सत्य के प्रयोग/ गोखलेकी उदारता

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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उसके बाद भी उनके-मेरे बीच बहुत पत्र-व्यवहार हुआ हैं । परंतु उन सब कडुए अनुभवोंका वर्णन यहां करके इस अध्यायको मैं लंबा करना नहीं चाहता । । परंतु इतना तो कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि वे अनुभव वैसे ही थे, जैसे कि रोज हमें हिंदुस्तान होते रहते हैं। अफसरोंने कहीं धमकाकर, कहीं तरकीबसे काम लेकर , हमारे अंदर फूट डाल दी । कसम खानेके बाद भी कितने ही लोग छल और बलके शिकार हो गये ।। । इसी बीच नेटली अस्पतालमें एकाएक घायल सिपाही अकल्पित संख्या आ पहुंचे और इनकी शुश्रूषाके लिए हमारी सारी टुकड़ीकी जरूरत पड़ी । अफसर जिनको अपनी भोर कर सके थे वे तो नेटली पहुंच गये पर दूसरे लोग न गये ।। इंडिया आफिसको यह बात अच्छी न लगी । मैं था तो बीनार और बिछौनेपर पडा रहता था; परंतु दृकड़के लोगोंसे मिलता रहता था । मि० राबर्टससे मेरा काफी परिचय हो गया था। वह मुझसे मिलने आ पहुंचे और जो लोग बाकी रह गये थे उन्हें भी भेजनेका अग्रह करने लगे । उनका सुझाव यह था कि वे एक अलग दकड़ी बनाकर जीव । नैटली अस्पतालमें तो कड़ीक वहीके असरके अधीन रहना होगा, इसलिए आपकी मानहानिका भी सवाल नहीं रहेगा। इधर सरकारको उनके जानेसे संतोष हो जायगा और उधर जो बहुतेरे जख्मी एकाएक आ गये हैं, उनकी भी शुश्रूषा हो जायगी । मेरे साथियों और मुझको यह तजवीज पसंद ह ई और जो विद्यार्थी रह गये थे वे भी नेटली चले गये। अकेली में ही दांत • पीसता बिछौनेमें पड़ा रहा। गोखलेकी उदारता | ऊपर मैं लिख आया हूं कि विलायतमें मुझे पसलीके वरमकी शिकायत हो गई थी। इस बीमारीके वक्त गोखले विलायतमें श्री पहुंचे थे। उनके पास मैं वे केलनबेक हमेशा जाया करते। उनसे अधिकांशमें युद्धकी ही बातें हुआ करतीं । जर्मनीका भूगोल केलनबेककी जबानपर था, यूरोपकी यात्रा भी उन्होंने बहत की थी, इसलिए चुह नक्शा फैलाकर गोखलेको लड़ाईकी छावनियां दिखाते । [ ३८० ]________________

अध्याय ४१ : शीयलेकी उदारता | अब मैं बीमार हुआ था तब मेरी बीमारी भी हमारी चर्चाको एक विषय हो गई थी । भेरे भोजनके प्रयोग तो उस समय भी चल ही रहे थे। उस समय मैं मूंगफली, कच्चे और पक्के केले, नीबू, जैतुनको तेल, टमाटर, अंगूर इत्यादि चीजें खाता था । दुध, अनाज, दाल वगैरा चीजें बिलकुल न लेता था। मेरी देखभालजीवराज मेहता करते थे। उन्होंने मुझे दूध और अनाज लेनेपर बड़ा जोर दिया। इसकी शिकायत ठेठ गोखलेतक पहुंची । फुलाहार-संबंधी मेरी दलीलोंके वह बहुत कायल न थे । तंदुरुस्तीकी हिफाजतके लिए डॉक्टर जो-जो बतावे वह लेना चाहिए, यही उनका मत था । | गोखलेके आग्रहको न मानना मेरे लिए बहुत कठिन बात थी । जब उन्होंने बहुत ही जोर दिया तब मैंने उनसे २४ घंटेतक विचार करने की इजाजत मांगी । केलनबेक और मैं घर आये। रास्ते मैंने उनके साथ चर्चा की कि इस समय मेरा क्या धर्म है। मेरे प्रयोगों वह मेरे साथ थे। उन्हें यह प्रयोग पसंद भी था। परंतु उनका रुख इस बातकी तरफ था कि यदि स्वास्थ्यके लिए मैं इस प्रयोगको छोड़ दें तो ठीक होगा। इसलिए अब अपनी अंतरात्माकी श्रावाजका फैसला लेना ही बाकी रह गया था । | सारी रात में विचारमें डूबा रहा। अब यदि मैं अपना सारा प्रयोग छोड़ दू तो मेरे सारे विचार और मंतव्य धूलमें मिल जाते थे। फिर उन विचारोंमें मुझे कहीं भी भूल न मालूम होती थी। इसलिए प्रश्न यह था कि किस अंशतक गोखले प्रेमके अधीन होना मेरा धर्म हैं, अथवा शरीर-रक्षाके लिए ऐसे प्रयोग किस तरह छोड़ देना चाहिए। अंतको मैंने यह निश्चय किया कि धार्मिक दृष्टि से प्रयोगका जितना अंश आवश्यक है उतना रक्खा जाय और शेष बातोंमें डाक्टरकी आज्ञाका पालन किया जाय । मेरे दूध त्यागनेमें धर्म-भावनाकी प्रधानता थी । कलकतेमें गाय-भैसका दूध जिन घातक विधियों द्वारा निकाला जाता है उसका दृश्य मेरी आंखों के सामने था। फिर यह विचार भी मेरे सामने था कि मांसकी तरह पशुका दूध भी मनुष्यकी खुराक नहीं हो सकती । इसलिए दूध-त्यागका दृढ़ निश्चय करके मैं सुबह उठा। इस निश्चयसे मेरा दिल बहुत हलका हो गया था, किंतु फिर भी गोखलेका भय तो था ही। लेकिन साथ ही मुझे यह भी विश्वास था कि वह मेरे निश्चयको उलटनेका उद्योग न करेंगे। [ ३८१ ]________________

