सत्य के प्रयोग/ गृह-व्यवस्था

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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रखनी चाहिए। इस कारण अच्छे मुहल्ले में बढ़िया घर लिया था। घर को सजाय भी अच्छी तरह था। खान-पान तो सादा था; परंतु अंग्रेज मित्रो को भोजन के लिए बुलाया करता था और हिंदुस्तानी साथियों को भी निमंत्रण दिया करता था, इसलिए आप ही खर्च और भी बढ़ गया था ।

नौकर की तंगी सभी जगह रहा करती है किसी को नौकर बनाकर रखना आजतक मैंने जाना ही नहीं।

मेरे साथ एक साथी था ! एक रसोइया भी रक्खा था। वह कुटुंबी ही बन गया था। दफ्तर के कारकुनों में से भी जो रक्खे जा सकते थे, उन्हें घर में ही रखा था।

मेरा विश्वास है कि यह प्रयोग ठीक सफल हुआ; परंतु मुझे संसार के कई अनुभव भी काफी मिले ।

वह साथी बहुत होशियार और मेरी समझ के अनुसार वफादार था; पर में उसे पहचान न सका । दफ्तर के एक कारकुन को मैंने घर में रखा था। इस साथी को उसकी ईर्ष्या हुई। उसने ऐसा जाल रचा कि जिससे मैं कारकुन पर शक करने लगे। यह कारकुन बड़ी अजाद तबीयत के थे। उन्होंने घर और दफ्तर दोनों छोड़ दिये। इससे मुझे दुःख हुआ। उनके साथ कहीं अन्याय न हुआ हो, यह खयाल भीतर-ही-भीतर मुझे नोच रहा था।

इसी बीच मेरे रसोइये को किसी कारण से दूसरी जगह जाना पड़ा। मैंने उसे अपने मित्र की सेवा-सुश्रूषा के लिए रखा था, इसलिए उसकी जगह दूसरा रसोइया लाया गया। बाद को मैंने देखा कि वह शख्स उड़ती चिड़िया भांपने वाला था; पर वह मुझे इस तरह उपयोगी हो गया, मानो मुझे उसकी जरूरत रही हो ।

इस रसोइये को रक्खे मुश्किल से दो-तीन ही दिन हुए होंगे कि इतने में उसने मेरे घर की एक भयंकर बुराई को ताड़ लिया, जो मेरे ध्यान में न आई थी, और उसने मुझे सचेत करने का निश्चय किया। मैं विश्वासशील और अपेक्षाकृत भला आदमी हूं, यह धारणा लोगों को हो रही थी, इस कारण रसोइये को मेरे ही घर में फैली गंदगी भयानक मालूम हुई।

मैं दोपहर भोजन के लिए दफ्तर से एक बजे घर जाता था। कोई बारह बजे होंगे कि वह रसोइया हांफता हुआ दौड़ा आया और मुझसे कहा [ १८६ ]

  • आपको अगर कुछ देखना हो तो अभी मेरे साथ घर चलिए।

मैंने कहा---' इसका क्या मतलब ? कही भी आखिर क्या बात है? ऐसे 'वक्त मेरे घर आने की क्या जरूरत, और देखना भी क्या है ?"

  • ना आओगे तो पछताओगे। आपको इससे ज्यादा नहीं कहना चाहता।" सोइया बोला।

उसकी दृढता ने मुझपर असर किया। अपने मुंशी को साथ लेकर घर गया। रसोइया आगे चला ।

घर पहुंचते ही वह मुझे दुमंजिले पर ले गया। जिस कमरे में वह साथी रहता था, उसकी और इशारा करके कहा--" इस कमरे को खोलकर देखो।'

अब मैं समझा, मैंने दरवाजा खटखटाया। जवाब क्या मिलता ? मैंने बड़े जोर से दरवाजा ठोंका। दीवार कांप उठी। दरवाजा खुला। अंदर एक बदचलन औरत थी। मैंने उससे कहा--- " बहन, तुम तो यहां से इसी दम चल दो । अब भूलकर यहां कदम मत रखना।"

साथी से कहा---' आज से आपका-सेरा संबंध टूटा। मैं अबतक खूब धोखे में रहा और बेवफा बना। मेरे विश्वास का बदला यही मिलना चाहिए था ?

