सत्य के प्रयोग/ धर्मकी समस्या

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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आत्म-कथा : भाग ४ सामने उनका एक ढेर रख दिया और कहा कि जितने सिला सको, उतने सिलाकर मुझे दे देना। मैंने उनकी इच्छाको स्वागत करते हुए घायलोंकी शुश्रूषाको उस ताल के दिनोंमें जितने कपड़े तैयार हो सके उतने करके दे दिय । धर्मकी समस्या बुद्धमें काम करने के लिए हम कुछ लोगोंने सभा करके जो अपने नाम सरकारको भेजे, इसकी खबर दक्षिण अफीका पहुंचते ही वहां से दो सार मेरे नाम अाये । इनमें से एक पोलकका था। उन्होंने पूछा था--- "आपका यह कार्य अहिंसा-सिद्धांतके खिलाफ तो नहीं है ? | मैं ऐसे तार की आशंका कर ही रहा था; क्योंकि 'हिंद स्वराज्य में मैंने इस विषयकी चर्चा की थी और दक्षिण अफ्रीकानें तो मित्रोंके साथ उसकी चर्चा निरंतर हुआ ही करती थी । हम सब इस बातको मानते थे कि युद्ध अनीति-मय हैं । ऐसी हालतमें और जबकि मैं अपने पर हमला करनेवालेपर भी मुकदमा चलानेके लिए तैयार नहीं हुआ था तो फिर जहां दो राज्यों में युद्ध चल रहा हो और जिसके भले या बुरे होने का मुझे पता न हो उसमें में सहायता कैसे कर सकता हूं, यह प्रश्न था । हालांकि मित्र लोग यह जानते थे कि मैंने वोअर-संग्राममें योग दिया था तो भी उन्होंने यह मान लिया था कि उसके बाद मेरे वित्रारोंमें परिवर्तन हो गया होगा । और बात दरअसल यह थी कि जिस विचार-सरणिके अनुसार मैं बोअरयुद्धमें सम्मिलित हुआ था उसीका अनुसरण इस समय भी किया गया था । मैं ठीक-ठीक देख रहा था कि युद्धमें शरीक होना अहिंसाके सिद्धांतके अनुकूल नहीं है, परंतु बात यह है कि कर्तव्यका भान मनुष्यको हमेशा दिनकी तरह स्पष्ट नहीं दिखाई देता । सत्यके । पुजारीको बहुत बार इस तरह गोते खाने पड़ते हैं । अहिंसा एक व्यापक वस्तु है। हम लोग ऐसे पामर प्राणी हैं, जो हिंसाकी होलीमें फंसे हुए हैं। जीवो जीवस्य जीवनम्” यह बात असत्य नहीं है। मनुष्य एक क्षण भी बाह्य हिंसा किये बिना नहीं जी सकता । खाते-पीते, बैठते-उठते, तमाम [ ३७४ ]________________

