सत्य के प्रयोग/ दु:खद प्रसंग-१

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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गया तो बड़ा अच्छा आदमी साबित होगा। मैं चाहता हूं कि आप मेरी तरफसे बिलकुल निःशंक रहें।" मैं नहीं समझता कि मेरे इन वचनोंसे उन्हें संतोष हुआ हो; पर इतना जरूर हुआ कि उन्होंने मुझपर विश्वास रक्खा और मुझे अपने रास्ते जाने दिया।

पीछे जाकर मैंने देखा कि मेरा अनुमान ठीक न था। सुधार करनेके लिए भी मनुष्यको गहरे पानीमें न पैठना चाहिए। जिनका सुधार हमें करना हो उनके साथ मित्रता नहीं हो सकती। मित्रतामें अद्वैत-भाव होता है। ऐसी मित्रता संसारमें बहुत कम देखी जाती हैं। समान गुण और शीलवालोंमें ही मित्रता शोभती और निभती हैं। मित्र एक-दूसरेपर अपना असर छोड़े बिना नहीं रह सकते। इस कारण, मित्रतामें सुधारके लिए बहुत कम गुंजाइश होती है। मेरा मत यह है कि निजी या अभिन्न मित्रता अनिष्ट है; क्योंकि मनुष्य दोषको झट ग्रहण कर लेता है। किंतु गुण ग्रहण करनेके लिए प्रयासकी जरूरत है। जो आत्माकी-ईश्वरकी-मित्रता चाहता है उसे एकाकी रहना उचित है, या फिर सारे जगतके साथ मित्रता करनी उचित है। ये विचार सही हों या गलत, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरा निजी मित्रता जोड़ने और बढ़ानेका यह प्रयत्न विफल साबित हुआ।

जिन दिनों इन महाशयसे मेरा संपर्क हुआ, राजकोटमें 'सुधारक-पंथ' का जोरशोर था। इन मित्रने बताया कि बहुतेरे हिंदू-शिक्षक छिपे-छिपे मांसाहार और मद्यपान करते हैं। राजकोटके दूसरे प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम भी लिये। हाईस्कूलके कितने ही विद्यार्थियोंके नाम भी मेरे पास आये। यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही दु:ख भी। जब मैंने इसका कारण पूछा तो यह बताया गया-"हम मांस नहीं खाते, इसीलिए कमजोर हो गये हैं। अंग्रेज़ जो हमपर हुकूमत कर रहे हैं इसका कारण है उनका मांसाहार। तुम जानते ही हो कि मैं कितना हट्टा-कट्टा और मजबूत हूं और कितना दौड़ सकता हूं। इसका कारण भी-मेरा मांसाहार ही है। मांसाहारीको फोड़े-फुंसी नहीं होते, हों भी तो जल्दी अच्छे हो जाते हैं। देखो, हमारे शिक्षक लोग मांस खाते हैं, इतने भले-भले आदमी खाते हैं, सो क्या बिना सोचे-समझे ही? तुमको भी खाना चाहिए। खाकर तो देखो कि तुम्हारे बदनमें कितनी ताकत आ जाती है ।" [ ३९ ]ये दलील एक ही दिनमें नहीं पेश हुईं। अनेक उदाहरणोंसे सजाकर कई बार पेश की गईं। मेरे मंझले भाई तो मांस खाकर भ्रष्ट हो ही चुके थे। उन्होंने भी इस दलीलका समर्थन किया। इन मित्रके और अपने भाईके मुकाबलेमें मैं दुबला-पतला और कमजोर था। उनके शरीर ज्यादा सुगठित थे। उनका शरीर-बल मुझसे बहुत ज्यादा था। वह निर्भय थे। इन मित्रके पराक्रम मुझे मुग्ध कर लेते। वह जितना चाहें दौड़ सकते। गति भी बहुत तेज थी। बहुत लंबा और ऊंचा कूद सकते थे। मार सहनेकी शक्ति भी वैसी ही थी। इस शक्तिका प्रदर्शन भी वह समय-समय पर करते। अपने अंदर जो सामर्थ्य नहीं होता उसे-दूसरेमें देखकर मनुष्य को अवश्य आश्चर्य होता है। वैसा ही मुझे भी हुआ। आश्चर्यसे मोह पैदा हुआ। मुझमें दौड़ने-कूदने की शक्ति नहींके बराबर थी। मेरे मनने कहा-"इन मित्रके समान बलवान मैं भी बन जाऊं तो क्या बहार हो?"

