सत्य के प्रयोग/ कुलीपनका अनुभव

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ १५० ]आरेंज फ्री स्टेटमें १८८२ ईस्वीमें अथवा उसके पहले एक कानून बनाकर भारतीयोंके तमाम अधिकार छीन लिये गये थे। सिर्फ होटलमें 'वेटर' बनकर रहनेकी आजादी भारतीयोंको रह गई थी। जो भारतीय व्यापारी वहां थे उन्हें नाम-मात्रके लिए मुआवजा देकर वहांसे हटा दिया गया। उन्होंने प्रार्थना-पत्र इत्यादि तो भेजे-भिजाये; पर नक्कारखानेमें तूतीकी अवाज कौन सुनता!

ट्रांसवालमें १८८५ में सख्त कानून बना। १८८६ में उसमें कुछ सुधार हुआ, जिसके फलस्वरूप यह नियम बना कि तमाम हिंदुस्तानी प्रवेश-फीसके तौरपर ३ पौंड दें। जमीनकी मालिकी भी उन्हें उन्हीं जगहों में मिल सकती है, जो उनके लिए खास तौरपर बताई जायं। पर वास्तवमें तो किसी को मालिकी मिली न थी; और मताधिकार भी किसीको कुछ न था। ये तो कानून ऐसे थे, जिनका संबंध एशियावासियोंसे था; परंतु जो कानून श्यामवर्णके लोगोंके लिए थे वे भी एशियावासियोंपर लागू होते थे। उसके अनुसार भारतवासी फुटपाथपर अधिकार-पूर्वक न चल सकते थे, रातको नौ बजेके बाद बिना परवानेके बाहर न निकल सकते थे। इस अंतिम कानून को अमल भारतवासियोंपर कहीं कम होता, कहीं ज्यादा। जो अरब कहलाते थे, उसपर बतौर मेहरबानीके यह कानून लागू न भी किया जाता; पर यह बात थी पुलिसकी मरजीपर अवलंबित।

अब मुझे यह देखना था कि इन दोनों कानूनोंका अमल खुद मेरे साथ किस तरह होता है। मि॰ कोट्सके साथ मैं बहुत बार घूमनेके लिए जाता। घर पहुंचते कभी दस भी बज जाते। ऐसी अवस्थामें यह आशंका रहा करती कि कहीं मुझे पुलिस पकड़ न ले। पर मेरी अपेक्षा यह भय कोट्सको अधिक था; क्योंकि अपने हबशियोको तो परवाने वही देते थे। पर मुझे कैसे दे सकते थे? मालिकको परवाना देनेका अधिकार सिर्फ नौकरके ही लिए था। यदि मैं लेना चाहूं और कोट्स देनेको तैयार हों तो भी वह नहीं दे सकते थे; क्योंकि ऐसा करना दगा समझा जाता।

इस कारण मुझे कोट्स अथवा उनके कोई मित्र वहांके सरकारी वकील डा॰ क्राउजेके पास ले गये। हम दोनों एक ही 'इन' के बैरिस्टर निकले। यह बात कि मुझे नौ बजेके बाद रातको परवाना लेनेकी जरूरत है, उन्हें बड़ी नागवार मालूम हुई। उन्होंने मेरे साथ समवेदना प्रदर्शित की। मुझे परवाना [ १५१ ]देनेके बदले अपनी तरफसे एक पत्र दे दिया। उसका आशय यह था कि मैं कहीं भी किसी समय चला जाऊं तो पुलिस मुझे रोक-टोक न करे। हमेशा मैं इस पत्रको अपने साथ रखता। उसका उपयोग तो किसी दिन भी न करना पड़ा; पर इसे एक दैव-योग ही समझना चाहिए।

डा॰ क्राउजे ने मुझे अपने घर चलने का निमंत्रण दिया। हम दोनोंमें खासी मित्रता-सी हो गई। कभी-कभी मैं उनके घर जाने लगा। उनके द्वारा उनके अधिक प्रख्यात भाईसे मेरा परिचय हुआ। यह जोहांसबर्गमें पब्लिक प्रासीक्यूटर थे। उनपर बोअर-युद्धके समय अंग्रेज अधिकारीका खून करनेकी साज़िशका अभियोग लगाया गया था और उन्हें सात साल कैदकी सजा भी मिली थी। बेंचरोंने उनकी सनद भी छीन ली थी। लड़ाई खतम होनेके बाद, डा॰ क्राउजे जेलसे छूटे, और फिर सम्मान-सहित ट्रांसवालकी अदालतमें वकालत करने लगे। इन परिचयोंसे मुझे बादको सार्वजनिक कार्योंमें खासा लाभ मिला और मेरा कितना ही सार्वजनिक काम बहुत सुगम हो गया।

