सत्य के प्रयोग/ धर्म-निरीक्षण

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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पड़ा था। उसने गिरमिटियों को पूरा-पूरा योग देना पड़ा। कितनों को ही गोली का शिकार होना पड़ा। दस हजार से ऊपर हिंदुस्तानियों कों जेल भोगनी पड़ी।

पर अंत मैं सत्य विजयी हुआ। हिंदुस्तानियों की तापश्चार्य के रूप में सत्य प्रत्‍याछ पता हुआ है उसके लिए अद अदा, धीरज र सतत आंदोलनकी आवश्यकता थी। यदि लोग हारकर बैठ जाते, कांग्रेस लड़ाई को भूल जाती, और कर को अनिवार्य समझकर घुटने टेक देती, तो आज तक यह कर गिरमिटियों लिया जाता होता इस अपशयक टीका सारे दक्षिण अफ्रीका के भारतवासियों को तथा सारे भारतवर्ष को लगता।

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धर्म-निरीक्षण

इस प्रकार जो मैं लोक-सेवा मैं तल्लीन हो गया था, उसका कारण था आत्म-दर्शन की अभिलाषा ! यह समझकर कि सेवा के द्वारा ही ईश्वर की पहचान हो सकती है, मैंने सेवा-धर्म स्वीकार किया था। मैं भारत की सेवा करता था, क्योंकि वह मुझे सहज प्राप्त थी, उसमें मेरी रुचि थी । उसकी खोज मुझे न करनी पड़ी थी। मैं तो सफर करने, काठियावाड़ के षड्यंत्रों से छूटने और आजीविका प्राप्त करने के लिए दक्षिण अफ्रीका गया था; पर पड़ गया ईश्वर की खोजमें --- आत्म-दर्शन के प्रयत्न में । ईसाई-भाइयों ने मेरी जिज्ञासा बहुत तीव्र कर दी थी । वह किसी प्रकार शांत न हो सकती थी और मैं शांत होना चाहता भी तो ईसाई भाई-बहन ऐसा न होने देते; क्योंकि डरबन में मि० स्पेंसर वाल्टन ने, जोकि दक्षिण अफ्रीका के मिशन के मुखिया थे, मुझे खोज निकाला। मैं भी उनका एक कुटुंबीजन सा हो गया । इस संबंध का मूल हैं प्रिटोरिया में उनसे हुआ समागम। मि वाल्टन का तर्ज कुछ और ही था । मुझे नहीं याद पड़ता कि उन्होंने कभी ईसाई बनने की बात मुझसे कहीं हो; बल्कि उन्होंने तो अपना सारा जीवन खोलकर मेरे सामने रख दिया, अपना तमाम काम और हलचल के निरीक्षण का अवसर मुझे दे दिया। उनकी धर्मपत्नी भी बड़ी नम्र, परंतु तेजस्वी थीं।

मुझे इस दंपती की कार्य-पद्धति पसंद आती थी; परंतु हमारे अंदर जो [ १८० ]
मौलिक भेद थे, उन्हें हम दोनों जानते थे। चर्चा द्वारा उन भेद को मिटा देना असंभव था ! जहाँ-जहाँ उदारता, सहिष्णुता और सत्य है, वहां भेद भी लाभ के होते हैं। मुझे इस दंपती की नग्नता, उच्च-शीलता और कार्य-परायण्ता बड़ी प्रिय थी। इससे हम बार-बार मिला करते।

इस संबंध ने मुझे जागरुक कर रक्खा । धार्मिक पठन के लिए जो फुरसत प्रिटोरिया में मुझे मिल गई थी वह तो अब असंभव थी; परंतु जो-कुछ भी समय मिल जाता उसका उपयोग में स्वाध्याय करता; मेरा पत्र-व्यवहार बराबर जारी थी। रायचंदभाई मैरी पथ-प्रदर्शन कर रहे थे। किसी भित्र ने मुझे इस संबंध नर्मदाशंकर की 'धर्मविचार' नामक पुस्तक भेजी। उसकी प्रस्तावना से मुझे सहायता मिली है नर्मदाशंकर के विलासी जीवन की बातें सुनी थीं। प्रस्तावना में उनके जीवन में हुए परिवर्तनों का वर्णन मैंने पढ़ा और उसने मुझे आकर्षित किया, जिससे कि उस पुस्तक के प्रति मेरा आदर-भाव बढ़ा। मैंने उसे ध्यानपूर्वक पढ़ी। मैक्समूलर की पुस्तक 'हिंदुस्तान से हमें क्या शिक्षा मिलती है ? ' मैंने बड़ी दिलचस्पी से पढ़ी। थियोसोफिकल सोसाइटी द्वारा प्रकाशित उपनिषदों का अनुवाद पढ़ा। उससे हिंदू-धर्म के प्रति मेरा दर बढ़ा है इसकी खूब में समझने लगा, परंतु इससे दुसरे धर्मो के प्रति मेरे मन में अभाव न उत्पन्न हुआ। वाशिंगटन इर्विंग-कृत मुहम्मद का चरित और कार्लाइल-रचित 'मुहम्मद-स्तुति ' पढ़ी। फलतः पैगंबर साहब के प्रति भी मेरा दर बढ़ा। 'जरथुस्त के वचन' नामक पुस्तक भी पढ़ी है।