फिर मैं डरपोक भी बड़ा था। चोर, भूत, सांप आदिके भयसे सदा घिरा रहता। इन भयोंसे मैं घबराता भी बहुत। रातमें कहीं अकेले जानेकी हिम्मत न होती। अंधेरेमें तो कहीं न जाता। बिना चिरागके सोना प्रायः असंभव था। कहीं यहांसे भूत-पिशाच निकलकर न आ जायं, वहांसे चोर और उधरसे साँप न आ घुसे-यह डर बना रहता, इसलिए रोशनी जरूर रखता। इधर अपनी पत्नी के सामने भी, जो कि पास ही सोती और अब कुछ-कुछ युवती हो चली थी, ये भयकी बातें करते हुए संकोच होता था। क्योंकि मैं इतना जान चुका था कि वह मुझसे अधिक हिम्मतवाली है, इस कारण मैं शरमाता था। उसे सांप वगैरहका भय तो कहीं छूतक नहीं गया था, अंधेरेमें अकेली चली जाती। मेरी इन कमजोरियोंका हाल उन मित्रको मालूम था। वह तो मुझसे कहा करता कि मैं जीते सांपकों हाथसे पकड़ लेता हूं। चोरसे तो वह डरता ही न था, न भूत-प्रेतोंको ही मानता था। मतलब यह कि उसने यह बात मेरे मनमें जमा दी कि यह सब मांसाहारका प्रताप है।

इन दिनों नर्मद कविकी यह कविता स्कूलमें गाई जाती-

अंग्रेजो राज करे, देशी रहे दबाई,
देशी रहे दबाई, जोने बेना शरीर भाई,

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पेलो पांच हाथ पूरो, पूरो पांचसे ने।[१]

इन सबका मेरे दिलपर बड़ा असर हुआ। मैं राजी हो गया। मैं मानने लगा कि मांसाहार अच्छी चीज है। उससे मैं बलवान् और निर्भय बनूंगा। सारा देश यदि मांस खाने लगे, तो हम अंग्रेजोंको हरा सकते हैं।

मांसाहारकी शुरूआतका दिन तय हुआ।

इस निश्चय-इस प्रारंभ-का अर्थ सब पाठक न समझ सकेंगे। गांधी-परिवार वैष्णव-संप्रदायका अनुयायी था। माता-पिता कट्टर वैष्णव माने जाते थे। हमेशा वैष्णव मंदिर जाते। कितने ही मंदिर तो हमारे कुटुंबके ही गिने जाते। फिर गुजरातमें जैनसंप्रदायका भी बहुत जोर था। उसका असर हर जगह और हर काममें पाया जाता था। इसलिए मांसाहारके प्रति जो विरोध-तिरस्कार गुजरातमें और श्रावकों तथा वैष्णवोंमें दिखाई पड़ता है, यह हिंदुस्तानमें या सारी दुनियामें कहीं नहीं दिखाई पड़ता। ये थे मेरे संस्कार।

फिर माता-पिताका मैं परम भक्त ठहरा। मैं मानता ही था कि यदि उन्हें मेरे मांसाहारका पता लग जायगा तो वे तो बे-मौत ही प्राण छोड़ देंगे। जान-अनजानमें सत्यका भी सेवक तो मैं था ही। पर यह नहीं कह सकता कि यह ज्ञान मुझे नहीं था कि यदि मांस खाने लगा तो माता-पिताके सामने झूठ बोलना पड़ेगा।

ऐसी स्थितिमें मेरा मांस खानेका निश्चय, मेरे लिए बड़ी गंभीर और भयंकर बात थी।

परंतु मैं तो सुधार करना चाहता था। मांस शौकके लिए नहीं खाना चाहता था। न स्वादके लिए मांसाहारका श्रीगणेश करना था। मैं तो बलवान, निर्भय, साहसी होना चाहता था। दूसरोंको ऐसा बननेकी प्रेरणा करना चाहता था और फिर अंग्रेजोंको हराकर भारतवर्ष को स्वतंत्र करना चाहता था। 'स्वराज्य' शब्द उस समय नहीं सुन पड़ता था। कहना चाहिए, इस सुधारकी उमंगमें उस


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  1. भाव यह है कि अंग्रेज इसी कारण हट्टे-कट्टे हैं और हमपर राज्य करते हैं कि वे मांस खाते हैं, और हिंदुस्तानी इसीलिए मुर्दा बने हुए हैं कि वे मांसाहार नहीं करते।-अनु.