसानों कि [ ४४२ ]अध्याय १६ : कार्य-पद्धति ४२५ झुंड-के-झुंड अपनी कहानी लिखाने के लिए आने लगे थे । एक-एक कहानी लिखने-वाले के साथ एक भीड़-सी रहती थी । इससे मकान का चौगान भर जाता था । मुझे दर्शनाभिलाषियोंसे बचाने के लिए साथी लोग बहुत प्रयत्न करते; परंतु वे निष्फल हो जाते । एक निश्चित समय पर दर्शन देनेके लिए मुझे बाहर लानेपर ही पिंड छूटता था । कहानी-लेखक हमेशा पांच-सात रहते थे । फिर भी शाम तक सबके बयान पूरे न हो पाते थे । यों इतने सब लोगों के बयानों की जरूरत नहीं थी; फिर भी उनके लिख लेनेसे लोगोंको संतोष हो जाता था और मुझे उनके मनोभावोंका पता लग जाता था । कहानी-लेखकों कुछ नियम पालन करने पड़ते थे । वे ये थे-- “प्रत्येक किसान से जिरह करनी चाहिए । जिरह में जो गिर जाय उसका बयान न लिखा जाय । जिसकी बात शुरू से ही कमजोर पाई जाय वह न लिखी जाय । ” इन नियमों के पालन से यद्यपि कुछ समय अधिक जाता था फिर भी उससे सच्चे और साबित होने लायक बयान ही लिखे जाते थे । जब ये बयान लिखे जाते तो खुफिया पुलिस के कोई-न-कोई कर्मचारी वहां मौजूद रहते । इन कर्मचारियों को हम रोक सकते थे; परंतु हमने शुरूसे यह निश्चय किया था कि उन्हें न रोका जाय । यही नहीं बल्कि उनके प्रति सौजन्य रखा जाए और जो खबरें उन्हें दी जा सकती हों दी जायं । जो बयान लिये जाते उनको वे देखते और सुनते थे । इससे लाभ यह हुआ कि लोगों में अधिक निर्भयता आ गई । और बयान उनके सामने लिये जानेसे अत्युकता भय क्म रह्ता था । इस डरसे कि झूठ बोलेंगे तो पुलिसवाले फंसा देंगे, उन्हें सोच-समझकर बोलना पड़ता था । - मै निलहे मालिकों को चिढ़ाना नहीं चाहता था; बल्कि अपने सौजन्यसे उन्हें जीतने का प्रयत्न करता था । इसलिए जिनके बारेमें विशेष शिकायतें होती, उन्हें मैं चिट्ठी लिखता और मिलने की कोशिश भी करता । उनके मंडल से भी मैं मिला था और रैय्यतकी शिकायतें उनके सामने पेश की थीं और उनका कहना भी सुन लिया था । उनमें से कितने तो मेरा तिरस्कार करते थे, कितने ही उदासीन थे और बाज-बाज सौजन्य भी दिखाते थे ।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।