सत्य के प्रयोग/ त्याग-भावकी वृद्धि

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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२६२ त्मिकथ? : भव ४ . त्याग-भावकी वृद्धि ट्रांसवालमें लोगोंके हकोंकी रक्षाके लिए किस तरह लड़ना पड़ा और एशियाई महकमे के अधिकारियोंके साथ किस तरह पेश आना पड़ा; इसका अधिक वर्णन करनेके पहले मेरे जीवनके दूसरे पहलूपर नजर डाल लेनेकी आवश्यकता है। अबतक कुछ-न-कुछ धन इकट्ठा कर लेनेकी इच्छा मनमें रहा करती थी। मेरे परमार्थके साथ यह स्वार्थका मिश्रण भी रहता था । । | बबईम जब मैंने अपना दफ्तर खोला था त एक अमरीकन बीमा-एजेंट म झसे मिलने आया था । उसका चेहरा खशनमा था। उसकी बातें वडी मीठी थीं। उसने मुझसे मेरे भाबी काल्या की बातें इस तरह कीं, मानो वह मेरा कोई बहन दिनोंका मित्र हो । “अमरीकामें तो आपकी हैसियतके सब लोग अपनी जिंदगीका बीमा करवाते हैं। आपको भी उनकी तरह अपने भविष्यके लिए निश्चित हो जाना चाहिए। जिदगीका आखिर क्या भरोसा ? हम अमरीकावासी तो बीमा कराना एक धर्म समझते हैं, तो क्या आपको में एक छोटी-सी पालिसी करानेके लिए भी न ललचा सकू ?" अबतक क्या हिंदुस्तानमें और क्या दक्षिण अफ्रीकामें कितने ही एजेंट मेरे पास आये; पर मैंने किसीको दाद न दी थी; क्योंकि मैं समझता था कि बीमा कराना मानो अपनी भीरुताका और ईश्वरके प्रति अविश्वासका परिचय देना था; पर इस बार में लालचमें आ गया। वह एजेंद ज्यों-ज्यों अपना जादू घुमाता जाता, त्यों-त्यों मेरे सामने अपनी पत्नी और पुत्रोंकी तस्वीर खड़ी होने लगी । मनमें यह भाव उठा कि “अरे, तुमने पत्नीके लगभग सब गहने-पत्ते बेच डाले हैं। अब, अगर यह शरीर कुछ-का-कुछ हो जाय तो इन पत्नी और बाल-बच्चोंके भरणपोषणका भार आखिर तो उसी गरीब भाईपर न जा पड़ेगा जो आज तुम्हारे पिताके स्थानकी पूर्ति कर रहा है. और खूबीके सार कर रहा है ? क्या यह उचित होगा ?" इस तरह मैंने अपने मनको समझा कर १०,००० ) का बीमा करा लिया । [ २८३ ]________________

अध्याय ४ : त्याग-भावकी वृद्धि र दक्षिण अफ्रीका में मेरे मनकी यह हालतु न रह गई थी और मेरे विचार भी बदल गये थे। दक्षिण अफ्रीकाकी लई झापत्तिके समय मैंने जोकुछ किया ईश्वरको साक्षी रखकर ही किया था। मुझे इस बातकी कुछ खबर न श्री कि दक्षिणु अझीझमें मुझे कितने समय रहना पड़ेगा। मेरी तो यह धारणा हो गई थी कि अद में हिंदुस्तानको वापस न लौट पाऊंगा। इसलिए मुझे बालबच्चों को अपने साथ ही रखना चाहिए। उनको अब अपनेसे दूर रखना उचित नई। उनके भरण-पोषणका प्रबंध भी दक्षिण अफ्रीका में ही होना चाहिए । यह विचार मतभें आते ही वह पालिसी उलटे मेरे दु:खका कारण बन गई। मुझे ममें इस बातपर शर्म आने लगी कि मैं उस एजेंटके चक्करमें कैसे आ गया। स ने इस विचारको अपने मन में स्थान ही कैसे दिया कि जो भाई मेरे लिए पिताके बराबर हैं उन्हें अपने सगे छोटे भाईकी विधवाका बोझ नागवार होगा ? और यह भी कैसे मान लिया कि पहले तुम ही मर जाम्रो ? आखिर सबका पालन करनेवाला तो वह ईश्वर ही है। न तो तुम हो, न तुम्हारे भाई हैं। बीमा करना लुमने अपने बाल-बच्चोंको भी पराधीन बना दिया। वे क्यों स्वावलंबी नहीं हो सकते ? इन असंख्य गरीबों के बाल-बच्चोंका आखिर क्या होता है ? तुम अपने को उन्हींके-जैसा क्यों नहीं समझ लेते ?” | इस प्रकार मनमें विचारोंकी धारा बहने लगी; पर उसके अनुसार व्यवहार सहसा ही नहीं कर डाला । मुझे ऐसा याद पड़ता है कि बीमेकी एक किस्त तो मैंने दक्षिण अकीकासे भी जमा कराई थी । । परंतु इस विचार-धाराको बाहरी उत्तेजन मिलता गया दक्षिण अफ्रीकाकी पहली यात्रा समय मैं ईसाइयोंके दाताबरणमें कुछ शा चुका था और उसके फल-स्वरूप धर्म के विषयों जाग्रत रहने लगा। इस बार थियांसफीके वातावरणमें आया । मि० रीच थियॉसफिस्ट थे। उन्होंने जोहान्सबर्गकी सोसाइटीसे मेरा संबंध करा दिया । मेरा थियॉसफीके सिद्धांतोंसे मत-भेद था, इसलिए मैं उसका सदस्य तो नहीं बना; पर फिर भी लगभग प्रत्येक थियॉसफिस्टसे मेरा गाढ़ा परिचय हो गया था। उनके साथ रोज धर्म-चच हुशा करती'। थियॉसफीकी पुस्तकें पढ़ी जातीं और उनके मंडल कभी-कभी मुझे बोलना भी पड़ता । थियॉसफीमें भ्रातृ-भाव पैदा करना और बढ़ाना मुख्य बात है । इस' विषयपर हम बहुत चर्चा

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