सत्य के प्रयोग/ चालाकी?

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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आत्म-कथा : भाग ४ चालाकी ? मेरी इस सलाहके औचित्यके विषय में मेरे मनमें बिलकुल संदेह न था ; परंतु इस बातकी मेरे मनमें जरूर हिचकिचाहट थी कि मैं इस मुकदमे योग्यतापूर्वक बहस कर सकेंगा या नहीं। ऐसे जोखिमवाले मुकदमे में बड़ी अदालत में मेरा बस करनेके लिए जाना मुझे बहुत भयावह मालूम हुआ। मैं मनमें बहुत डरते और कांपते हुए न्यायाधीशोंके सामने खड़ा रहा। ज्योंही इस भूलकी वात निकली त्योंही एक न्यायाधीश कह बैठे---- “क्या यह चालाकी नहीं है ? यह सुनकर मेरी' त्यौरी बदली। जहां चालाकीकी बूतक नहीं थी वहां उसका शक थाना मुझे असह्य मालूम हुआ। मैंने मनमें सोचा कि जहां पहलेसे ही न्यायाधीशको खयाल खराब है, वहां इस कठिन मामलेमें कैसे जीत होगी ? पर मैंने अपने गुस्सेको दबाया और शांत होकर जवाब दिया-- “ मुझे आश्चर्य होता है कि आप पूरी बातें सुनने से पहले ही चालाकीका इलजाम लगाते हैं।" | " मैं इलजाम नहीं लगाता, सिर्फ अपनी शंका प्रकट करता हूं।' वह न्यायाधीश बोले । "आपकी यह शंका ही मुझे तो इलजाम जैसी मालूम होती है। मेरी सब बातें पहले सुन लीजिए और फिर यदि कहीं शंकाके लिए जगह हो तो आप अवश्य शंका उठावे --- मैंने उतर दिया । मुझे अफसोस है कि मैंने आपके बीचमें बाधा डाली । अाप अपना स्पष्टीकरण कीजिए।" शांत होकर न्यायाधीश बोले । मेरे पास स्पष्टीकरणके लिए पूरा-पूरा मसाला था। मामले की शुरूआतमें ही शंका उठ खड़ी हुई और मैं जजको अपनी दलीलका कायल कर सका। इससे मेरा हौसला बढ़ गया। मैंने उसे सब बाते ब्यौरेवार समझाई। अजने मेरी बात धीरजके साथ सुनी और अंतको वह समझ गये कि यह भूल महज़ भूल ही थी [ ३९० ]________________

अध्याय ४५ ; चालाकी ? और बड़े परिश्रमसे तैयार किये इस हिसाबको रद्द करना उन्हें अच्छा न मालूम हुआ । विपक्षके वकीलको तो यह विश्वास ही था कि इस भूलके मान लिये जानेपर तो उन्हें बहुत बहस करनेकी जरूरत न रहेगी। परंतु न्यायाधीश ऐसी भूलके लिए, जो स्पष्ट हो गई है और सुधर सकती है, पंचके फैसलेको रद्द करने के लिए बिलकुल तैयार न थे । विपक्षके वकीलने बहुत माथा-पच्ची की, परंतु जिस जजने शंका उठाई थी वही मेरे हिमायती हो वैठे । “मि० गांधीने भूल ल कबूल की होती तो आप क्या करते ?' न्यायाधीशने पूछा । । “जिन हिसाब-विशारदोंको हमने नियुक्त किया उनसे अधिक होशियार या ईमानदार विशेषज्ञोंको हम कहांसे ला सकते हैं ? " | " हमें मानना होगा कि आप अपने मुकदमेकी असलियत अच्छी तरह जानते हैं। बड़े-से-बड़े हिसाबके अनुभवी भूल कर सकते हैं। और इस भूलके अलावा यदि कोई दूसरी भूल बता सके तो फिर कानूनकी कमजोर बातोंका सहारा लेकर अदालत दोनों फरीकैनको फिरसे खर्च में डालनेके लिए तैयार नहीं हो सकती। और यदि आप कहें कि अदालतं ही फिर नये सिरेसे इस मुकदमेकी सुनवाई करे तो यह नहीं हो सकता।" इस तथा इस तरहकी दूसरी दलीलोंसे वकीलको शांत करके उस भूलको सुधारकर फिर अपना फैसला भेजने का हुक्म पंचके नाम लिखकर न्यायाधीशने उस सुधारे हुए फैसले को कायम रखा। इससे मेरे हर्षका पार न रहा। क्या मेरे मवक्किल और क्या बड़े वकील दोनों खुश हुए और मेरी यह धारणा और भी दृढ़ हो गई कि वकालत में भी सत्यका पालन करके सफलता मिल सकती है । परंतु पाठक इस बातको न भूलें कि जो वकालत पेशेके तौरपर की जाती है उसकी मूलभूत बुराइयोंको यह सत्यकी रक्षा छिपा नहीं सकती ।

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