आत्म-कथा ; भाग ४ शामको 'नेशनल लिबरल लव में हम उनसे मिलने गये । उन्होंने तुरंत पूछा--- " क्यों डाक्टरकी सलाह अनुसार ही चलनेका निश्चय किया है न ?” मैंने धीरे से जवाब दिया--- “और सब बातें मैं मान लूंगा, परंतु आप एक बात पर जोर न दीजिएगा । दूध और दूधकी बनी चीजें और मांस इतनी चीजें मैं न लूंगा । और इनके न लेनेसे यदि मौत भी आती हो तो मैं समझता हूं उसका स्वागत कर लेना मेरा धर्म है ।” आपने यह अंतिम निर्णय कर लिया है ? गोखलेने पूछा । “मैं समझता हूं कि इसके सिवा मैं आपको दूसरा उत्तर नहीं दे सकता । मैं जानता हूं कि इससे अापको दुःख होगा। परंतु मुझे क्षमा कीजिएगा।" मैने जवाब दिया ।। गोखलेने कुछ दु:ख से, परंतु बड़े ही प्रेमसे कहा-- “यापका यह निश्चय मुझे पसंद नहीं । मुझे इसमें धर्मकी कोई बात नहीं दिखाई देती । पर अब मैं इस बातपर जोर न दूगा ।" यह कहते हुए जीवराज मेहताकी ओर मुखातिब होकर उन्होंने कहा--- "अब गांधी को ज्यादा दिक न करो। उन्होंने जो मर्यादा बांध ली है उसके अंदर इन्हें जो-जो चीजें दी जा सकती हैं वहीं देनी चाहिए।" । डाक्टरने अपनी अप्रसन्नता प्रकट की; पर वह लाचार थे । मुझे मुंगका पानी लेनेकी सलाह दी । कहा--- “उसमें हींगका बघार दे लेना ।” मैंने इसे मंजूर कर लिया। एक-दो दिन मैंने वह पानी लिया भी; परंतु इससे उलटे मेरा दर्द बढ़ गया। मुझे वह मुफिक नहीं हुआ। इससे मैं फिर फलाहार पर , गया । ऊपर के इलाज तो डाक्टरने जो मुनासिब समझे किये ही । उससे अलबत्ता कुछ अाराम था। परंतु मेरी इन मर्यादाक्रोंपर वह बहुत बिगड़ते । इसी बीच गोखले देस (भारतवर्ष) को रवाना हुए, क्योंकि वह लंदनका' अक्तूबर-नवंबरका कोहरा सहन नहीं कर सके । | ४२ इलाज क्या किया ? पसलीका दर्द मिट नहीं रहा था। इससे मेरी चिंता बढ़ी। पर मैं इतना जरूर जानता था कि दवा-दारूसे नहीं, बल्कि भोजनमें परिवर्तन करने से

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