सत्य के प्रयोग/ निरीक्षणका परिणाम

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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आत्म-कथा : भाग ४ करते और में जहां-जहां इस मान्यता और सभ्य के चरणमें भेद देखता तहां उसकी आलोचना भी करता । इस आलोचनाका प्रभाव खुद मुझपर बड़ा अच्छा पड़ा । इससे मुझे आत्म-निरीक्षणकी लगन लग गई । निरीक्षणका परिणाम | जब १८९३में मैं ईसाई-मित्रोंके निकट-परिचयमें आया, तब मैं एक विद्यार्थीकी स्थितिमें था। ईसाई-मित्र मुझे बाइबिलका संदेश सुनाने, समझाने और मुझसे स्वीकार कराने का उद्योग कर रहे थे। मैं नम्रभावसे, एक तटस्थकी तरह, उनकी शिक्षाओंको सुन और समझ रहा था। इसकी बदौलत मैं हिंदूधर्मका यथाशक्ति अध्ययन कर सका और दूसरे धर्मोको भी समझने की कोशिश की; पर अब १९०३में स्थिति जरा बदल गई। थियॉसफिस्ट मित्र मुझे अपनी संस्थामें खींचनेकी इच्छा तो जरूर कर रहे थे; परंतु वह एक हिंदूके तौरपर मुझसे कुछ प्राप्त करनेके उद्देश्यसे । थियांसफीकी पुस्तकोंपर हिंदू-धर्मकी छाया और उसका प्रभाव बहुत-कुछ पड़ा है, इसलिए इन भाइयोंने यह मान लिया कि मैं उनकी सहायता कर सकेंगा । मैंने उन्हें समझाया कि मेरा संस्कृतका अध्ययन बराय-नाम ही है । मैंने हिंदू-धर्म के प्राचीन ग्रंथोंको संस्कृत में नहीं पढ़ा है और अनुवादोंके द्वारा भी मेरा पठन कम हुआ है। फिर भी, चूंकि वे संस्कारको और पुनर्जन्मको मानते हैं, उन्होंने अपना यह खयाल वना लिया कि मेरी थोड़ीबहुत मदद तो उन्हें अवश्य ही मिल सकी है। और इस तरह मैं--‘रूख नहीं तहां रेंड प्रधान' बन गया । किसीके साथ विवेकानंद का ‘राजयोग' पढ़ने लगा तो किसीके साथ मणिलाल नं० द्विवेदीका ‘राजयोग'। एक मित्रके साथ ‘पातंजल' योगदर्शन भी पढ़ना पड़ा। बहुतोंके साथ गीताका अध्ययन शुरू किया। एक छोटा-सा ‘जिज्ञासुमंडल' भी बनाया गया और नियम-पूर्वक अध्ययन आरंभ हो । गीताजीके प्रति मेरा प्रेम और श्रद्धा तो पहले हीसे थी । अब उसका गहराईके साथ रहस्य समझने की आवश्यकता दिखाई दी। मेरे पास एकदो अनुवाद रखे थे। उनकी सहायताले मूल संस्कृत समझनेका प्रयत्न किया [ २८५ ]अध्यय ५ : निरीक्षणका परिणाम २६५ और नित्य एक या दो श्लोक कंठ करनेका निश्चय किया । सुबहका दतौन और स्नानका समय मैं गीताजी कंठ करनेमें लगाता । दतौनमें १५ और स्नानमें २० मिनट लगते । दतौन अंग्रेजी रिवाजके मुताबिक खड़े-खड़ करता । सामने दीवारपर गीताजीके श्लोक लिखकर चिपका देता और उन्हें देख -देखकर रटता रहता । इस तरह रटे हुए श्लोक स्नान करनेतक पक्के हो जाते । बीचमें पिछले श्लोकोंको भी दुहरा जाता । इस प्रकार मुझे याद पडता है कि १३ अध्याय तक गीता बर-जबान कर ली थी; पर बादको कामकी झंझट बढ़ गई । सत्याग्रहका जन्म हो गया और उस बालककी परवरिशका भार मुझपर आ पड़ा, जिससे विचार करनेका समय भी उसके लालन-पालनमें बीता, और कह सकते हैं कि अब भी बीत रहा है । गीता-पाठका असर मेरे सहाध्यायियोंपर तो जो-कुछ पड़ा हो वह वही बता सकते हैं; किंतु मेरे लिए तो गीता आचारकी एक प्रौढ़ मार्गदर्शिका बन गई हैं। वह मेरा धार्मिक कोष हो गई है । अपरिचित अंग्रेजी शब्दक हिज्जे या अर्थ को देखनेके लिए जिस तरह मै अंग्रेजी कोषको खोलता, उसी तरह अचार-संबंधी कठिनाइयों और उसकी अटपटी गुत्थियोंको गीताजीके द्वारा सुलझाता । उसके अपरिग्रह समभाव इत्यादि शब्दोंने मुझे गिरफ्तार