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सत्य के प्रयोग/ दु:खद प्रसंग-२

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सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ४१ से – ४४ तक

 


समय तो मेरी अक्ल बौरिया गई थी।

दु:खद प्रसंग-२

नियत दिन आया। उस समयकी मेरी दशाका हूबहू वर्णन करना कठिन है। एक ओर सुधारका उत्साह, जीवनमें महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करनेका कुतूहल और दूसरी ओर चोरकी तरह लुक-छिपकर काम करनेकी शरम। नहीं कह सकता इनमें किस भाव की प्रधानता थी। हम एकांत जगहकी तलाशमें नदीकी तरफ चले। दूर जाकर एक ऐसी जगह मिली जहां कोई सहसा न देख सके और जहाँ मैने देखा मांस, जिसे जीवनमें पहले कभी न देखा था; साथ में भटियारेके यहांकी डबल रोटी भी थी। दोनोंमेंसे एक भी चीज न भाई। मांस चमड़ेकी तरह लगा। खाना असंभव हो गया। मुझे कै-सी होने लगी। खाना यों ही छोड़ना पड़ा।

मेरे लिए यह रात बहुत कठिन साबित हुई। नींद किसी तरह न आती थी। ऐसा मालूम होता मानो बकरा मेरे शरीरके अंदर जीवित है और सपनेमें मानो वह बें-बें चिलाता है। मैं चौंक उठता, पछताता, पर फिर सोचता कि मांसाहारके बिना तो गति ही नहीं; यों हिम्मत न हारनी चाहिए। मित्र भी पिंड छोड़नेवाले न थे। उन्होंने अब मांसको तरह-तरहसे पकाना और सुस्वादु बनाना तथा ढककर रखना शुरू किया। नदी किनारे ले जानेके बजाय राज्यके एक भवनमें वहांके बावर्चीसे इंतजाम करके छिपे-छिपे जाने की तजवीज की; और वहां मेज कुर्सी इत्यादि सामग्रियोंके ठाट-बाटसे मुझे लुभाया। इसका अभीष्ट असर मेरे दिलपर हुआ। डबलरोटीसे नफरत हटी, बकरेकी दया-माया छूटी और मांसका तो नहीं कह सकता, पर मांसवाले पदार्थोंका स्वाद लग गया। इस तरह एक साल गया होगा और इस बीच कुल पांच-छ: बार मांस खाने को मिला होगा क्योंकि एक तो बार-बार राज्यका भवन न मिलता, और दूसरे मांसके सुस्वादु पदार्थ हमेशा तैयार न हो पाते। फिर ऐसे भोजनोंके लिए खर्च भी करना पड़ता। इधर मेरे पास कानी कौड़ी भी न थी। मैं देता क्या? खर्चका इंतजाम सोचना
उस मित्रके जिम्मे रहा था। मुझे आजतक खबर नहीं कि उसने कहांसे इंतजाम किया था। उसका इरादा तो था मुझे मांसकी चाट लगा देना, मुझे भ्रष्ट कर देना। इसलिए खर्चका भार वह खुद ही उठाता था। पर उसके पास भी अटूट खजाना तो था नहीं, इस कारण ऐसे भोजनोंके अवसर कभी-कभी ही आते।

