सत्य के प्रयोग/ निर्बलके बल राम

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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नहीं जानता कि उसे उसका संयम बचाता हैं या और कोई। जो अपने संयमबलका गर्व करता हैं, उसका संयम भ्रष्ट नहीं हुआ, ऐसा किसने अनुभव नहीं किया? ऐसे समय शास्त्र-ज्ञान तो व्यर्थ-सा मालूम होता हैं।

इस बौद्धिक धर्म-ज्ञानके मिथ्यात्वका अनुभव मुझे विलायतमें हुआ। पहले जो इस प्रकारके भयोंसे मैं बचा, उसका विश्लेषण करना असंभव है। उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी। लेकिन अब तो मैं बीस वर्षका हो गया था। गृहस्थाश्रमका अनुभव खूब प्राप्त कर चुका था।

बहुत करके विलायतमें मेरे आखिरी वर्षमें, अर्थात् १८९० में, पोर्टस्मथमें अन्नाहारियोंका एक सम्मेलन हुआ। उसमें मुझे तथा एक और भारतीय मित्रको निमंत्रण मिला था। हम दोनों वहां गये। हम दोनों एक बाईके यहां ठहराये गये।

पोर्टस्मथ मल्लाहों का बंदर कहा जाता है| वहां दुराचारिणी स्त्रियोंके बहुत-से घर हैं। वे स्त्रियां वेश्या तो नहीं कही जा सकतीं, लेकिन साथही उन्हें निर्दोष भी नहीं कह सकते। ऐसे ही एक घरमें हम ठहराये गये थे। कहनेका आशय यह नहीं है कि स्वागत-समितिने जान-बूझकर ऐसे घर चुने थे। लेकिन पोर्टस्मथ-जैसे बंदर में जब मुसाफिरोंके ठहरनेके लिए घर खोजनेकी जरूरत पड़ती हैं, तब यह कहना कठिन हो जाता है कि कौन घर अच्छा और कौन बुरा।

रात हुई। सभासे हम घर लौटे। भोजनके बाद हम ताश खेलने बैठे। विलायतमें अच्छे घरोंमें भी गृहिणी मेहमानोंके साथ इस प्रकार ताश खेला करती हैं। ताश खेलते समय सब लोग निर्दोष मजाक करते हैं। परंतु यहां गंदा विनोद शुरू हुआ।

मैं नहीं जानता था कि मेरे साथी इसमें निपुण हैं। मुझे इस विनोदमें दिलचस्पी होने लगी। मैं भी सम्मिलित हुआ। विनोदके वाणीसे चेष्टामें परिणत होनेकी नौवत आ गई। ताश एक ओर रखनेका अवसर आ गया; पर मेरे उस भले साथीके हृदयमें भगवान् जगे। वह बोले, "तुम और यह कलियुग-यह पाप? यह तुम्हारा काम नहीं। भगो यहांसे।"

मै शरमिंदा हुआ। चेता। हृदयमें इस मित्रका उपकार माना। मातासे की हुई प्रतिज्ञा याद आई। मैं भगा। कांपता हुआ अपने कमरेमें पहुंचा। कलेजा धड़कता था। मेरी ऐसी स्थिति हो गई मानो कातिलके हाथसे छूटा शिकार। [ ९४ ]परस्त्रीको देखकर विकाराधीन होनेका और उसके साथ खेलनेकी इच्छा होनेका यह पहला प्रसंग मेरे जीवनमें था। रात-भर मुझे नींद न आई। अनेक तरहसे विचारोंने मुझे आ घेरा। 'क्या करूंं? घर छोड़ दूं? यहांसे भाग निकलूं? मैं कहां हूं? यदि मैं सावधान न रहूं तो मेरे क्या हाल होंगे?' मैंने खूब सचेत रहकर जीवन बितानेका निश्चय किया। सोचा कि घर तो अभी न छोड़ूं; पर पोर्टस्मथ तुरंत छोड़ देना चाहिए। सम्मेलन दो ही दिनतक होनेवाला था। इसलिए जहांतक मुझे याद है, दूसरे ही दिन पोर्टस्मथ छोड़ दिया। मेरे साथी वहां कुछ दिन रहे।

उस समय मैं 'धर्म क्या हैं, ईश्वर क्या चीज हैं, वह हमारे अंदर किस तरह काम करता हैं' ये बातें नहीं जानता था। लौकिक अर्थमें मैं समझा कि ईश्वरने मुझे बचाया। परंतु जीवनके विविध क्षेत्रोंमें भी मुझे ऐसे ही अनुभव हुए हैं। 'ईश्वरने बचाया' इस वाक्यका अर्थ मैं आज बहुत अच्छी तरह समझता हूं। पर यह भी जानता हूं कि अभी इसकी कीमत मैं ठीक-ठीक नहीं आंक सका हूं। यह तो अनुभवसे ही आंकी जा सकती है। पर हां, कितने ही आध्यात्मिक अवसरोंपर, वकालतके सिलसिलेमें, संस्थाओंका संचालन करते हुए, राजनैतिक मामलोंमें मैं कह सकता हूं कि 'ईश्वरने मुझे बचाया हैं।' मैंने अनुभव किया है कि जब चारों ओरसे आशायें छोड़ बैठनेका अवसर आ जाता है, हाथ-पांव ढीले पड़ने लगते हैं, तब कहीं-न-कहींसे सहायता अचानक आ पहुंचती हैं। स्तुति, उपासना, प्रार्थना, अंधविश्वास नहीं, बल्कि उतनी अथवा उससे भी अधिक सच बातें हैं, जितना कि हम खाते हैं, पीते हैं, चलते हैं, बैठते हैं, ये सच है। बल्कि यों कहनेमें भी अत्युक्ति नहीं कि यही एकमात्र सच है; दूसरी सब बातें झूठ हैं, मिथ्या है।

ऐसी उपासना, ऐसी प्रार्थना वाणीका वैभव नहीं है। उसका मूल कंठ नहीं, बल्कि हृदय है। अतएव यदि हम हृदयको निर्मल बना लें, उसके तारोंका सुर मिला ले, तो उसमेसे जो सुर निकलता है वह गगनगामी हो जाता है। उसके लिए जीभकी आवश्यकता नहीं। यह तो स्वभावतः ही अद्भुत वस्तु है। विकाररूपी मलकी शुद्धिके लिए हार्दिक उपासना एक जीवन-जड़ी है, इस विषयमें मुझे जरा भी संदेह नहीं। परंतु इस प्रसादीको पाने के लिए हमारे अंदर पूरी-पूरी नम्रता होनी चाहिए।

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