सत्य के प्रयोग/ काशीमें

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ २६२ ] पालनपुरको छोड़कर और सब जगह में यात्रियों की तरह धर्मशाला में या पंडोंके मकान पर ठहरा था। जहां तक मुझे याद है, इस यात्रा रेल-किराये सहित इकत्तीस रूपये लगे थे। तीसरे दर्जेमें प्रवास करते हुए भी मैं अक्सर डाकगाड़ी में नहीं जाता था; क्योंकि मैं जानता था कि उसमें भीड़ ज्यादा होती है और तीसरे दर्जेके किरायेके हिसाबसे वहां पैसे भी अधिक देने पड़ते थे। मेरे लिए यह अड़चन भी

तीसरे दर्जे के डिब्बों में जो गंदगी और पाखानोंकी बुरी हालत इस समय है , वही पहले भी थी। शायद इन दिनों कुछ सुधार हो गया हो; पर तीसरे और पहले दर्जेकी सुविधाओंमें जो अंतर है वह इन दर्जोंके किरायेके अंतरकी अपेक्षा बहुत अधिक मालूम हुआ। तीसरे दर्जेके यात्री तो मानो भेड़-बकरी होते हैं, और उनके बैठनेके डिब्बे भी भेड़-बकरियोंके लायक होते हैं। यूरोपमें तो मैंने अपनी सारी यात्रा तीसरे दर्जे में ही की थी; केवल अनुभवके लिए एक बार में पहले दर्जेमें बैठा था; पर वहां मुझे पहले और तीसरे दर्जे के बीच यहांका-सा अंतर न दिखाई दिया । दक्षिण अफ्रीका में तो तीसरे दर्जेके डिब्बोंके मुसाफिर प्रायः हबशी लोग होते हैं ; पर फिर भी वहां के तीसरे दर्जे के डिब्बोंमें अधिक सुविधा रहती है। कहीं-कहीं तो मुसाफिरोंके लिए तीसरे दर्जे के डिब्बोंमें सोनेका भी प्रबंध है, और बैठकोपर गद्दी भी लगी रहती है। प्रत्येक खानेमें बैठनेवाले यात्रियोंकी संख्याकी मर्यादा का पालन किया जाता है; पर यहां तो मुझे कभी ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि यात्रियोंकी संख्याकी इस मर्यादाका पालन किया जाता हो ।

रेलवे-विभागकी इन असुविधाओंके अलावा यात्रियों की खराब आदतें सुघड़ यात्रियों के लिए तीसरे दर्जेकी यात्राको दंड-स्वरूप बना देती हैं। चाहे जहां थूक दिया, जहां चाहा कचरा फेंक दिया, जब जीमें पाया और जिस तरह चाहा बीड़ी पूंकने लगे, पान और जरदा चबाकर जहां बैठे हों वहीं पिचकारी लगा दी, जूठन वहीं फर्श पर डाल दी, जोरजोरसे बातें करना, पास बैठे मनुष्यकी परवा न करना और गंदी भाषा बगैरा, यह तीसरे दर्जेका ग्राम अनुभव है ।

तीसरे दर्जेकी मेरी १९२०ई०की यात्राके अनुभवमें और १९१५से १९१९ तकके दूसरी बारके अखंड अनुभवमें मुझे कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई दिया। इस महा व्याधिका तो मुझे एक ही उपाय दिखाई देता है। वह यही कि [ २६३ ] शिक्षित समाज तीसरे दर्जेमें ही यात्रा करके इन लोगोंकी पादतें सुधारनेका यत्न करे। इसके सिवा रेलवेके अधिकारियोंको शिकायतें कर-करके तंग कर डालना, अपने लिए सुविधा प्राप्त करने या सुविधाकी रक्षा के लिए किसी प्रकारकी रिश्वत न देना और खिलाफकानून बातको बर्दाश्त न करना--ये भी उपाय हैं। मेरा अनुभव है कि ऐसा करनेसे बहुत-कुछ सुधार हो सकता है । अपनी बीमारीके कारण १९२० ई०से मुझे तीसरे दर्जेकी यात्रा प्रायः बंद करनी पड़ी है। इसपर मुझे सर्वदा दुःख और लज्जा मालूम होती रहती है। यह तीसरे दर्जेकी यात्रा मुझे ऐसे समयपर बंद करनी पड़ी, जबकि तीसरे दर्जे के यात्रियोंकी कठिनाइयां दूर करनेका काम रास्तेपर आता जाता था। रेलवे और जहाजमें यात्रा करनेवाले गरीबोंको जो कष्ट और असुविधाएं होती हैं और जो उनकी निजी कुटेबोंके कारण और भी अधिक हो जाती है, साथ ही सरकारकी ओरसे विदेशी व्यापारियों- के लिए अनुचित सुविधाएं की जाती है, इत्यादि बातें हमारे सार्वजनिक जीवनमें एक स्वतंत्र और महत्त्वपूर्ण प्रश्न बन बैठी हैं और इसे हल करने के लिए यदि एक- दो सुदक्ष और उद्योगी सज्जन अपना सारा समय दे डालें तो वह अधिक नहीं होगा।