फुटपाथ पर चलनेका प्रश्न जरा मेरे लिए गंभीर परिणामवाला साबित हुआ। मैं हमेशा प्रेसीडेंट-स्ट्रीटमें होकर एक खुले मैदानमें घूमने जाता। इस मुहल्लेमें प्रेसीडेंट कूगरका घर था। इस घरमें आडंबरका नाम-निशान न था। उसके आस-पास कंपाउंड तक न था। दूसरे पड़ौसी घरोंमें और इसमें कुछ फर्क न मालूम देता था। कितने ही लखपतियोंके घर, प्रिटोरियामें, इस घरसे भारी आलीशान और चहारदीवारी वाले थे। प्रेसीडेंटकी सादगी प्रख्यात थी। यह घर किसी राज्याधिकारीका है, इसका अंदाज सिर्फ उस संतरीको देखकर हो सकता था, जो उसके सामने टहलता रहता। मैं इस संतरीके नजदीकसे ही रोज निकला करता, परंतु संतरी मुझे रोक-टोक नहीं करता था। उनकी बदली होती रहती। एक बार एक संतरीने, बिना चिताये, बिना यह कहे कि फुटपाथसे उतर जाओ, मुझे धक्का मार दिया, लात जमा दी और फुटपाथसे उतार दिया। मैं तो भौंचक्का रह गया। ज्योंही मैं संतरीसे लात जमानेका कारण पूछता हूं कि कोट्सने, जो घोड़ेपर सवार होकर उस समय उसी रास्तेसे जा रहे थे, आकर कहा—

"गांधी, मैंने यह सब देख लिया है। तुम यदि मुकदमा चलाना चाहो तो मैं गवाही दूंगा। मुझे बहुत अफसोस होता है कि तुमपर इस प्रकारका हमला [ १५२ ]हुआ। "मैंने कहा—"इसमें अफसोस की बात ही क्या हैं, संतरी बेचारा क्या पहचानता? उसके नजदीक तो काले-काले सब बराबर। हबशियोंको फुटपाथसे इसी तरह उतारता होगा। इसलिए मुझे भी धक्का मार दिया। मैंने तो अपना यह नियम ही बना लिया है कि मेरे जात खासपर जो भी कुछ बीते, उसके लिए कभी अदालत में जाऊं; इसलिए मुझे इसे अदालतमें नहीं ले जाना है।"

"यह तो तुमने अपने स्वभावके अनुसार ही कहा है; पर और भी विचार कर देखना। ऐसे आदमी को कुछ सबक तो जरूर सिखाना चाहिए।" यह कहकर उन्होंने उस संतरीको दो-चार बातें कहीं। मैं सारी बात न समझ सका। संतरी डच था और डच भाषामें उसके साथ बातचीत हुई थी। संतरीने मुझसे माफी मांगी, मैं तो अपने मनमें उसे माफी पहले ही दे चुका था।

पर उसके बादसे मैंने उस रास्ते जाना छोड़ दिया। दूसरे संतरी इस घटनाको क्या जानते? मैं अपने-आप लात खाने क्यों जाऊं? इसलिए मैंने दूसरे रास्ते होकर घूमने जाना पसंद किया। इस घटनाने वहांके हिंदुस्तानी निवासियोंके प्रति मेरे मनोभाव और भी तीव्र कर दिये। उनसे मैंने दो बातोंकी चर्चा की। एक तो यह कि इन कानूनोंके लिए ब्रिटिश एजेंटसे बात कर ली जाय, और दूसरी बात यह कि मौका पड़नेपर बतौर नमूनेके एक मुकदमा चलाया जाय।

इस प्रकार मैंने भारतवासियोंके कष्टोंको पढ़कर, गुनकर तथा अनुभव करके अध्ययन किया। मैंने देखा कि आत्म-सम्मानकी रक्षा चाहने वाले भारतवासीके लिए, दक्षिण अफ्रिका अनुकूल नहीं। यह दशा कैसे बदली जा सकती हैं। इसीके विचारमें मेरा मन दिन-दिन व्यग्र रहने लगा; पर अभी तो मेरा मुख्य धर्म था दादा अब्दुल्लाके मुकदमेको सम्हालना।

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मुकदमे की तैयारी।

प्रिटोरियामें मुझे जो एक वर्ष मिला, वह मेरे जीवनमें अमूल्य था। सार्वजनिक काम करनेकी अपनी शक्तिका कुछ अंदाज मुझे यहां हुआ, सार्वजनिक सेवाको सीखनेका अवसर मिला। धार्मिक भावना तीव्र होने लगी। और सच्ची

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