सत्य के प्रयोग/ गोखलेके साथ एक मास-१

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ २५३ ]लड़ियां और तुरें। इन सबके साथ कमरमें सोने की मुठकी तलवार लटकती रहती । किसीने कहा---ये इनके राज्याधिकारके नहीं, बल्कि गुलामीके चिह्न हैं। मैं समझता था कि ऐसे नामर्दीके आभूषण वे स्वेच्छासे पहनते होंगे । परंतु मुझे मालूम हुआ कि ऐसे समारोहमें अपने तमाम कीमती वस्त्राभूषण पहनकर आना उनके लिए लाजिमी था। मुझे पता लगा कि कितने ही राज‌ओंको तो ऐसे वस्त्राभूषणोंसे नफरत थी और ऐसे दरबारके अवसरके अलावा वे कभी उन्हें नहीं पहनते थे। मैं नहीं कह सकता कि यह बात कहांतक सच हैं। दूसरे अवसरोंपर वे चाहे पहनते हों या न पहनते हों, वाइसरायके दरबारमें हों या और कहीं, स्त्रियोचित आभूषण पहनकर उन्हें जाना पड़ता है, यही काफी दुःखदायक है । धन, सत्ता और मान मनुष्यत्वसे क्या-क्या पाप और अनर्थ नहीं कराते ?

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गोखले के साथ एक मास----१

पहले ही दिन गोखलेने मुझे मेहमान न समझने दिया, मुझे अपने छोटे भाईकी तरह रक्खा । मेरी तमाम जरूरतें मालूम कर लीं और उनका प्रबंध कर दिया । खुशकिस्मतीसे मेरी जरूरतें बहुत कम थीं । सब काम खुद कर लेने की आदत डाल ली थी, इसलिए से मुझे बहुत ही कम काम करना पड़ता था । स्वावलंबनकी मेरी इस आदतकी, उस समयके मेरे कपड़े-लत्तेकी सुघड़ताकी, मेरी उद्योगशीलता और नियमितताकी बड़ी गहरी छाप उन पर पड़ी और उसकी इतनी स्तुति करने लगे कि मैं परेशान हो जाता ।

मुझे यह न मालूम हुआ कि उनकी कोई बात मुझसे गुप्त थी । जो कोई बड़े आदमी उनसे मिलने आते उनका परिचय वह मुझसे कराते थे। इन परिचयोंमें जो आज सबसे प्रधानरूपसे मेरी नजरोंके सामने खड़े हो जाते हैं वह हैं डा० प्रफुल्लचंद्र राय । वह गोखलेके मकानके पास ही रहते थे और प्रायः हमेशा आया करते थे ।

" यह हैं प्रोफेसर राय, जो ८००) मासिक पाते हैं, पर अपने खर्च के लिए सिर्फ ४०) लेकर बाकी सब लोक-सेवामें लगा देते हैं। इन्होंने शादी नहीं की है, न करना ही चाहते हैं।" इन शब्दोंमें गोखलेने मुझे उनका परिचय कराया । [ २५४ ]

आजके डा० रायमें और उस समयके प्रो० रायमें मुझे थोड़ा ही भेद दिखाई देता है । जैसे कपड़े उस समय पहनते थे आज भी लगभग वैसे ही पहनते है। हां, अब खादी आ गई है । उस समय खादी तो थी ही नहीं । स्वदेशी मिलके कपड़े होंगे । गोरखले और प्रों ० रायकी बातें सुनते हुए मैं न अघाता था; क्योंकि उनकी बातें या तो देश-हितके संबंध होतीं या होती ज्ञान-चर्चा । कितनी ही बातें दुःखद भी होती; क्योंकि उनमें नेताओंकी आलोचना भी होती थी । जिन्हें मैं महान योद्धा मानना सीखा था, वे छोटे दिखाई देने लगे ।

गोखलेकी काम करने की पद्धति से मुझे जितना आनंद हुआ उतना ही बहुत-कुछ सीखा भी । वह अपनी एक भी क्षण व्यर्थ न जाने देते थे। मैंने देखा कि उनके तमाम संबंध देश-कार्यके ही लिए होते थे। बातें भी तमाम देश-कार्यके ही निमित्त होती थीं। बातों में कहीं भी मलिनता, दंभ या असत्य न दिखाई दिया । हिंदुस्तान की गरीबी और पराधीनता उन्हें प्रतिक्षण चुभती थी । अनेक लोग उन्हें अनेक बातोंमें दिलचस्पी कराने आते । वे उन्हें एक ही उत्तर देते---" आप इस कामको कीजिए, मुझे अपना काम करने दीजिए, मुझे देशकी स्वाधीनता प्राप्त करनी है। उसके बाद मुझे दूसरी बातें सूझेंगी। अभी तो इस कामसे मुझे एक क्षण फुरसत नहीं रहती ।"