अब तीसरे दर्जेकी यात्राकी चर्चा यहीं छोड़कर काशीके अनुभव सुनिए । सुबह मैं काशी उतरा। मैं किसी पंडेके यहां उतरना चाहता था। कई ब्राह्मणों- मुझे चारों ओरसे घेर लिया। उनमेंसे जो मुझे साफ-सुथरा दिखाई दिया, उसके घर जाना मैंने पसंद किया। मेरी पसंदगी ठीक भी निकली ! ब्राह्मणके प्रांगनमें गाय बंधी थी। घर दुमंजिला था। ऊपर मुझे ठहराया। मैं यथाविधि गंगा-स्नान करना चाहता था और तबतक निराहार रहना था। पंडाने सारी तैयारी कर दी ! मैंने पहलेसे कह रक्खा था कि १।) से अधिक दक्षिणा में नहीं दे सकूँगा, इसलिए उसी योग्य तैयारी करना। पंडेने विना किसी झगड़ेके मेरी बात मान ली। कहा--"हम तो क्या गरीब और क्या अमीर, सबसे एकही- सी पूजा करवाते हैं। यजमान अपनी इच्छा और श्रद्धाके अनुसार जो दे दे, वही सही।" मुझे ऐसा नहीं मालूम कि पंडेने पूजामें कोई कोर-कसर रक्खी हो। बारह बजेतक पूजा-स्नानसे निवृत्त होकर मैं काशीविश्वनाथ के दर्शन करने गया; पर वहां जो कुछ देखा उससे मनमें बड़ा दुःख हुआ ।

सन् १८९१ ई० में जब मैं बंबईमें वकालत करता था, एक दिन प्रार्थना[ २६४ ] समाज-मंदिरमें 'काशी-यात्रा' पर एक व्याख्यान सुना था। इससे कुछ निराशाके लिए तो वहींसे तैयार हो गया था'; पर प्रत्यक्ष देखनेपर जो निराशा हुई वह तो धारणासे अधिक थी। एक संकड़ी फिसलनी गलीसे होकर जाना पड़ता था। शांतिका कहीं नाम नहीं। मक्खियां चारों ओर भिनभिना रही थीं। यात्रियों और दुकानदारोंका हो-हल्ला असह्य मालूम हुआ ।

जहां मनुष्य ध्यान एवं भगवच्चितनकी आशा रखता हो, वहां उनका नामोनिशान नहीं; ध्यान करना हो तो वह अपने अंतरमें ही कर सकते थे। हां, ऐसी भावुक बहनें मैंने जरूर देखीं, जो ऐसी ध्यान-मग्न थीं कि उन्हें अपने आस- पासकी कुछ भी खबर न थी; पर इसका श्रेय मंदिरके संचालकोंको नहीं मिल सकता। संचालकोंका कर्तव्य तो यह है कि काशी-विश्वनाथके आस-पास शांत, निर्मल, सुगंधित, स्वच्छ वातावरण---क्या बाह्य और क्या आंतरिक----उत्पन्न करें, और उसे बनाये रक्खें; पर इसकी जगह मैंने देखा कि वहां गुंडे लोगोंका; नये-से- नये तर्जकी मिठाई और खिलौनोंका बाजार लगा हुआ था ।

