सत्य के प्रयोग/ मुकदमेकी तैयारी

विकिस्रोत से
सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ १५३ ]
वकालत भी , कहना चाहिए, मैंने यहीं सीखी । नया बैरिस्टर पुराने बैरिस्टर के दफ्तर मैं रहकर जो सीखता है वह मैं यहां सीख सका। यहां मुझे इस बात पर विश्वास हुआ कि एक वकील की हैसियत से में बिलकुल अयोग्य न रहूंगा । वकील होने की कुंजी भी मेरे हाथ यहीं आकर लगी ।

दादा अब्दुल्ला का मामला छोटा न था । दादा ४०,००० पौंड अर्थार्त् ६ लाख रुपये का था । यह व्यापार के सिलसिले में था और इस जमा-ना में की बहुतेरी गुत्थीया थीं। उसके कुछ अंशका आधार था प्रमिसरी नोटों पर और कुछ का था नोट देने के वचन का पालन करने पर । सफाई मौं यह कहा जाता था कि प्रामिसरी नोट जालसाजी करके लिये गये थे और पूरा मुआवजा नहीं मिला था । इसमें हकीकत की तथा कानूनी गुंजाइशें बहुतेरी थीं । बही-खातेकी उलझनें बहुतेरी थी ।

दोनों ओर से अच्छे-से-अच्छे सालिसिटर और बैरिस्टर खड़े हुए थे। इस कारण मुझे इन दोनों काम को अनुभव प्राप्त करने का बढ़िया अलसर हाथ आया । मुद्दई का मामला सालिसिटर के लिए तैयार करने का तथा हकीकतों को ढूंढने का सारा बोझ मुझी पर था । इससे मुझे यह देखने का अवसर मिलता था। कि मैरे तैयार किये काम में से सालिसिटर अपने काम में कितनी बातें लेते हैं और सालिसिटो के तैयार किये मामले मैं से बैरिस्टर कितनी बात को काम में लेते हैं । मैं समझ गया कि इस मामले को तैयार करने में मुझे ग्रहण-शक्ति और व्यवस्था शक्ति का ठीक अंदाजा हो जायगा ।

मैंने मुकदमा तैयार करने में पुरी-पूरी दिलचस्पी ली । मैं उसमें लवलीन हो गया। आगे-पीछे के तमाम कागज-पत्रों को पढ़ डाला। मावक्कील के विश्वास और होशियारी की सीमा न थी। इससे मेरा काम बड़ा सरल हो गया । मैंने बही-खातों का सूक्ष्म अध्ययन कर लिया है गुजराती कागज पत्र बहुतेरे थे। उनके अनुवाद भी मैं करता था। इससे उल्था करने की क्षमता भी बढ़ी है,

मैंने खूब उद्योग से काम लिया । यद्यपि जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूं धार्मिक चर्चा आदि तथा सार्वजनिक कामों में मेरा दिल खूब लगता था, उनके लिए समय भी देता था, तथापि इस समय ये बातें गौण थीं। मुकदमे की तैयारी को ही में प्रधानता देता था । उसके लिए कानून वगैरा देखने का अथवा दूसरा [ १५४ ]
कुछ पढ़ना होता तो उसे में पहले कर लेता । इंसके फलस्वरूप मामले की असली । बातों का मूझे इतना ज्ञान हो गया कि खुद मुद्मुदई-मुद्दालेको भी शायद न हो; क्योंकि मेरे पास तो दोनो कि काजात थे ।

मुझे स्वर्गीय मि० पिंकट के शब्द याद आये । उनका समर्थन वाद को दक्षिण अकिका के सुप्रसिद्ध बैरिस्टर स्वर्गीय मि० लैनड ने एक अवसर पर किया था । हकीकत तीन-चौथाई कानून हैं ----यह मि० पिंकट का वाक्य था । एक मामले में जानता था कि न्याय सर्वथा मेरे मुवक्किल के पक्ष था; परंतु कानून उसके खिलाफ जाता हुआ दिखाई पड़ा। मैं निराश होकर मि० लैडनने से सहायता लेने के लिए दौडा़ । उन्हें भी हकीकतों के आधार पर मामला मजबूत मालूम हुआ । 'वह बोल उठे, "गांधी, मैंने एक बात सीखी है। यदि हकीकतों का ज्ञान हमें पूरा-पूरा हो, कानून अपने-आप हमारे अनुकूल हो जायगा । सो हम इस मामले की हकीकत को देंखे ।" यह कहकर उन्होंने सुझाया कि एक बार और हकीकतों का खुब मनन कर लो और मुझसे मिलो ।' उसी हकीकत की फिर छानबीन करते हुए, उसका मनन करते हुए, मुझे वही दूसरी तरह दिखाई दी और उससे संबंध रखने वाला दक्षिण अफ्रिका में हुआ एक पुराना मामला भी हाथ लग गया । मारे खुशी के मैं मि० लेनडर् के यहां पहुंचा। वह खुश हो उठे और बोले---- "बस, अब हम इस मामले को जीत लेंगे । बेंचपर कौन-से जज होंगे, यह जरा ध्यान रखना होगा ।"

