सत्य के प्रयोग/ लड़ाई में भाग

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अआत्म-कैथर : भाग ४ के तौरपर इंग्लैंडमें बैरिस्टरीकी लालमके लिए भेजा था कि जिससे दक्षिण अफ्रीका में आकर मेरा स्थान ले लें । उनका खर्च डाक्टर' प्राशजीवनदास मेहता देते थे । उनके और उनके मार्फत डॉक्टर जीवाज मेहता इत्यादिके साथ, जो विलायत पढ़ रहे थे, इस विषयपर सलाह-मशवरा किया। विलायतमें उस समय जो हिंदुस्तानी' लोग रहते थे उनकी एक सभा की गई और उसमें मैने अपने विचार उपस्थित किये । मेरा यह मत हुआ कि विलायतमें रहनेवाले हिंदुस्तानियोंको इस लड़ाई अपना हिस्सा देना चाहिए । अंग्रेज विद्यार्थी लड़ाई सेवा करनेकर अपना निश्चय प्रकाशित कर चुके हैं। हम हिंदुस्तानियों को भी इससे कम सहयोग न देना चाहिए। मेरी इस बातके विरोध में इस सभा में बहुतेरी दलीलें पेशकी गई। कहा गया कि हमारी और अंग्रेजोंकी परिस्थितिमें हाथी-घोड़े जितना अंतर है-- एक गुलाम' दूसरा सरदार। ऐसी स्थिति गुलाम अपने प्रभुकी विपत्तिमें उसे स्वेच्छा-पूर्वक कैसे मदद कर सकता है ? फिर जो गुलाम अपनी गुलामी । छूटना चाहता है उसका धर्म क्या यह नहीं कि प्रभुक विपत्तिसे लाभ उठाकर । अपना छुटकारा कर लेनेकी कोशिश करे ? पर यह दलील मुझे उस समय कैसे पढ़ सकती थी ? यद्यपि मैं दोनों की रिश्रतिको महान् अंतर समझ सका था, फिर भी मुझे हमारी स्थिति बिलकुल गुलाकी स्थिति नहीं मालूम होती थी। उस समय मैं यह समझे हुए था कि भेज ( इन-इतिही अपेक्षा कितने है। अंग्रेज अधिकारियोंका दोध अधिक था और उस दोपको हम प्रेमसे दूर कर सकते हैं। मेरा यह खयाल था कि यदि अंग्रेजोके द्वारा और उनकी सहायतासे हम अपनी स्थितिका सुधार चाहते हों तो हमें उनकी विपत्तिके समय सहायता पहुंचाकर अपनी स्थिति सुधारनी चाहिए। ब्रिटिश शासन-पद्धतिको मैं दोषमय तो मानता था, परंतु प्राजकी तरह वह उस समय' असा नहीं मालूम होती थी । अतएव आज जिस प्रकार वर्तमान सन-पद्धपिरले मेरा विश्वास उठ गया है। और आज मैं अंग्रेजी राज्यकी सहायता नहीं कर सकता, इस तरह उस समय जिन लोगोंका विश्वास इस पद्धतिपरसे ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी अधिकारियोंपरसे भी उठ चुका था, वे मदद करने के लिए कैसे तैयार हो सकते थे ? उन्होंने इस समयको प्रजाकी मांगें जोरके साथ पेश करने और शासन सुधार करनेकी आवाज उठाने के लिए बहुत अनुकूल पाया। किंतु मैंने इसे अंग्रेजों [ ३७२ ]________________

अध्याय ३८ । (ईमें भाग की अपत्तिका समय समझकर मांगें पेश करना उचित न समझा और जबतक लड़ाई चल रही है तबलक हक मांगना भुल्तवी रखने के संयममें सभ्यता और दीर्घ-दृष्टि समझी । इसलिए मैं अपनी सलाहपर मजबूत बना रहा और कहा कि जिन्हें स्वयं-सेदको नाम लिखादा हो वे लिखा दें । नाम अच्छी संख्यामें आये । उनमें लगभग सब प्रांतों और सब धर्मों के लोगोंके नाम थे ।। फिर लार्ड क्रूके नाम एक पत्र भेजा गया । उसमें हम लोगोंने अपनी यह इच्छा और तैयारी प्रकट की कि हिंदुस्तानियोंके लिए घायल सिपाहियोंकी सेवा-शुश्रुषा करनेकी तालैमकी यदि आवश्यकता दिखाई दे तो उसके लिए हम तैयार हैं। कुछ सलाह-मशवरा करने के बाद लार्ड ऋने हम लोगोंका प्रस्ताव स्वीकार किया और इस बात के लिए हमारा अहसान माना कि हमने ऐसे ऐन मौकेपर साम्प्राज्यकी सहायता करने की तैयारी दिखाई ।। जिन-जिन लोगोंने अपने नाम लिखवाये थे उन्होंने प्रसिद्ध डाक्टर केंटलीकी देख-रेखमें घायलोंकी शुश्रूषा करनेकी प्राथमिक तालीम लेना शुरू किया । छ: सप्ताहका छोटासा शिक्षा-क्रम रखा गया था और इतने समय में घायलोंको प्राथमिक सहायता करनेकी सब विधियां सिखा दी जाती थीं। हम कोई ६० स्वयंसेवक इस शिक्षा-क्रममें सम्मिलित हुए । छ: सप्ताह बाद परीक्षा ली गई तो उसमें सिर्फ एक ही शख्स फेल हुआ । जो लोग पास हो गये उनके लिए सरकारकी ओरसे कवायद वगैरा सिखाने का प्रबंध हुआ । कवायद सिखानेका भार कर्नल बेकरको सौंपा गया और वह इस दुकड़ीके मुखिया बनाये गये ।। | इस समय विलायतका दृश्य देखने लायक था। युद्धसे लोग घबराते नहीं थे, बल्कि सब उसमें यथाशक्ति मदद करने के लिए जुट पड़े। जिनका शरीर हृट्टा-कट्टा थो, वे नवयुवक सैनिक शिक्षा ब्रहण करने लगे । परंतु अशक्त बुढे और स्त्री अादि भी खाली हाथ न बैटे रहे। उनके लिए भी वे चाहें तो काम था ही। वे युद्धमें घायल सनिकके लिए कपड़ा इत्यादि सीने-काटनेका काम करने लगे । वहां स्त्रियोंका 'लाइसियम' नामक एक क्लब है । उसके सभ्योंने सैनिक-विभागके लिए आवश्यक कपड़े यथा-शक्ति बनाने का जिम्मा ले लियः । सरोजिनी देवी भी इसकी सभ्य थीं। उन्होंने इसमें खूब दिलचस्पी ली थी । उनके साथ मेरा यह प्रथम ही परिचय था। उन्होंने कपड़े ब्योंत व काटकर मेरे

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