अध्याय ३९ : नेकौं समस्या क्रियाशोंमें इच्छासे यह अनिच्छाले कुछ-न-कुछ हिंसा वह करता ही रहता है । यदि इस हिंसा छूट जानेके वह सहान् प्रयास करता हो, उसकी भावनामें केवल अनुकंपा हो, वह सूक्ष्म जंतुका भी नाश न चाहता हो और उसे बचानेका यथाशक्ति प्रयास करता हो तो समझना चाहिए कि वह अहिंसाका पुजारी है। उसकी प्रवृत्तिमें निरंतर संयमकी वृद्धि होती रहेगी, उसकी करुणा निरंतर बढ़ती रहेगी, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि कोई भी देवधारी बाह्य हिंसाले सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता । फिर अहिंसाके पेटमें ही अद्वैत भावनाका भी समावेश हैं । और यदि प्राणिमात्रमें भेद-भाव हो तो एक्के पापका असर दूसरेपर होता है और इस कारण भी मनुष्य हिंसासे सोलहों आना अछूता नहीं रह सकता । जो मनुष्य समाजमें रहता है वह, अनिच्छा ही क्यों न हो, मनुष्य-समाजको हिंसाका हिस्सेदार बनता है। ऐसी दशामें जब दो राष्ट्रोंमें युद्ध हो तो अहिंसाके अनुयायी व्यक्तिका यह धर्म है कि वह उस युद्धको रुकवाये । परंतु जो इस धर्मका पालन न कर सके, जिसे विरोध करने की सामर्थ्य न हो, जिसे विरोध करनेका अधिकार में प्राप्त हुआ हो, वह युद्ध-कार्यमें शामिल हो सकता है और ऐसा करते हुए भी उसमें से अपनेको, अपने देशको और संसारको निकालनेकी हार्दिक कोशिश करता है । | ॐ चाहता था कि अंग्रेजी राज्यके द्वारा अपनी, अर्थात् अपने राष्ट्रकी, स्थितिका सुधार करू । पर मैं तो इंग्लैंडमें बैठा हुआ इंग्लैंडकी नौ-सेनासे सुरक्षित था । उस बलका लाभ इस तरह उठाकर मैं उसकी हिंसकता सीधे-सीधे भाग हो रहा था। इसलिए यदि मुझे इस राज्यके साथ किसी तरह संबंध रखना हो, इस साम्राज्यके झंडे के नीचे रहना हो तो या तो मुझे युद्धका खुल्लभल्ला विरोध करके जबतक उस राज्यकी युद्ध-नीति नहीं बदल जाय तबतक सत्याग्रह-शास्त्रके अनुसार उसका बहिष्कार करना चाहिए, अथवा भंग करने योग्य कानूनोंका सविनय भंग करके जेलका रास्ता लेना चाहिए, या उसके युद्ध-कार्य में शरीक होकर उसका मुकाबला करने की सामर्थ्य और अधिकार प्राप्त करना चाहिए । विरोधक शक्ति मेरे अंदर थी नहीं, इसलिए मैंने सोचा कि युद्ध में शरीक होने एक रास्ता ही मेरे लिए खुला था । [ ३७५ ]________________

आत्म-कथा : ४ग ४ जो मनुष्य बंदूक थारा करता है और जो उसकी सहायता करता है, दोनोंमें अहिंसाकी दृष्टिसे कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता । जो आदमी डाकुओंकी टोल में उसकी आवश्यक सेवा करने, उसका भार उठाने, जब वह डाका डालता हो तव उसकी चौकीदारी करने, जब वह घायल हो तो उसकी सेवा करनेका काम करता है, वह उस डकैतीके लिए उतना ही जिम्मेदार है जितना कि खुद वह डाकू । इस दृष्टिसे जो मनुष्य युद्ध में घायलोंकी सेवा करता है, वह युद्धके दोषोंसे मुक्त नहीं रह सकता ।। . पोलकका तार आनेके पहले ही मेरे मनमें यह सब विचार उठ चुके थे । उनका तार आते ही मैंने कुछ मित्रोंसे इसकी चर्चा की। मैंने अपना धर्म समझकर युद्ध में योग दिया था और आज भी मैं विचार करता हूं तो इस विचार-सरणिमें मुझे दोष नहीं दिखाई पड़ता । ब्रिटिश-सम्रिाज्यके संबंधों उस समय जो विचार मेरे थे उनके अनुसार ही मैं युद्धमें शरीक हुआ था और इसलिए मुझे उसका कुछ भी पश्चाताप नहीं है । | मैं जानता हूं कि अपने इन विचारोंका औचित्य मैं अपने समस्त मित्रोंके सामने उस समय भी सिद्ध नहीं कर सका था। यह प्रश्न सूक्ष्म है। इसमें मत-भेदके लिए गुंजाइश है। इसीलिए अहिंसा-धर्मको माननेवाले और सूक्ष्म रीतिसे उसका पालन करनेवालोंके सामने जितनी हो सकती है खोलकर मैंने अपनी राय पेश की है। सत्य का आग्रही व्यक्ति रूढ़िका अनुसरण करके ही हमेशा कार्य नहीं करता, न वह अपने विचारोंपर हठ-पूर्वक आरूढ़ रहता है । वह हमेशा उसमें दोष होनेकी संभावना मानता है और उस दोषका ज्ञान हो जाने पर हर तरहकी जोखिम उठाकर भी उसको मंजूर करता है और उसका प्रायश्चित भी करता है । सत्याग्रहकी चकमक इस तरह अपना धर्म समझकर मैं युद्धमें पड़ा तो सही, पर मेरे नसीबमें | यह नहीं बदा था कि उसमें सीधा भाग ले, बल्कि ऐसे नाजुक मौकेपर सत्याग्नहतक

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