सत्य के प्रयोग/ मवक्किल साथी बने

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अरेम-कथा : भाग ४ मवक्किल साथी बने। नेटाल और ट्रांसवालकी वकालतमें भेद था। नेटालमें एडवोकेट और अटन ये दो विभाग होते हुए भी दोनों तमाम अदालतोंमें एकसाथ वकालतकर सकते थे । परंतु ट्रांसबालमें बंबईकी तरह भेद था । वहां एडवोकेट मवक्किलसंबंधी सारा काम अटके मार्फत ही कर सकता था । ओ बैरिस्टर हो गया हो वह एडवोकेट अथवा अटन किसी भी एकके कामकी सनद ले सकता है सौर फिर वही एक काम कर सकता था। नेटालमें मैंने एडवोकेटकी सनद ली थी और ट्रांसवालमें अटर्नी की । यदि एडवोकेटकी ली होती तो मैं वहाँके हिंदुस्तानियोंके सीधे संपर्क न आ पाता और दक्षिण अफ्रीकामें ऐसा वातावरण भी नहीं था कि गोरे अटर्नी मुझे मुकदमे ला-लाकर देते । | ट्रांसवालमें इस तरह बकालत करते हुए मजिस्ट्रेटकी अदालतमें मैं बहुत बार जा सकता था । ऐसा करते हुए एक मौका ऐसा अाया कि मुकदमेकी सुनवाई बीचमें मुझे पता चला कि मवडिकलने मुझे धोखा दिया है। उसका मुकदमा झूठा था । वह कटघरेमें खड़ा हुआ तो मानो गिरा पड़ता था। इससे मैं मजिस्ट्रेटको यह कहकर बैठ गया कि आप मेरे मुवक्किलके खिलाफ फैसला दीजिए । विपक्षका वकील यह देखकर दंग रह गया। मजिस्ट्रेट खुश हुआ। मैंने मुवक्किलको बड़ा उलाहना दिया ; क्योंकि उसे पता था कि मैं झूठे मुकदमे नहीं लेता था। उसने भी यह बात मंजूर की और मैं समझता हूं कि उसके खिलाफ फैसला होने से वह नाराज नहीं हुआ। जो हो ; पर इतना जरूर है कि मेरे सत्य व्यवहारका कोई बुरा असर मेरे पेपर नहीं हुआ और अदालतमें मेरा काम बड़ी सरल हो गया । मैंने यह भी देखा कि मेरी इस सत्य-पूजाकी बदौलत वकील-बंधुग्रोंमें भी मेरी प्रतिष्ठा बढ़ गई थी और परिस्थितिकी विचित्रताके रहते हुए भी मैं उनमें से कितनोंकी ही प्रीति संपादन कर सका था । । | वकालत करते हुए मैंने अपनी एक ऐसी आदत भी डाल ली थी कि मैं अपनी अज्ञान न भवक्किलसे छिपाता, न बकील से । जहां बाद मेरी समझमें [ ३९२ ]________________

अध्याय ४७ : अवकल जलसे कैसे बचा । नहीं आतीं वहां मैं मवक्किंलको दुसरे वकीलोंके पास जानेको कहता अथवा यदि मुझे ही वकील बनाते तो अधिक अनुभवी वकीलकी सलाह लेकर काम करने की प्रेरणा करता । अपने इस शुद्ध भावकी बदौलत मैं भवक्कि नका असूट प्रेम और विश्वास संपादन कर सका था। बड़े वकीलोंकी फीस भी वे खुशी-खुशी देते थे । इस विश्वास और प्रेमका पूरा-पूरा लाभ मुझे सार्वजनिक कामों में मिला है। पिछले अध्यायोंमें मैं यह बता चुके हैं कि दक्षिण अफ्रकामें वकालत करने में मेरा हेतु केवल लोक-सेवा था । इससे सेवा-कार्य के लिए भी मुझे लोगोंक विश्वास प्राप्त कर लेने की आवश्यकता थी । परंतु वहांके उदार-हृदय भारतीय भाइयोंने फीस लेकर की हुई वकालतको भी सेवाका ही गौरव प्रदान किया और जब उन्हें उनके हकोंके लिए जेल जाने और वहांके कष्टोंके सहन करने की सलाह मैंने दी तब उसको अंगीकार उनमें से बहुतने ज्ञानपूर्वक करनेकी' अक्षा मेरे प्रति अपनी श्रद्धा और प्रेमके कारण ही अधिक किया था । यह लिखते हुए वकालतके समयकी कितनी ही मीठी बातें कलम में भर रही है। सैकड़ों मवक्किल मित्र बन गये, सार्वजनिक सेवामें मेरे सच्चे साथी बने और उन्होंने मेरे कठिन जीवनको रस-मय बना डाला था । मवकिले जेल से कैसे बचा है। पारस रुस्तमजीके नामसे इन अध्यायों के पाठक भलीभांति परिचित हैं। पारस रुस्तमजी मेरे भवक्किल और सार्वजनिक कार्य में साथी; एक ही साथ बने; बल्कि यह कहना चाहिए कि पहले साक्षी बने और बादको भवक्किल । उनका विश्वास. तो मैंने इस दतक प्राप्त कर लिया था कि वह अपने घरू और खानगी बात में भी मेरी सलाह मांगते और उसका पालन करते हैं उन्हें. यदि कोई बीमारी भी हो तो बह मेरी सलाहकी जरूरत समझते और उनकी और मेरी रहन-सहन में बहुत-कुछ भेद रहनेपर भी बह खुद मेरे उपचार करते । .. मेरे इस साथीपर एक बार बड़ी भारी मिति आ गई थी। हालांकि

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