मंदिरपर पहुंचते ही मैंने देखा कि दरवाजेके सामने सड़े हुए फूल पड़े थे और उनमें से दुर्गंध निकल रही थी। अंदर बढ़िया संगमरमरी फर्श था। उसपर किसी अंध-श्रद्धालुने रुपये जड़ रक्खे थे और उनमें मैला-कचरा घुसा रहता था।

मैं ज्ञान-वापीके पास गया। यहां मैने ईश्वरकी खोज की। पर मुझे न मिला। इससे मैं मन-ही-मन घुट रहा था। ज्ञान-वापीके पास भी गंदगी देखी। भेंट रखनेकी मेरी जरा भी इच्छा न हुई। इसलिए मैंने तो सचमुच ही एक पाई वहां बढ़ाई। इसपर पंडाजी उखड़ पड़े। उन्होंने पाई उठाकर फेंक दी और दो-चार गालियां सुनाकर बोले----" तू इस तरह अपमान करेगा तो नरकमें पड़ेगा!"

मैं चुप रहा। मैंने कहा---- " महाराज, मेरा तो, जो होना होगा वह होगा; पर आपके मुंहसे हलकी बात शोभा नहीं देती। यह पाई लेना हो तो लें, वर्ना इसे भी गंवायेंगे।"

"जा, तेरी पाई मुझे नहीं चाहिए' कहकर उन्होंने और भी भला- बुरा कहा । मैं पाई लेकर चलता हुआ । मैंने सोचा कि महाराजने पाई गंवाई और मैने बचा ली। पर महाराज पाई खोनेवाले न थे। उन्होंने मुझे फिर बुलाया [ २६५ ]और कहा--- "अच्छा रख दे; मैं तेरे-जैसा नहीं होना चाहता। मैं न लू तो तेरा बुरा होगा।

मैंने चुपचाप पाई दे दी और एक लंबी सांस लेकर चलता बना। इसके बाद भी दो-एक बार काशी-विश्वनाथ गया; पर वह तो तब, जब 'महात्मा' बन चुका था। इसलिए १९०२के अनुभव भला कैसे मिलते ? खुद मेरे ही दर्शन करनेवाले मुझे दर्शन कहांसे करने देते ? 'महात्मा' के दुःख तो मुझ-जैसे 'महात्मा' ही जान सकते हैं; किन्तु गंदगी और होहल्ला तो जैसे-के-तैसे ही वहां देखे ।

परमात्माकी दया पर जिसे शंका हो, वह ऐसे तीर्थ-क्षेत्रोंको देखे। वह महायोगी अपने नामपर होनेवाले कितने ढोंग, अधर्म और पाखंड इत्यादिको सहन करते हैं। उन्होंने तो कह रक्खा है:--

ये यथा मां प्रपद्यते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

अर्थात्, "जैसी करनी वैसी भरनी।" कर्मको कौन मिथ्या कर सकता हैं ? फिर भगवान्को बीच में पड़नेकी क्या जरूरत है ? वह तो अपने कानून बतलाकर अलग हो गया ।

यह अनुभव लेकर मैं मिसेज बेसेंटके दर्शन करने गया। वह अभी बीमारीसे उठी थीं। यह मैं जानता था। मैंने अपना नाम पहुंचाया। वह तुरंत मिलने आई। मुझे तो सिर्फ दर्शन ही करने थे। इसलिए मैंने कहा-

"मुझे आपकी नाजुक तबियतका हाल मालूम है, में तो सिर्फ आपके दर्शन करने आया हूं। तबियत खराब होते हुए भी आपने मुझे दर्शन दिये, केवल इसीसे में संतुष्ट हूं; अधिक कष्ट में आपको नहीं देना चाहता।"

यह कहकर मैंने उनसे विदा ली।

२१

बंबईमें स्थिर हुआ

गोखलेकी बड़ी इच्छा थी कि मैं बंबई रह जाऊं, वहीं बैरिस्टरी करू और उनके साथ सार्वजनिक जीवन में भाग लूं। उस समय सार्वजनिक जीवनका मतलब था कांग्रेसका काम । उनकी प्रस्थापित संस्थाका खास काम कांग्रेसके

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