कर लिया यही धुन रहने लगी कि समभाव कैसे प्राप्त करूं, कैसे उसका पालन करूं ? जो अधिकारी हमारा अपमान करे, जो रिश्वतखोर हैं, रास्ते चलते जो विरोध करते हैं, जो कलके साथी हैं, उनमें और उन सज्जनोंमें जिन्होंने हमपर भारी उपकार किया है, क्या कुछ भेद नहीं है ? अपरिग्रहका पालन किस तरह मुमकिन है ? क्या यह हमारी देह ही हमारे लिए कम परिग्रह है ? स्त्री-पुरुष आदि यदि परिग्रह नहीं हैं तो फिर क्या है? क्या पुस्तकोंसे भरी इन अलमारियोंमें आग लगा दूं ? पर यह तो घर जलाकर तीर्थ करना हुआ ! अंदरसे तुरंत उत्तर मिला-'हां, घरबारको खाक किये बिना तीर्थ नहीं किया जा सकता ।' इसमें अंग्रेजी कानूनके अध्ययनने मेरी सहायता की । स्नेल-रचित कानूनके सिद्धांतोंकी चर्चा याद आई। 'ट्रस्टी'शब्दक अर्थ, गीताजीके अध्ययनकी बदौलत, अच्छी तरह समझमें आया । कनून-शास्त्रके प्रति मनमें आदर वढ़ी । उसके अंदर भी मुझे धर्मक तत्व दिखाई पड़ा । 'ट्रस्टी' यों करोड़ोंकी संपत्ति रखते हैं, फिर भी उसकी एक पाईपर उनका [ २८६ ]२६६ अल्मों-कथा : भाग ४ अधिकार नहीं होता । इसी तरह मुमुक्षुको अपना आचरण रखना चाहिए--चह पाठ मैने गीताजीसे सोखा। अपरिग्रही होनेके लिए सम-भाव रखनेके लिए,हेलुका और हृदयका परिवर्तन आवश्यक है, यह बात मुझे दीपककी तरह स्पष्ट दीजिए देने लगी। बस तुरंत रेवाशंकर भाईको लिखा की बीमे की पालिसी बंद कर दीजिए । कुछ रुपया वापस मिल जाए तो ठीक; नहीं तो खैर । बाल-बच्चों और गृहिणीकी रक्षा वह ईश्वर करेगा जिसने उनको और हमको पैदा किया है। यह आशय मेरे उस पत्रका था । पिताके समान अपने बड़े भाईको लिखा-- “आजतक मैं जो कुछ बचाता रहा आपके अर्पण करता रहा, अब मेरी आशा छोड़ दीजिए । अव जो-कुछ बच रहेगा वह यहींके सार्वजनिक कामोंमें लगेगा ।” इस बातका औचित्य में भाई साहबको जल्दी न समझा सका । शुरूमें तो उन्होंने बड़े कड़े शब्दोंमें अपने प्रति मेरे धर्मका उपदेश दिया--“ पिताजी से बढ़कर अक्ल दिखानेकी तुम्हें जरूरत नहीं । क्या पिताजी अपने कुटुंबका पालन पोषण नहीं करते थे,? तुम्हें भी उसी तरह घर-बार सम्ह्लना चाहिए। " आदि--मैंने विनय-पूर्वक उत्तर दिया--“ में तो वही काम कर रहा हूं, जो पिताजी करते थे । यदि कुटुंबकी व्याख्या हम जरा व्यापक कर दें तो मेरे इस कार्यका औचित्य तुरंत आपके खयाल में आ जायगा ।” आव भाई साहबने मेरी आशा छोड़ दी । करीब-करीब अ-बोला ही रक्खा । मुझे इससे दुःख हुआ; परंतु जिस बातको मैंने अपना धर्म मान लिया उसे यदि छोड़ता हूं तो उससे भी अधिक दु:ख होता था । अतएव मैंने इस थोड़े दुःखको सहन कर लिया । फिर भी भाई साहबके प्रति मेरी भक्ति उसी तरह निर्मल और प्रचंड रही । में जानता था कि भाई साहबके इस दुःखका मूल है उनका प्रेम-भाव । उन्हें रुपये-पैसेकी अपेक्षा मेरे सद्व्यवहारकी अधिक चाह थी । पर अपने अंतिम दिनोंमें भाई साहब मुझपर पसीज गये थे । जब वह मृत्यु-शय्यापर थे तब उन्होंने मुझे सूचित कराया कि मेरा कार्य ही उचित और धर्म्थ था । उनका पत्र बड़ा ही करुणाजनक था । यदि पिता पुत्रसे माफी मांग सकता हो तो उन्होंने उसमें मुझसे माफी मांगी थी । लिखा कि मेरे लड़कोंका तुम अपने ढंगसे लालन-पालन और शिक्षण करना। वह मुझसे मिलनेके लिए बड़े अधीरं हो गये थे । मुझे तार दिया । मैंने तार द्वारा उत्तर दिया-- 'जरूर आजाइए ।'

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