साथ बिगड़ा। मुझे धमकी देने लगा----" तुम्हारी सब बातें प्रकट कर दूंगा !'

“मेरे पास कोई गुप्त बात है ही नहीं। मैंने जो-कुछ किया हो उसे खुशी से प्रकट कर देना; पर तुम्हारा संबंध आजसे खत्म है।

साथी अधिक गर्म हुआ ! मैंने नीचे खड़े मुंशी से कहा--" तुम जाओ; पुलिस सुपरिटेंडेंट से मेरा सलाम कहो और कहा कि मेरे एक साथी ने मेरे साथ दगा किया है। उसे मैं अपने घर में रखना नहीं चाहता। फिर भी वह निकलने से इन्कार करता है। मेहरबानी करके मदद भेजिए।"

अपराधी के बराबर दीन नहीं। मेरे इतना कहते ही वह ठंडा पड़ा है। माफी मांगी। आजिजी से कहा- सुपरिटेंडेंट के यहां अदमी ने भेजिए। और तुरंत घर छोड़ देना स्वीकार किया।

इस घटना ने ठीक समय पर मुझे सावधान किया। वह साथी मेरे लिए मोह-रूप और अनिष्ट था, यह बात अब जाकर मैं स्पष्ट रूप से समझ सका। [ १८७ ]
इस साथी को रखकर मैंने अच्छा काम करने के लिए बुरे साधन को अपनाया था। कड़वे-करेले की बेल मैं मैने सुगंधित बेले के फूल की आशा रखी थी। साथी का चाल-चलन अच्छा न था, फिर भी मैंने मान लिया था कि वह मेरे साथ बेवफा न होगा। उसे सुधारने का प्रयत्न करते हुए मुझे खूद छींटे लगते-लगते बचे। अपने हितैषियों की सलाह का मैंने अनादर किया। मोह ने मुझे अंधा बना दिया था।

यदि इस दुर्घटना से मेरी आंख न खुली होती, मुझे सत्य की खबर न पड़ी होती, तो संभव है कि मैं कभी वह स्वार्पण न कर सकता, जो आज कर पाया हूँ। मेरी सेवा हमेशा अधूरी रहती; क्योंकि यह साथी मेरी प्रगति को रोके बिना नहीं रहता। मुझे उसके लिए बहुतेरा समय देना पड़ता। मुझे अंधे रेमें रखने को, कुमार्ग में ले जाने की शक्ति उसमें थी। पर जाको राखे साइयां मार सके नहि कोय।' मेरी निष्ठा शुद्ध थी। इसलिए भूलें करते हुए भी मैं बन गया और मेरे पहले अनुभव ने ही मुझे सावधान किया है।

कौन जाने, ईश्वर ने ही उस रसोइये को प्रेरणा की हो ! वह रसोई बनाना न जानता था; परंतु उसके आये बिना मुझे कोई सजग न कर पाता। वह बाई पहली ही बार मेरे घर में न आई थी; परंतु इस रसोइये की तरह दूसरे की हिम्मत नहीं पड़ती; क्योंकि सब जानते थे कि मैं उस साथीपर बेहद विश्वास रखता था।

इतनी सब करके रसोइया उसी दिन और इसी क्षणं चला गया। उसने कहा----"में आपके यहां नहीं रह सकता ! आप ठहरे भले आदमी; यहां मुझ जैसो का काम नहीं। मैंने भी उससे रहने का आग्रह नहीं किया।

उस कारकुन पर शक पैदा कराने वाला यह साथी ही था, यह बात मुझे अब जाकर मालूम हुई। मैंने उस कारकुन के साथ न्याय करने का बहुत उधोग किया; पर मैं उसे पूरी तरह संतोष न दे सका। मुझे इस बात का सदा दु:ख रहा है। फूटा बरतन कितना ही झाला जाय, अह झाला हुआ ही माना जायगा; नया जैसा साबित न होने पायेगा।

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