इस प्रकार मैंने भिन्न-भिन्न संप्रदायों कम-ज्यादा ज्ञान प्राप्त किया । इससे आत्म-निरीक्षण बढ़ा । जो-कुछ पढ़ा या पसंद हुआ उसपर चलने की आदत बढ़ी। इससे हिंदू-धर्म में वर्णित प्राणायाम-विषयक कितनी ही क्रियाये, पुस्तके पढ़कर में जैसी समझ सका था, शुरू की, पर कुछ सिलसिला जमा नहीं । मैं आगे न चढ़ सका। सोचा कि जब भारत लौटुंगा तब किसी शिक्षक से सीख लूंगा, पर वह अबतक पूरा न हो पाया ।

टाल्स्ट्राय की पुस्तकों का स्वाध्याय बढ़ाया। उनकी ‘गोस्पेल इन

गुजरात के एक प्रसिद्ध कवि
 
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ब्रिफ','व्हाट-टू डु' इत्यादि पुस्तकों ने मेरे दिलपर गहरी छाप ली। विश्द में मनुष्य को कहां तक ले जाता है, यह हैं उससे अधिकाधिक समझने लगा।

इन्हीं दिनों एक दूसरे ईसाई-कुटुंब के साथ मेरा संबंध बधा। उन लोगों की इच्छा से मैं वेस्लियन गिरजा में हर रविवार को जाता। प्रायः हर रविवार को मेरा शामका जाना भी उन्हीं के यहां होता। वेस्लियन गिरजा का मुझपे अच्छा असर न हुआ। वहां जो प्रवचन हुआ करते थे वे मुझे नीरस मालूम हुए। उपस्थित जन में मुझे भक्ति-भाव न दिखाई दिया। ग्यारह बजे हम होने वाले ग्रह मंडली मुझे भक्तों की नहीं, बल्कि कुछ तो मनोबिनोद के लिए और कुछ प्रथा को प्रभाव एकत्र होनेवाले संसारी जीवों की टोली मालूम हुई। कभी तो इस सभा में बरबस मुझे नींद के झोके आने लगते, जिससे मैं लज्जित होता; पर जब मैं अपने आसपासवालों को भी झोके खाते देखता, तो मेरी लज्जा हल्की पड़ जाती। अपनी यह स्थिति मुझे अच्छी न मालूम हुई। अंतको ने गिरजा जाना ही छोड़ दिया !

जिस परिवार के यहां मैं हर रविवार को जाता था, वहां भी मुझे इस तरह से छुट्टी मिली। गृह-स्वामिनी भोली, भाली, परंतु संकुचित विचारवाली मालूम हुई। उसके साथ हर वक्त कुछ-न-कुछ धार्मिक चर्चा हुआ ही करती है। उन दिनों में घर पर ‘लाइट ऑफ एशिया' पढ़ रहा था। एक दिन हम ईसा और बुद्ध की तुलना के फेरमें पड़ गये--

“बुद्ध की दया को देखिए। मनुष्य-जाति से आगे बढ़कर वह दूसरे प्राणियों तक जा पहुंची। उसके कंधे पर किलोल करनेवाले मेमने का दृश्य आंखों के, सामने आते ही आपको दृश्य प्रेम से नहीं उमड़ पड़ता ? प्राणिमात्र कै प्रति यह प्रेम मुझे ईसा के जीवन में कहीं दिखाई नहीं देता ।”


मेरे इस कथन से उस वहन को दुःख हुआ। मैं उनकी भावना को समझ गया वह अपनी बात अगे न चलाई ! बाद को हम भोजन करने गये। उसका कोई पांच साल का हंसमुख बच्चा हमारे साथ था। बालक मेरे साथ होने पर मुझे फिर किस बात की जरूरत ? उसके साथ मैंने दोस्ती तो पहले ही कर ली थी। मैंने उसकी थाली में पड़े मांस के टुकड़े का मजाक किया और अपनी रकाबी में शोभित

