सत्य के प्रयोग/ साथी

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४४३ ]४२६ आत्म-कथा : भाग ५ ? ও साथी बृजकिशोरबाबू और राजेंद्रबाबूकी जोड़ी अद्वितीय थी”। उन्होंने प्रेम से मुझे ऐसा अपंग बना दिया था कि उनके बिना मैं एक कदम भी आगे न रख सकता था । उनके शिष्य कहिए, या साथी कहिए, शम्भूबाबू, अनुग्रहबाबू, धरणीबाबू और रामनवमीबाबू--ये वकील प्रायः निरंतर साथ-साथ ही रहते थे । विंध्याबाबू और जनकधारीबाबू भी समय-समयपर रहते थे । यह तो हुआ बिहारी-संघ । इनका मुख्य काम था लोगोंके बयान लिखना । इसमें अध्यापक कृपलानी भला बिना शामिल हुए कैसे रह सकते थे ? सिंधी होते हुए भी वह बिहारी से भी अधिक बिहारी हो गये थे । मैंने ऐसे थोड़े सेवकों को देखा है जो जिस प्रांत में जाते हैं वहीं के लो गोंमें दूध-शक्करकी तरह घुल-मिल जाते हैं, और किसीको यह नहीं मालूम होने देते कि यह गैर प्रांतके हैं। कृपलानी इनमें एक हैं । उनके जिम्मे मुख्य काम था द्वारपाल का; दर्शन करने वालों से मुझे बचा लेने में ही उन्होंने उस समय अपने जीवन की सार्थकता मान ली थी । किसी को हंसी-दिल्लगी से और किसी को अहिंसक धमकी देकर वह मेरे पास आनेसे रोकते थे । रात को अपनी अध्यापकी शुरू करते और तमाम साथियों को हंसा मारते और यदि कोई डरपोक आदमी वहां पहुँच जाता तो उसका हौसला बढ़ाते । मौलाना मजहरुलहकने मेरे सहायकके रूपमें अपना हक लिखवा रक्खा था और महीनेमें एक-दो बार आकर मुझसे मिल जाया करते । उस समयके उनके ठाट-बाट और शानमें तथा श्राजकी सादगीमें जमीन-आसमानका अंतर है । वह हम लोगों में आकर अपने हृद्यको तो मिला जाते, परंतु अपने साहबी ठाट-बाटके कारण बाहरके लोगों को वह हमसे भिन्न मालूम होते थे । - ज्यों-ज्यों में अनुभव प्राप्त करता गया त्यों-त्यों मुझे मालूम हुआ कि यदि चंपारनमें ठीक-ठीक काम करना हो तो गाँवों में शिक्षाका प्रवेश होना चाहिए । वहां लोगोंका अज्ञान दयाजनक था । गाँवमें लड़के-बच्चे इधर-उधर भटकते फिरते थे, या माँ-बाप उन्हें दो-तीन पैसे रोज की मजदूरी परदिन-भर नीलके [ ४४४ ]अध्याय १७ : साथी ४२७ खेतों में मजदूरी कराते । इस समय मदोंको दस-पैसेसे ज्यादा मजदूरी नहीं मिलती थी । स्त्रियों को छ: पैसा, और बच्चों को तीन ! जिस किसी को चार आना मजदूरी मिल जाती, वह भाग्यवान समझा जाता था । -- अपने साथियों के साथ विचार करके पहले तो छः गांवों में बच चोंके लिए पाठशाला खोलने का विचार हुआ । शर्त यह थी कि उन गांवों के अगुआ मकान और शिक्षक के खाने का खर्च दें और दूसरे खर्च का इंतजाम हम लोग कर दें । यहां के गांवों में रुपये-पैसे की बहुतायत नहीं थी; परंतु लोग अनाज वगैरा दे सकते थे, इसलिए वे अनाज देनको तैयार हो गये । अब यह एक महाप्रश्न था कि शिक्षक कहां से लावें ? बिहा रमें थोड़ा वेतन लेनेवाले या कुछ न लेने वाले अच्छे शिक्षकों का मिलना कठिन था । मेरा खयाल यह था कि बच्चों की शिक्षाका भार मामूली शिक्षक को न देना चाहिए । शिक्षक को पुस्तक-ज्ञान चाहे कम हो; परंतु उसमें चरित्र-बल अवश्य होना चाहिए । इस कामके लिए मैंने आमतौर स्वयंसेवक मांगे । उसके जवाबमें गंगाधरराव देशपांडेन बाबासाहब सोमण और पुंडलीक को भेजा । बंबई से अवंतिकाबाई गोखले आई । दक्षिणसे श्रानंदीबाई आ गई । मैने छोटेलाल, सुरेंद्रनाथ तथा प्रपन लड़के देवदास को बुला लिया । इन्हीं दिनों महादेव देसाई और नरहरि परीख मुझसे मिले । महादेव देसाईकी पत्नी दुर्गाबहन तथा नरहरि परीखकी पत्नी मणिबहन भी आ पहुंचीं । कस्तूरबाईको भी मैंने बुला लिया था । शिक्षकों और शिक्षिकाओंका यह संघ काफी था । श्रीमती अवंतिकाबाई और श्रानंदीबाई तो पढ़ी-लिखी समझी जा सकती थीं; परंतु मणिबहन परीख और दुर्गाबहन देसाई थोड़ी-बहुत गुजराती जानती थीं; कस्तूरबाईको तो नहींके बराबर हिंदी का ज्ञान था । अब सवाल यह था कि ये बहनें बालकों को हिंदी पढ़ावेंगी किस तरह ? बहनों को मैंने दलीलें देकर समझाया कि बालकोंको व्याकरण नहीं बल्कि रहन-सहन सिखाना है । पढ़ने-लिखनेकी अपेक्षा, उन्हें सफाईके नियम सिखाने की जरूरत है। हिंदी, गुजराती और मराठीमें कोई भारी भेद नहीं है, यह भी उन्हें बताया और समझाया कि शुरूमें तो सिर्फ गिनती और वर्णमाला सिखानी होगी । इसलिए दिक्कत न आयगी । इसका फल यह हुझा कि बहनोंकी पढ़ाईका काम

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