जब-जब ऐसे भोजनोंमें शरीक होता तब-तब घर खाना न खाया जाता। जब मां खानेको बुलाती तो बहाना करना पड़ता, आज भूख नहीं, खाना पचा नहीं। जब-जब ये बहाने बनाने पड़ते तब-तब मेरे दिलको सख्त चोट पहुंचती। इतनी झूठ बात, फिर मांके सामने। फिर यदि मां-बाप जान जाएं कि लड़के मांस खाने लग गये हैं, तब तो उनपर बिजली ही टूट पड़ेगी। ये विचार मेरे हृदयको हरदम नोचते रहते। इस कारण मैंने निश्चय किया कि मांस खाना तो आवश्यक हैं, उसका प्रचार करके हिंदुस्तानको सुधारना भी आवश्यक है, पर माता-पिताको धोखा देना और झूठ बोलना मांस न खानेसे भी ज्यादा बुरा है। इसलिए माता-पिताके जीतेजी मांस न खाना चाहिए। उनकी मृत्युके बाद, स्वतंत्र हो जानेपर खुल्लम-खुल्ला खाना चाहिए; और जबतक वह समय न आवे मांसके रास्ते न जाना चाहिए। यह निश्चय मैंने अपने मित्र पर प्रकट कर दिया। उस दिनसे जो मांसाहार छूटा सो छूटा ही। हमारे माता-पिताने कभी नही जाना कि उनके दो पुत्र मांस खा चुके हैं।

माता-पिताको धोखा न देनेके शुभ विचारसे मैंने मांसाहार तो छोड़ा, परंतु उस मित्रकी मित्रता न छोड़ी। मैं जो दूसरोंको सुधारनेके लिए आगे बढ़ा था सो खुद ही बिगड़ गया और सो भी ऐसा कि बिगड़ जानेका भानतक न रहा।

उसीकी मित्रताके कारण मैं व्यभिचारमें भी फंस जाता। एक बार यही महाशय मुझे चकलेमें ले गये। वहां एक बाईके मकानमें जरुरी बातें समझाकर भेजा। पैसे देना-दिवाना मुझे कुछ न था। वह सब पहले ही हो चुका था। मेरे लिए तो सिर्फ एकांत लीला करनी बाकी थी।

मैं मकानमें दाखिल तो हो गया, पर ईश्वर जिसे बचाना चाहता है वह गिरनेकी इच्छा करते हुए भी बच सकता है। उस कमरेमें जाकर मैं तो मानो अंधा बन गया। कुछ बोलनेका ही औसान न रहा। मारे शरमके चुपचाप उस बाईकी खटियापर बैठ गया। एक लफ्जतक जबानसे न निकला। बाई
झल्लाई और मुझे दो-चार बुरी-भली सुनाकर सीधा दरवाज़े का रास्ता दिखलाया।

उस समय तो मुझे लगा, मानो मेरी मर्दानगी पर लांछन लग गया, और धरती फट जाय तो मैं उसमें समा जाऊं। परंतु बादको, इससे मुझे उबार लेने पर, मैंने ईश्वरका सदा उपकार माना है। मेरे जीवनमें ऐसे ही चार प्रसंग और आये हैं। बहुतोंमें मैं बिना प्रयत्नके, दैवयोगसे, बच गया हूं। विशुद्ध दृष्टि से तो इन अवसरोंपर मैं गिरा ही समझा जा सकता हूं; क्योंकि विषयकी इच्छा करते ही मै उसका भोग तो कर चुका। फिर भी लौकिक दृष्टिसे हम उस आदमीको बचा हुआ ही मानते हैं जो इच्छा करते हुए भी प्रत्यक्ष कर्म से बच जाता है। और मैं इन अवसरोंपर इसी तरह, इतने ही अंशतक, बचा हुआ समझा जा सकता हूं। फिर कितने ही काम ऐसे होते हैं, जिनके करनेसे बचना व्यक्तिके तथा उसके संपर्कमें आनेवाले लोगों के लिए बहुत लाभदायक साबित होता है। और जब विचार-शुद्धि हो जाती है तब उस कर्मसे बच जानेको वह ईश्वरका अनुग्रह मानता है । जिस प्रकार हम यह अनुभव करते हैं कि न गिरनेका यत्न करते हुए भी मनुष्य गिर जाता है उसी प्रकार पतनकी इच्छा हो जानेपर भी अनेक कारणों से मनुष्य बच जाता है। यह भी अनुभव सिद्ध है। इसमें कहां पुरुषार्थके लिए स्थान है, कहां दैवके लिए, अथवा किन नियमोंके वशवर्ती होकर मनुष्य अंतमें गिरता है, या बचता है, ये प्रश्न गूढ़ हैं। ये आजतक हल नहीं हो सके हैं; और यह कहना कठिन है कि इनका अंतिम निर्णय हो सकेगा या नहीं।