रानडेके प्रति उनका पूज्य भाव बात-बातमें टपक पड़ता था। रानडे ऐसा कहते थे', यह तो उनकी बातचीतका मानो ‘सूत-उवाच' ही था । मेरे वहां रहते हुए रानडेकी जयंती (या पुण्यतिथि, अब ठीक याद नहीं है) पड़ती थीं । ऐसा जान पड़ा, मानो गोखले सर्वदा उसको मनाते हों । उस समय मेरे अलावा उनके मित्र प्रोफेसर काथवटे तथा दूसरे एक सज्जन थे। उन्हें उन्होंने जयंती मनाने के लिए निमंत्रित किया और उस अवसरपर उन्होंने हमें रानडेके कितने ही संस्मरण कह सुनाये । रानडे, तैलंग और मांडलिकंकी तुलना की थी । ऐसा याद पड़ता है। कि तैलंगकी भाषा की स्तुति की थी । भांडलिककी सुधारकके रूप में प्रशंसा की थी। अपने मवक्किलौकी वह कितनी चिंता रखते थे, इनका एक उदाहरण दिया । एक बार गाड़ी चूक गई तो मांडलिक स्पेशल ट्रेन करके गये । यह घटना कह सुनाई । रानडेकी सर्वांगीण शक्तिका वर्णन करके बताया कि वह तत्कालीन अग्नगियों में सर्वोपरि थे । रानडे अकेले न्यायभूति न थे। वह इति[ २५५ ] हासकर थे, अर्थशास्त्री थे । सरकारी जज होते हुए भी कांग्रेसमें प्रेक्षकके रूपमें निर्भय होकर आते थे । फिर उनकी समझदारीपर लोगों को इतना विश्वास था कि सब उनके निर्णयको मानते थे। इन बातोंका वर्णन करते हुए गोखलेके हर्षक ठिकाना न रहता था

गोखले घोड़ा-गाड़ी रखते थे । मैंने उनसे इसकी शिकायत की। में उनकी कठिनाइयां न समझ सका था। "क्या आप सब जगह ट्राममें नहीं जा सकते ? क्या इससे नेताओंकी प्रतिष्ठा कम हो जायगी ?"

कुछ दु:खित होकर उन्होंने उत्तर दिया----" क्या तुम भी मुझे न पहचान सके ? बड़ी धारासभासे जोकुछ मुझे मिलता है उसे मै अपने काममें नहीं लेता। तुम्हारी ट्रामके सफर पर मुझे ईर्ष्या होती है। पर मैं ऐसा नहीं कर सकता । जब तुमको मेरे जितने लोग पहचानने लग जावेंगे तब तुम्हें भी ट्राममें बैठना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर हो जायगा । नेता लोग जो कुछ करते हैं, केवल आमोद प्रमोदके ही लिए करते हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं । तुम्हारी सादगी मुझे पसंद है। मैं भरसक सादगीसे रहता हूं । पर यह बात निश्चित समझना कि कुछ खर्च तो मुझ जैसोंके लिए अनिवार्य हो जाता हैं ।"

इस तरह मेरी एक शिकायत तो ठीक तरहसे रद्द हो गई; पर मुझे एक दूसरी शिकायत भी थी और उसका वह संतोषजनक उत्तर न दे सके ।

“ पर आप घूमने भी तो पूरे नहीं जाते। ऐसी हालतमें आप बीमार क्यों न रहें ? क्या देश-कार्य से व्यायामके लिए फुरसत नहीं मिल सकती ?" मैंने कहा । ।

“ मुझे तुम कब फुरसत में देखते हो कि जिस समय मैं धूमने जाता ?" उत्तर मिला ।।

गोखले के प्रति मेरे मन में इतना आदर-भाव था कि मैं उनकी बातों का जवाब न देता था ! इस उत्तरसे मुझे संतोष न हुआ; पर मैं चुप रहा। मैं मानता था और अब भी मानता हूं कि जिस तरह हम भोजन-पानके लिए समय निकालते है उसी तरह व्यायाम के लिए भी निकालना चाहिए। मेरी यह नम्र सम्मति है। कि उससे देश-सेवा कम नहीं, अधिक होती है ।

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