सत्य के प्रयोग/ गोखलेके साथ एक मास-२

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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गोखलेके साथ एक मास----२

गोखलेकी छत्रछायामें रहकर यहां मैंने अपना सारा समय घरमें बैठकर नहीं बिताया।

मैंने अपने दक्षिण अफ्रीकावाले ईसाई-मित्रोंसे कहा था कि भारत मैं अपने देसी ईसाइयोंसे जरूर मिलूंगा और उनकी स्थितिको जानूंगा । कालीचरण बनर्जीका नाम मैंने सुना था। कांग्रेसमें वह आगे बढ़कर काम करते थे, इसलिए उनके प्रति मेरे मनमें आदर-भाव हो गया था। क्योंकि हिंदुस्तानी ईसाई आम तौरपर कांग्रेससे और हिंदुओं तथा मुसलमानोंसे अलग रहते थे, इसलिए जो अविश्वास उनके प्रति था, वह कालीचरण बनर्जीके प्रति न दिखाई दिया। मैंने गोखलेसे कहा कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं। उन्होंने कहा---"वहां जाकर तुम क्या करोगे ? वह हैं तो बहुत भले आदमी, परंतु मैं समझता हूं कि उनसे मिलकर तुम्हें संतोष न होगा । मैं उनको खूब जानता हूं । फिर भी तुम जाना चाहो तो खुशीसे जा सकते हो ।"

मैंने कालीबाबूसे मिलने का समय मांगा। उन्होंने तुरंत समय दिया और मैं मिलने गया । घरमें उनकी धर्मपत्नी मृत्युशय्यापर पड़ी हुई थी । वहां सर्वत्र सादगी फैली हुई थी । कांग्रेसमें वह कोट-पतलून पहने हुए थे, पर घरमें बंगाली धोती व कुरता पहने हुए देखा । यह सादगी मुझे भाई। उस समय यद्यपि मैं पारसी कोट-पतलून पहने हुए था, तथापि उनकी पोशाक और सादगी मुझे बहुत ही प्रिय लगी। मैंने और बातों में उनका समय न लेकर अपनी उलझन उनके सामने पेश की ।

उन्होंने मुझसे पूछा---“आप यह बात मानते हैं या नहीं कि हम अपने पापोंको साथ लेकर जन्म पाते हैं ?"

मैंने उत्तर दिया---" हां, जरूर।"

“तो इस मूल पापके निवारणका उपाय हिंदू-धर्ममें नहीं, ईसाई-धर्ममें है।" [ २५७ ]यह कहकर उन्होंने कहा--" पापका बदला है मौत । वाइबिल कहती हैं कि इस मौत से बचनेका मार्य है ईसाकी शरण जाना ।"

मैंने भगवदगीताका भक्ति-भार्ग उनके सामने उपस्थित किया, परंतु मेरा यह उद्योग निरर्थक था। मैंने उनकी सज्जनताके लिए उनको धन्यवाद दिया। मुझे संतोष तो न हुआ, फिर भी इस मुलाकातसे लाभ ही हुआ ।

इसी महीने मैने कलकत्तेकी एक-एक गलीकी खाक छान डाली । प्रायः पैदल ही जाता था। इसी समय में न्यायमूर्ति मित्रसे मिला। सर गुरुदास बनर्जीसे भी मिला । इन सज्जनोंकी सहायता दक्षिण अफ्रीकाके कामके लिए आवश्यक थी । राजा सर प्यारीमोहन मुकर्जीके दर्शन भी इस समय हुए ।

कालीचरण बनर्जीने मुझसे काली-मंदिरका जिक्र किया था। उसे देखने की प्रबल इच्छा थी । एक पुस्तकमें मैंने वहांका वर्णन भी पढ़ा । सो एक दिन वहां चला गया। न्यायमूर्ति मित्रका मकान उसी मुहल्लेमें था। इस लिए मैं जिस दिन उनसे मिला, उसी दिन कालीमंदिर गया। रास्ते में बलिदानके बकरोंकी कतार जाती हुई देखी । मंदिरकी गलीमें पहुंचते ही भिखारियोंकी भीड़ दिखाई दी। बाबा बैरागी तो थे ही । उस समय भी मेरा यह नियम था था कि हट्टे-कट्टे भिखारीको कुछ न दिया जाय; पर भिखारी तो बहुत ही पीछे पड़ गये थे ।