पर हम आगे चलें।

मुझे अब भी इस बातका भान न हुआ था कि इस मित्रकी मित्रता अनिष्ट है। अभी और कड़ुए अनुभव होने बाकी थे। यह तो मुझे तभी मालूम हुआ, जब मैने उनके ऐसे दोषोंका प्रत्यक्ष अनुभव किया, जिसकी मुझे कभी कल्पनातक न हुई थी। पर मैं जहांतक हो, समयानुक्रमसे अपने अनुभव लिख रहा हूं, इसलिए वे बातें आगे समयपर आ जावेंगी।

एक बात तो इसी समयकी है, जो यहीं कह दूं। हम दंपतिमें जो कितनी ही बार मतभेद और मनमुटाव हो जाया करता, उसका कारण यह मित्रता भी थी। मैं पहले कह चुका हूं कि मैं जैसा प्रेमी था वैसा ही वहमी पति भी था।
यह मित्रता मेरे वहम को बढ़ाती रहती थी, क्योंकि मित्रकी सच्चाईपर मुझे अविश्वास बिलकुल न था। इस मित्रकी बातें मानकर मैंने अपनी धर्मपत्नीको कई बार दुःख दिया है। इस हिंसाके लिए मैंने कभी अपने को माफ नहीं किया। हिंदू स्त्री ही ऐसे दु:खोंको सहन कर सकती होगी। और इसलिए मैंने स्त्रीको हमेशा सहनशीलताकी मूर्ति माना है। नौकर-चाकर पर यदि झूठा वहम आने लगे तो वे नौकरी छोड़कर चले जाते हैं, पुत्रपर ऐसी बीते तो बापका घर छोड़कर चला जाता है, मित्रोंमें संदेह पड़ जाय तो मित्रता टूट जाती है, पत्नीको यदि पति पर शक हो तो बेचारी मन मसोसकर रह जाती है; पर यदि पतिके मनमें पत्नीके लिए शक पड़ जाय तो बेचारीकी मौत ही समझिए। वह कहां जाय? उच्च-वर्णकी हिंदू स्त्री अदालतमें जाकर तलाक भी नहीं दे सकती। ऐसा एक-पक्षी न्याय उसके लिए रखा गया है। यही न्याय मैंने उसके साथ बरता, इस दु:खको मैं कभी नहीं भूल सकता। इस वहमका सर्वथा नाश तो तभी हुआ, जब मुझे अहिंसाका सूक्ष्म ज्ञान हुआ। अर्थात् जब मैं ब्रह्मचर्यकी महिमाको समझा और समझा कि पत्नी पतिकी दासी नहीं वरन् सहचारिणी है, सहधर्मिणी है। दोनों एक-दूसरेके सुख-दुःखके समान-भागी हैं और पतिको अच्छा-बुरा करनेकी जितनी स्वतंत्रता है उतनी ही पत्नीको भी है। इस वहमके समयकी जब मुझे याद आती है तब मुझे अपनी मूर्खता और विषयांध निर्दयता पर क्रोध और मित्रता-विषयक अपनी इस मूर्च्छा—मूढ़तापर तरस आता है।

चोरी और प्रायश्चित्त

मांसाहारके समयके और उसके पहलेके अपने कुछ दूषणोंका वर्णन करना अभी बाकी है। ये या तो विवाहके पहलेके हैं या तुरंत बादके।

अपने एक रिश्तेदारके साथ मुझे सिगरेट पीनेका चस्का लग गया। पैसे तो हमारे पास थे ही नहीं। दोनोंमेंसे किसीको भी यह तो नहीं मालूम होता था कि सिगरेट पीने में कुछ फायदा है या उसकी गंधमें कुछ स्वाद है; पर इतना

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