सत्य के प्रयोग/ नगर-सुधार:अकाल फंड

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ २३८ ]सिंधी, सव हिंदुस्तानी है। सबने माना कि अब हिंदुस्तानियोंके दुःख अवश्य दूर हो जायंगे। गोरोंके बर्तावमें भी उसके बाद साफ-साफ फर्क नजर आने लगा ।

लड़ाई में गोरों से जो संबंध बंधा, वह मीठा था। हजारों ‘टामियों के सहवासमें हम लोग आये। वे हमारे साथ मित्र-भावसे व्यवहार करते और इस खयालसे कि हम उनकी सेवाके लिए हैं, हमारे उपकार मानते ।

मनुष्य-स्वभाव दुःखके समय कैसा पसीज जाता है, इसकी एक मधुर- स्मृति यहां दिये बिना नहीं रह सकता। हम लोग चीवली छावनी की ओर जा रहे थे । यह बही क्षेत्र था, जहां लार्ड राबर्ट्सके पुत्र लेफ्टनेंट रावको मर्मांतक गोली लगी थी। लेफ्टनेंट राबर्टसके शवको ले जानेका गौरव हमारी टुकड़ीको प्राप्त हुआ था । लौटते वक्त धूप कड़ी थी। हम कूच कर रहे थे सब प्यासे थे । पानी पीनेके लिए रास्तेमें एक छोटा-सा झरना पड़ा। सवाल उठा, पहले कौन पानी पीये। मैंने सोचा था कि 'टामियों के पी लेनेके बाद हम पियेंगे। 'टामियों ने हमें देखकर तुरंत कहा---' पहले आप लोग पी लें। हमने कहा--- 'नहीं, पहले माप पीयें।' इस तरह बहुत देरतक हमारे और उनके बीच मधुर आग्रहकी खींचातानी होती रही ।

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नगर-सुधार : अकाल-फण्ड

समाजके एक भी अंगका खराब बने रहना मुझे हमेशा अखरता रहता है। लोगोंकी बुराइयोंको ढककर उनका वचाव करना अथवा उन्हें दूर किये बिना अधिकार प्राप्त करना मुझे हमेशा अरुचिकर हुआ है। दक्षिण अफ्रीका- स्थित हिंदुस्तानियोंपर एक आक्षेप हुआ करता था। वह यह कि हिंदुस्तानी अपने घर-बार साफ-सुथरे नहीं रखते और बहुत मैले रहते हैं। बार-बार यह बात कही जाती थी। उसमें कुछ सचाई भी थी। मेरे वहां होनेके आरंभ-काल ही में मैंने उसे दूर करनेका विचार किया था। इस इलजामको मिटानेके लिए शुरूआतमें समाजके लब्धप्रतिष्ठ लोगोंके घरों में सफाई तो शुरू हो गई थी; परंतु [ २३९ ]घर-घर जाकर प्रचार करने का काम तो तभी शुरू हो पाया, जब डरबनम प्लेगकें प्रदेश और प्रकोपका भय उत्पन्न हुआ। इसमें म्यूनिसिपैलिटीके अधिकारियोंका भाग था और उनकी सम्मति भी थी । हमारी मददसे उनका काम आसान हो गया और हिंदुस्तानियोंको कम कष्ट और असुविधा हुई; क्योंकि प्लेग इत्यादिका प्रकोप जब कभी होता है तब आम तौरपर अधिकारी लोग अधीर हो जाते हैं। और उसका उपाय करने में सीमाके आगे बढ़ जाते हैं, एवं जो लोग उनकी नजरों में अप्रिय होते हैं, उनपर इतना दबाव डाला जाता है कि वह असह्य हो जाता है । चूंकि लोगों ने खुद ही काफी इलाज करनेका आयोजन कर लिया था, इसलिए वे इस सख्ती और ज्यादतीसे बच गये ।।