एक बाबाजी एक चौतरेपर बैठे थे। उन्होंने मुझे बुलाया, “ क्यों बेटा, कहां जाते हो ? ' मैंने यथोचित उत्तर दिया। उन्होंने मुझे तथा मेरे साथीको बैठनेके लिए कहा । हम बैठ गये ।

मैंने पूछा- इन बकरोंके बलिदानको आप धर्म समझते हैं ? "

उन्होंने कहा----" जीव-हत्याको धर्म कौन मानेगा ?"

“तों आप यहां बैठेबैठे लोगोंको उपदेश क्यों नहीं देते ?"

"यह हमारा काम नहीं । हम तो यहां बैठकर भगवद्भक्ति करते हैं।"

"पर आपको भक्तिके लिए यही स्थान मिला, दूसरा नहीं ?"

“ कहीं भी बैठे; हमारे लिए सब जगह एकसी है। लोगोंको क्या, वे तो भेड़-बकरीके झुंडकी तरह हैं, जिधर बड़े हांकें, उधर चले जाये । हम साधुओंको इससे क्या मतलब ? " बाबाजी बोले । [ २५८ ] मैंने संवाद आगे न बढ़ाया। इसके बाद हुम मंदिर पहुंचे । सामने लहूकी नदी बह रही थी। दर्शन करनेके लिए खड़े रहने की इच्छा न रही । मेरे मनमें बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ ! मैं छटपटाने लगा । इस दृश्यको मैं अबतक नहीं भुल सका हैं ।

उसी समय बंगाली मित्रोंकी एक पार्टी में मुझे निमंत्रण था । वहां मैंने एक सज्जनसे इसे घातक पूजा-विधिके संबंध में बातचीत की। उन्होंने कहा- “वहां बलिदानके समय खूब नौबत बजती है, जिसकी गुंजमें बकरोंको कुछ मालूम नहीं होता। यह मानते हैं कि ऐसी गूंजमें चाहे जिस तरह मारें, उन्हें तकलीफ नहीं होती ।"

मुझे यह बात न जंची। मैंने कहा--"यदि वे बकरे बोल सके तो। इससे भिन्न बात कहेंगे ।" मेरे मनने कहा-यह घातक रिवाज बंद होना चाहिए ! मुझे बुद्धदेववाली कथा याद आई; परंतु मैंने देखा कि यह काम मेरे सामर्थ्यके बाहर था ।

उस समय इस संबंधमें मेरी जो धारणा हुई वह अब भी मौजूद है। मेरे नजदीक बकरे के प्राणकी कीमत मनुष्यके प्राणसे कम नहीं है। मनुष्य-देहको कायम रखनके लिए बकरेका खून करनेको मैं कभी तैयार न होऊंगा । मैं मानता हैं कि जो प्राणी जितना ही अधिक असहाय होगा, वह मनुष्यकी घातकतासे बचने के लिए मनुष्यके आश्रयका उतना ही अधिक अधिकारी है। परंतु इसके लिए काफी योग्यता या अधिकार प्राप्त किये बिना मनुष्य आश्रय देनेमें समर्थ नहीं हो सकता है। बकरोंको इस क्रूर होमसे बचानेके लिए मुझे जो है उससे बहुत अधिक आत्मशुद्धि और त्यागकी आवश्यकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अभी तो इस शुद्धि और त्यागका रटन करते-करते ही मुझे यह देह छोड़नी पड़ेगी । परमात्मा करे ऐसा कोई तेजस्वी पुरुष अथवा कोई तेजस्वी सती उत्पन्न हो, जो इस महापातकसे मनुष्यको बचाये, निर्दोष जीवोंकी रक्षा करे और मंदिरको शुद्ध करे। मैं निरंतर यह प्रार्थना किया करता हूं । ज्ञानी, बुद्धिमान् त्याग-वृत्ति और भावना-प्रधान बंगाल क्योंकर इस वधको सहन कर रहा है ?

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