‘मुण्ड़ल' से इसका अनुवाद ' क्या करें ? ' नामसे काशित हुआ है।
 
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मौलिक भेद थे, उन्हें हम दोनों जानते थे। चर्चाद्वारा उन भेदों को मिटा देना असंभव था। जहां-जहां उदारता, सहिष्णुता और सत्य है, वहां भेद भी लाभ दायक होते हैं। मुझे इस दंपती की नग्नता, उद्यमशीलता और कार्य-परायणता बड़ी प्रिय थी। इससे हमें बार-बार मिला करते।

इस संबंधने मुझे जागरुक कर रखा। धार्मिक पठन के लिए जो फुरसत प्रिटोरिया में मुझे मिल गई थी वह तो अब असंभव थी; परंतु जो-कुछ भी समय मिल जाता उसका उपयोग में स्वाध्याय करता; मेरा पत्र-व्यवहार बराबर जारी था। रायचंदभाई मेरा पथ-प्रदर्शन कर रहे थे। किसी मित्र ने मुझे इस संबंध नर्मदाशंकर की 'धर्मविचार' नामक पुस्तक भेजी। उसकी प्रस्तावना से मुझे सहायता मिली। नर्मदाशंकर के विलासी जीवन की बातें सुनीं थी। प्रस्तावना में उनके जीवन में हुए परिवर्तनों का वर्णन मैंने पढ़ा और उसने मुझे आकर्षित किया, जिससे कि उस पुस्तक के प्रति मेरा आदर-भाव बढ़ा। मैंने उसे ध्यानपूर्वक पढ़ा। मैक्समूलर की पुस्तक 'हिंदुस्तान से हमें क्या शिक्षा मिलती है ? 'मैंने बड़ी दिलचस्पि से पढ़ी। थियोसोफिकल सोसाइटी द्वारा प्रकाशित उपनिषदों का अनुवाद पढ़ा। उससे हिंदू-धर्म के प्रति मेरा आदर बढा़। उसकी खुबी मैं समझने लगा, परंतु इससे दुसरे धर्म के प्रति मेरे मन में अभाव न उत्पन्न हुआ। वाशिंगटन इरविंग-कृत मुहम्मद का वरित और कार्लाइल-रचित 'मुहम्मद-स्तुति' पढ़ी। फलतः पैगंबर साहब के प्रति भी मेरा आदर बढ़ा। जरथुस्त के वचन' नामक पुस्तक भी पढी़।

इस प्रकार मैंने भिन्न-भिन्न संप्रदायों का कम-ज्यादा ज्ञान प्राप्त किया। इससे आत्म-निरीक्षण बढ़ा । जो-कुछ पढ़ा या पसंद हुआ उसपर चलने की आदत बढ़ीं। इससे हिंदू-धर्म में वर्णित प्राणायाम-विषयक कितनी ही क्रियायें, पुस्तकें पढ़कर मैं जैसी समझ सका था, शुरू कीं, पर कुछ सिलसिला जमा नहीं। में आगे न पढ़ सका। सोचा कि जब भारत लौटुंगा तब किसी शिक्षक से सीख लुगा, पर वह अबतक पूरा न हो पाया।

टाल्स्ट्राय की पुस्तकों का स्वाध्याय, बढ़ाया। उनकी गोस्पेल इन

गुजरातके एक प्रसिद्ध कवि ।
 
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ब्रीफ','व्हाट-टू डु' इत्यादि पुस्तकों ने मेरे दिलपर गहरी छाप डाली। विश्व प्रेम मनुष्य को कहां तक ले जाता है, यह मैं उससे अधिकाधिक समझने लगा।

इन्हीं दिनों एक दूसरे ईसाई-कुटुंब के साथ मेरा संबंध बंधा। उन लोगों की इच्छा से में वेस्लियन गिरजा हर रविवार को जाता। प्रायः हर रविवार को मेरा शामका खाना भी उन्हीं के यहां होता । वेस्लियन गिरजा का मुझपर अच्छा असर न हुआ। वहां जो प्रवचन हुआ करते थे वे मुझे नीरस मालूम हुए। उमन्ति जनों में मुझे भक्ति-भाव न दिखाई दिया । ग्यारह बजे एकच होने वाली यह भंडली मुझे भक्तों की नहीं, बल्कि कुछ तो मनोविनोदके लिए और कुछ प्रथा क्रे प्रभाव के एकत्र होनेवाले संसारी जीवों की टोलीं मालूम हुई । कभी तो इस सभा में बरबस मुझे नींद के झोके आने लगते, जिससे में लज्जित होता; पर जब मैं अपने आसपासवालों को भी झोके खाते देखता, तो मेरी लज् हलकी' पड़ जाती । अपनी यह स्थिति मुझे अच्छी न मालूम हुई। अंतको मैंने गिरजा जाना ही छोड़ दिया ।