जब दादा अब्दुल्ला के मामले की तैयारी कर रहा था तब हकीकतों की महिमा मैं इस दर्जे तक न समझ सका था । हकीकंत के मानी हैं सत्य बात; सत्य बात पर आरूढ़ रहने से कानून अपने-आप हमारी मदद के लिए अनुकूल हो जाता हैं ।

'मैंने अंत को देख लिया था कि मेरे मुवक्किल का पक्ष बहुत मजबूत है । कानून को उसकी मदद के लिए आना ही पड़ेगा ।

पर साथ ही मैंने यह भी देखा कि मामला लड़ते-लड़ते दोनों रिश्तेदार, एक ही शहर के रहने वाले, बरबाद हो जायंगे। मामले का अंत क्या होगा, यह किसी को खबर न हो सकती थी ।' अदालत में तो मामला जहां तक जी चाहे लंबा किया जा सकता है। लंबा करने से दो में से किसी को लाभ न था । इस कारण दोनों [ १५५ ]
पंक्षवालों की इच्छा जरूर थी कि मामला जल्दी तय हो जाय तो अच्छा है।

मैंने तैयब सेठ से अनुरोध किया और आपस मैं निपटारा कर लेने की सलाह दीं । मैने कहा कि आप अपने वकील से मिलिए । दोनों के विश्वास पात्र पंच का यदि ये नियुक्त कर दें तो मामला जल्दी तय हो सकता है । वकीलों के खर्च का बोझा इतना चढ़ रहा था कि उसमें बड़े-बड़े व्यापारी भी खूप जाय । दोनों इतनी चिंता से मुकदमा लड़ रहे थे कि कोई भी बेफिक्री से दूसरा कोई काम न कर पाते थे; और दोनों में मनमुटाव जो बढ़ता जाता था सो अलग ही। यह देखकर मेरे मन में वकालत पर घृणा उत्पन्न हुई । वकील का तो यह काम ही ठहरा कि एक दूसरे को जिताने की कानूनी गुंजाइशें ही खोज-खोजकर निकालते रहें । जीतने वाले को सारा खर्च कभी नहीं मिलता, यह बात मैंने इस मामले में पहले पहल जानी । वकील मुवक्किल से एक फीस लेता है; और मुवक्किल को प्रतिवादी से दूसरी रकम मिलती है। दोनों रकमें जुदा-जुदा होती हैं। मुझे यह सब बड़ा नागवार गुजरा । मेरी अंतरात्मा ने कहा कि इस समय मेरा धर्म है दोनों में भिन्नता करा देना, दोनों रिश्तेदारों में मिलाप करा देना । मैंने समझौते ले के लिए जी तोड़कर मिहनत की । तैयब सेठ ने बात मान ली । अंत को पंच मुकर्रर हुए और मुकदमा चला । उसमें दादा अब्दुल्ला की जीत हुई ।

पर मुझे इतने से संतोष न हुआ। यदि पंच के फैसले का अमल एक बारगी हो तो तैयब हाजी खान मुहम्मद इतना रुपया एका एक न दे सकते थे । दक्षिण अफ्रीका-स्थित पोरबंदर के मेमन व्यापारियो मैं एक आपस का लिखित कायदा था कि खुद चाहे मर जाये, पर दिवाला न निकालें । तैयव सेठ ३७,००० पौंड और खर्च एकमुश्त नहीं दे सकते थे। फिर वह एक पाई कम न देना चाहते थे । दिवाला भी नहीं निकालना था । ऐसी दशा एक ही रास्ता था-दादा अब्दुल्ला उन्हें अदायगी के लिए काफी मियाद दें। दादा अब्दुल्ला ने उदारता से काम लिया और लंबी मियाद दे दी। पंच मुकर्रर करने में जितना श्रम मुझे हुआ उससे कहीं अधिकं लंबी किस्त कराने में हुआ। अंत को दोनों पक्ष खुश रहे। दोनों की प्रतिष्ठा बढ़ी । मेरे संतोष की तो सीमा न रही । मैंने सच्ची वकालत करना सीखा; मनुष्य के गुण---उज्ज्वल पक्ष को खोजना सीखा; मनुष्य के हृदय में प्रवेश करना सीखा। मैंने देखा कि वकील का कर्तव्य है, फरीकैन में पड़ी खाई को पाट देना ।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।