सत्य के प्रयोग/ बम्बईमें स्थिर हुआ

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ २६६ ] तंत्रका संचालन था ।

मेरी भी यही इच्छा थी; पर यहां काम मिल जानेके विषयमें मुझे आत्म- विश्वास न था। पहले अनुभवकी याद भूला न था और खुशामद करना तो मेरे लिए मानो जहर था।

इसलिए पहले तो मैं राजकोट ही रहा। वहां मेरे पुराने हितैषी और मुझे विलायत भेजनेवाले केवलराम मावजी दबे थे। उन्होंने मुझे तीन मुकदमे दिये । दो अपील काठियावाड़के जुडीशियल असिस्टंटके इजलास में थीं और एक खास मुकदमा जामनगरमें था। यह मामला महत्त्वका था। इस मामलेकी जिम्मेदारी लेने में मैंने आनाकानी की, तब केवलराम बोल उठे-~~" हारेंगे तो हम हारेंगे न ? तुमसे जितना हो सके करना; और मैं भी तुम्हारे साथ ही रहूंगा ।"

इस मामले में प्रतिपक्षीकी तरफ स्व० समर्थ थे। मेरी तैयारी भी ठीक थी । वहांके कानूनकी तो मुझे ठीक जानकारी न थी; पर इस संबंधमें मुझे केवल- राम दबेने पूरा तैयार कर दिया था। दक्षिण अफ्रीका जानेसे पहले मित्र लोग मुझे कहा करते थे---" एविडेंस-एक्ट ( कानून गवाह ) फिरोजशाहकी जबानपर रक्खा है, और यही उनकी सफलताकी चाबी है।" यह मैंने ध्यानमें रक्खा, और दक्षिण अफ्रीका जाते समय मैंने भारतके इस कानूनको टीका-सहित पढ़ लिया था। इसके अतिरिक्त दक्षिण अफ्रीकाका अनुभव तो था ही।

मुकदमेमें मेरी जीत हुई। इससे मुझे कुछ विश्वास हुआ। पहली दो अपीलोंके विषयमें तो मुझे पहलेसे ही भय न था। मनमें सोचा कि अब बंबई जानेमें भी कोई हर्ज नहीं है ।

इस विषयपर अधिक लिखने से पहले जरा अंग्रेज अधिकारियोंके अ- विचार और अज्ञानका अनुभव भी कह डालू । जुडीशियल असिस्टेंट कहीं एक जगह नहीं बैठते थे। उसकी सवारी धूमती रहती थी; और जहां यह साहब जाते, वहीं वकील और मवक्किलोंको भी जाना ही पड़ता। और वकीलकी फीस जितनी उसके रहनेकी जगहपर हो, बाहर उससे अधिक होती थी। इसलिए मवक्किलको सहज ही दुगना खर्च पड़ता; पर इसका विचार करनेकी जजको क्या जरूरत ?

इस अपीलकी सुनवाई वेरावलमें होनेवाली थी। वेरावलमें उस वक्त [ २६७ ] प्लेग जोरों से फैल रहा था। जहांतक मुझे याद है, रोज पचास मृत्युएं होती थीं। वहां की वस्ती साढ़े पांच हजारके लगभग थी। करीब-करीब सारा गांव खाली हो गया था। मेरे ठहरनेका स्थान वहांकी निर्जन धर्मशालामें था। गांवसे वह धर्मशाला कुछ दूरी पर थी; पर मवक्किलोंका क्या हाल ? यदि वे गरीब हों तो उनका मालिक बस ईश्वर ही समझिए !

मुझे वकील मित्रोंने तार दिया कि मैं साहबसे प्रार्थना करू कि प्लेगके कारण अदालतका स्थान बदल दें। प्रार्थना करनेपर साहबने पूछा-- तुम्हें प्लेगसे डर लगता है ? '

मैंने कहा--"यह मेरे डरनंका प्रश्न नहीं है। मैं अपनी हिकाजत करना जानता हूं; पर मवविकलका क्या होगा ?

साहब बोले--"प्लेगने तो हिंदुस्तानमें घर कर लिया है, उससे क्या डरना! वेरावलकी हवा कितनी सुंदर है ! (साहब गांवसे दूर दरिया-किनारे महलके समान एक तंबूमें रहते थे ) लोगोंको इस प्रकार बाहर रहना सीखना चाहिए।

इस फिलासफीके सामने मेरी क्या चलने लगी? साहबने सरिश्ते- दारसे कहा--"मि० गांधीका कहना ध्यानमें रखना। यदि वकील-मवविकलोंको ज्यादा तकलीफ मालूम दे, तो मुझे बताना ।"

इसमें साबने तो सचाईसे अपनी मतिके माफिक उचित ही किया; पर उसे कंगाल हिंदुस्तानकी असुविधाओंका अंदाज कैसे हो ? वह बेचारा हिंदुस्तान की आवश्यकताओं, आदतों, कुटेवों और रिवाजोंको क्या समझे ? पंद्रह रुपयेको, मुहरकी गिनती करनेवाला पाईक्री गिनती कैसे झट लगा सकता है ? अच्छे- से-अच्छा हेतु होने पर भी जैसे हाथी चींटी के लिए विचार करने में असमर्थ होता है उसी प्रकार हाथी के समान जरूरतवाला अंग्रेज भी चींटियोंके समान जरूरतवाले हिंदुस्तानीके लिए विचार करने पीर नियम-निर्माण करने में असमर्थ ही होगा ।

अब खास विषयपर प्राता हूं। इस प्रकार सफलता मिलनेपर भी मैं थोड़े समय राजकोट में ही रहनेका विचार कर रहा था। इतने में एक दिन केवलराम मेरे पास आये और बोले---- “अब तुमको यहां न रहने देंगे। तुम्हें तो बंबईमें ही रहना पड़ेगा।"

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।