इस संबंध मुझे कितने ही कडुए अनुभव भी हुए। मैंने देखा कि स्थानीय सरकारने अपने हकोंका मतालबा करने में अपने लोगोंसे में जितनी सहायता ले सुकता था, उतनी आसानीसे मैं उनसे स्वयं अपने कर्तव्योंका पालन करनेमें न ले सका । कितनी ही जगह अपमान होता, कितनी जगह विनयपूर्वक लापरवाही बताई जाती । गंदगी दूर करनेका कष्ट उठाना एक आफत मालूम होती थी और इसके लिए पैसा खर्च करना तो और भी मुश्किल पड़ता था। इससे मैंने यह पाठ और अधिक अच्छी तरह सीखा कि यदि लोगोंसे कुछ भी काम कराना हो तो हमें धीरज रखना चाहिए। सुधारक गरज तो होती है खुद सुधारकको, जिस समाजमें वह सुधार चाहता है, उससे तो उसे विरोधकी, तिरस्कारकी और जानकी भी जोखिमकी ही आशा रखनी चाहिए। सुधारक जिस बातको सुधार समझता है, समाज उसे ‘कुधार' क्यों न माने ? और यदि सुधार न भी माने तो उसकी तरफसे उदासीन क्यों न रहे ?

इस आंदोलनका परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज में घरबार स्वच्छ रखने की आवश्यकता थोड़ी-बहुत मात्रामें मान ली गई । राज्याधिकारियों के नजदीक मेरी साख बढ़ी । वे समझे कि मैं महज शिकायतें करनेवाला अथवा हक मांगनेवाला ही नहीं हैं, बल्कि इन बातों में जितना दृढ हूं उतना ही उत्साही आंतरिक सुधारोंके लिए भी हूँ ।

परंतु समाजकी मनोवृत्तिका विकास अभी एक और दिशा में होना बाकी था। यहां भारतीयोंको अभी प्रसंगोपात्त भारतवर्षके प्रति अपने धर्मको समझना [ २४० ]और उसका पालन करना बाकी था । भारतवर्ष तो कंगाल है । लोग धन कमाने के लिए विदेश जाते हैं। मैंने सोचा, उनकी कमाईका कुछ-न-कुछ अंश भारतवर्षको आपत्तिके समय मिलना चाहिए । भारत १८९७ ई० में तो अकाल पड़ा ही था । १८९९में एक और भारी अकाल हुअा। दोनों अकाल के समय दक्षिण अफ्रीका खासी मदद गई थी। पहले अकालके समय जितनी रकम एकत्र हो सकी थी उससे बहुत ज्यादा रकम दूसरे अकालके समय गई थी। इसमें हमने अंग्रेजोंसे भी चंदा मांगा था और उनकी तरफसे अच्छी सहायता मिली थी । गिरमिटिया हिंदुस्लानियोंने भी अपनी तरफसे चंदा दिया था ।

इस तरह इन दोनों अकालके समय जो प्रथा पड़ी वह अभीतक कायम है और हम देखते हैं कि भारतवर्ष में सार्वजनिक संकटके समय दक्षिण अफ्रीकाके हिंदुस्तानी अच्छी रकमें भेजा करते हैं ।

इस तरह दक्षिण अफ्रीकाके भारतीयोंकी सेवा करते हुए मैं खुद बहुतेरी बात एक के बाद एक अनायास सीख रहा था । सत्य एक विशाल वृक्ष है। उसकी ज्यों-ज्यों सेवा की जाती है त्यों-त्यों उसमें अनेक फल आते हुए दिखाई देते हैं । उनका अंत ही नहीं होता। ज्यों-ज्यों हम गहरे पैठते हैं त्यों-त्यों उसमेंसे रत्न निकलते हैं; सेवाके अवसर हाथ आते ही रहते हैं ।

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देश-गमन

लड़ाईके कामसे मुक्त होने के बाद मैंने सोचा कि अब मेरा काम दक्षिण अफ्रीका में नहीं, बल्कि देसमें है। दक्षिण अफ्रीकामें बैठे-बैठे में कुछ-न-कुछ सेवा तो जरूर कर पाता था, परंतु मैंने देखा कि यहां कहीं मेरा मुख्य काम धन कमाना ही न हो जाय ।

देससे मित्र लोग भी देस लौट आने के लिये आकर्षित कर रहे थे। मुझे भी जंचा कि देस जानेसे मेरा अधिक उपयोग हो सकेगा। नेटालमें मि० खान और मनसुखलाल नाजर थे ही ।

मैंने साथियों से छुट्टी देनेका अनुरोध किया। बड़ी मुश्किलसे उन्होंने

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