सत्य के प्रयोग/ बोअर-युद्ध

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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घसीट ले गई। मैंने सोचा कि जब मैं ब्रिटिश प्रजा की हैसियत से हकों का मतालबा कर रहा हूं तो ब्रिटिश प्रजा की हैसियत से ब्रिटिश राज्य की रक्षा में सहायक होता मेरा धर्म है! ब्रिटिश साम्राज्य में हिंदुस्तान की सब तरह उन्नति हो सकती हैं, यह उस समय मेरा मन था। इसलिए जितने साथी मिले उनको लेकर, अनेक मुसीबतों का सामना करके, इनमें घायलों की सेवा-शुश्रूषा करने वाली एक टुकड़ तैयार की। अबतक अंग्रेजों की आम तौर पर यह धारणा थी कि यहां के हिंदुस्तानी जोखिम के कामों में नहीं पड़ते, स्वार्थ के अलावा उन्हें और कुछ नहीं सूझता। इसलिए कितने ही अंग्रेज मित्रोंं ने मुझे निराशाजनक उत्तर दिये। अलबत्ता डा० बूथने खूब प्रोत्साहन दिया। उन्होंने हमें घायल योद्धाधाऔ की शुश्रूषा करने की तालीम दी। अपनी योग्यता के संबंध में मैंने डाक्टर के प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लिये। मि० लाटन तथा स्वर्गीय मि० ऐस्कंब ने भी इस काम को पसंद किया। अंत को हमने सरकार से प्रार्थना की कि हमें लड़ाई में सेवा करने का अवसर दिया जाय। जवाब में सरकार ने हमें धन्यवाद दिया; किंतु कहा कि आपकी सेवा की इस समय आवश्यकता नहीं है।

परंतु मैं ऐसे इन्कार से खामोश होकर बैठ न गया। डा० बूथ की मदद लेकर उनके साथ में नेटाल के बिशप से मिला। हमारी दुकड़ी में बहुतेरे ईसाई हिंदुस्ताना थे। बिशप को हमारी योजना बहुत पसंद आई और उन्होंने सहायता देने का वचन दिया।

इस बीच घटना-चक्र अपना काम कर रहा था। बोअरों की तैयारी, दृढ़ता, वीरता इत्यादि अंदाज से अधिक तेजस्वी साबित हुई, जिसके फलस्वरूप सरकरको बहुतेरे रंगरूटों की जरूरत हुई, और अंतको हमारी प्रार्थना स्वीकृत हो गई।

इस टुकड़ी में लगभग ग्यारह सौ लोग थे। उनमें लगभग चालीस मुखिया थे। कोई तीन सौ स्वतंत्र हिंदुस्तानी भरती हुए थे, और शेष गिरमिटिया थे। डा० बूथ भी हमारे साथ थे। टुकडी ने अपना काम अच्छी तरह किया। यद्यपि उसका कार्यक्षेत्र लड़ाई के मैदान के वाह था और रेडक्रास' चिह्न उनकी रक्षा के

। रेडक्रसका अर्थ है लाल स्वस्तिक। युद्धमें इस चिह्नसे अंकित . पट्टे शुश्रूषा करनेवालोंके बायें हाथ बंधे रहते हैं और ऐसे नियम हैं । [ २३७ ]लिए लगा हुआ था, फिर भी आवश्यकताके समय प्रत्यक्ष युद्ध-क्षेत्रकी हद अंदर भी काम करनेका अवसर में मिला । ऐसी जोखिममें न पड़ने का इकरार सरकारने अपनी इच्छाले हमारे साथ किया था; परंतु स्पियाकोपकी हारके बाद स्थिति बदली । इस कारण जनरल बुलरने संदेश भेजा कि यद्यपि आप जोखिमकी जगह काम करनेके लिए बंधे हुए नहीं हैं, फिर भी यदि आप खतरेका सामना करके घायल सिपाहियोंको अथवा अफसरोंको रणक्षेत्रसे उठाकर डोलियोंमें ले जाने लिए तैयार हो जायंगे तो सरकार आपका उपकार मानेगी। इधर हम तो जोखिम उठाने के लिए तैयार ही थे । अतएव स्पियाकोपके युद्धके बाद हम गोली-बारूदकी हदके अंदर भी काम करने लगे ।

इन दिनों में सबको कई बार बीस-पचीस मीलकी मंजिल तय करनी पड़ती थी। एक बार तो घायलोंको डोलीमें रखकर इतनी दूर चलना भी पड़ा था । जिन घायल योद्धानों को हम उठाकर ले गये उनमें जनरल बुडगेट इत्यादि भी थे ।

छः सप्ताहके अंतमें हमारी टुकड़ीको रुखसत दी गई। स्पियांकोप और बालक्रांजैकी हारके बाद लेडी स्मिथ आदि-आदि स्थानोंको बोअरोके घेरेसे तेजीके साथ मुक्त करनेका विचार ब्रिटिश सेनापतिने त्याग दिया और इंग्लैंड तथा हिंदुस्तानसे और सेना आनेकी राह देखने तथा धीरे-धीरे काम करनेका निश्चय किया था ।

हमारी उस छोटी-सी सेवाकी उस समय बहुत स्तुति हुई। उससे हिंदुस्तानियों की प्रतिष्ठा बढ़ी । अाखिर हिंदुस्तानी हैं तो साम्राज्यके वारिस ही' ऐसे गीत गाये गये । जनरल वुलरने अपने खरीतेमें हमारी टुकड़ीके कार्यकी प्रशंसा की। मुख़ियोंको लड़ाईके तमगे भी मिले ।।

इसके फलस्वरूप हिंदुस्तानी अधिक संगठित हुए। मैं गिरमिटिया हिंदुस्तानियोंके अधिक सम्पर्क में आ सका । उनमें अधिक जाग्रति हुई और यह भावना अधिक दृढ़ हुई कि हिंदु, मुसलमान, ईसाई, मदरासी, पारसी, गुजराती,


कि शत्रु भी उनको नुकसान नहीं पहुंचा सकते । अधिक तफसीलके लिए देखिए---‘द० अ० के सत्याग्रहका इतिहास, खण्ड १, अध्याय ९ ।

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