जिस परिवार के यहां में हर रविवार को जाता था, वहां से भी मुझे इस तरह से छुट्टी मिली । गृह-स्वामिनी भोली, भाली, परंतु संकुचित विचारवाली मालूम हुई । उसके साथ हर वक्त कुछ-न-कुछ धार्मिक चर्चा हुआ ही करती । उन दिनों में घरपर ‘लाइट ऑफ एशिया' पढ़ रहा था। एक दिन हम ईसा और बुद्ध की तुलना के फेर में पड़ गये..

“बुद्ध की दया को देखिए। मनुष्य-जाति से आगे बढ़कर वह दूसरे प्राणियो तक जा पहुंची। उसके कंधे पर किलोल करने वाले मेमने का दृश्य आंखो के मन भात ही आपका दृश्य प्रेम नहीं उमड़ पड़ता ? प्राणिमात्र के यह प्रेम मुझे ईसा के जीवन में कहीं दिखाई नहीं देता।

मेरे इस कथन से उस बहन को दुःख हुआ। मैं उनकी भावना को समझ गया व अपनी बात आगे न चलाई। बाद को हम भोजन करने गये। उसका कोई पांच साल को हंस मुख बच्चा हमारे साथ था । बालक मेरे साथ होने पर मुझे फिर किस बात की जरूरत ? उसके साथ मैंने दोस्ती तो पहले ही कर ली थी । मैंने उसकी थाली पड़े मांस के टुकड़े का मजाक किया और अपनी रकाबी में शोभित

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१‘सुण्डल' से इसका अनुवाद ' क्या करें ? ' नाभसे प्रकाशित हुआ है।
 
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नासपाती की स्तुति शुरू की ! भोलाभाला बालक रीझा और नासपाती की स्तुति मैं शरीक हो गया।

परंतु माता ? वह तो बेचारी दु:खों मैं पड़ गई।

मैं चैता। चुप हो रहा और बात का विषय बदल दिया।

दूसरे सप्ताह में सावधान रहकर उसके यहां गया तो, पर मेरा पांव मुझे :भारी मालूम हो रहा था । अपने-आप उसके यहां जाना बंद कर देना मुझे न सुझा, व उचित मालुम हुआ; पर उस भली बनने ही मेरी कठिनाई हल कर दी। वह बोली--“मि० गांधी, अप बुरा न मानें, अपकी सोहबत का असर मेरे लड़के पर बुरा होने लगा है। अब वह रोज मांस खाने में आनाकानी करने लगा है। और उस दिन की आप की बातचीत की याद दिलाकर फल मांगता हैं ! मुझे यह गवारा न हो सकेगा। मेरा बच्चा यदि मांस खाना छोड़ दे तो चाहे बीमार न हो; पर कमजोर जरूर हो जायगा। मैं यह कैसे देख सकती हूं ? आपकी चर्चा हम प्रौढ़ लोगों में तो फायदेमंद हो सकती है; पर बच्चों पर तो उसका असर बुरा ही पड़ता है।"

"मिसेज--- मुझे खेद है। आपके,---माता--मनोभाव को मैं समझ सकता हूं। मेरे भी बाल-बच्चे हैं। इस अपत्ति का अंत आसानी से हो सकता है। मेरी बातचीत की अपेक्षा मेरे खान-पान का और उसको देखने का असर बालकों पर बहुत ज्यादा होता है। इसलिए सीधा रास्ता यह है कि अब से रविवार को मैं आपके यहां न आया करू। हमारी मित्रता मैं इससे किसी प्रकार फर्क न आवेगा।

  • मैं आपका अहसान मानती हूं।' बाई ने खुश होकर उत्तर दिया।
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गृह-व्‍यावस्था

बंबई तथा विलायत में मैने जो घर-गृहस्थी सजाई थी, उसमें और नेटाल में जो घर बसाना पड़ा उसमें भिन्नता थी। नेटाल में कितना ही खर्च तो महज प्रतिष्ठा के लिए मैं उठा रहा था। मैंने यह मान लिया था कि भारतीय बैरिस्टर और भारतीयों के प्रतिनिधि को हैसियत से नेटाल में मुझे अपनी रहन-सहन खर्चीली।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।