सत्य के प्रयोग/ नारायण हेमचन्द्र

विकिस्रोत से
सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
[ ९५ ]

२२

नारायण हेमचन्द्र

लगभग इसी दरमियान स्वर्गीय नारायण हेमचंद्र विलायत आये थे। मैं सुन चुका था कि वह एक अच्छे लेखक हैं। नेशनल इंडियन एसोसियेशनवाली मिस मैनिंगके यहां उनसे मिला। मिस मैनिंग जानती थीं कि सबसे हिलमिल जाना मैं नहीं जानता। जब कभी मैं उनके यहां जाता तब चुप-चाप बैठा रहता। तभी बोलता, जब कोई बातचीत छेड़ता।

उन्होंने नारायण हेमचंद्रसे मेरा परिचय कराया।

नारायण हेमचंद्र अंग्रेजी नहीं जानते थे। उनका पहनावा विचित्र था। बेढंगी पतलून पहने थे। उसपर था एक बादामी रंग का मैलाकुचैला-सा पारसी काटका बडौल कोट। न नेकटाई, न कालर। सिरपर ऊनकी गुंथी हुई टोपी और नीचे लंबी दाढ़ी।

बदन इकहरा, कद नाटा कह सकते हैं। चेहरा गोल था, उसपर चेचकके दाग थे। नाक न नोकदार थी, न चपटी। हाथ दाढ़ीपर फिरा करता था।

वहांके लाल-गुलाल फैशनेबल लोगोंमें नारायण हेमचंद्र विचित्र मालूम होते थे। वह औरोंसे अलग छटक पड़ते थे।

"आपका नाम तो मैंने बहुत सुना है। आपके कुछ लेख भी पढ़े हैं। आप मेरे घर चलिए न?"

नारायण हेमचंद्रकी आवाज जरा भर्राई हुई थी उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया-

"आप कहां रहते हैं?"

"स्टोर स्ट्रीटमें।"

"तब तो हम पड़ोसी हैं। मुझे अंग्रेजी सीखना है। आप सिखा देंगे?"

मैंने जवाब दिया-"यदि मैं किसी प्रकार भी आपकी सहायता कर सकूं तो मुझे बड़ी खुशी होगी। मैं अपनी शक्ति-भर कोशिश करूंगा। यदि आप चाहें, तो मैं आपके यहां भी आ सकता हूं।" [ ९६ ]"जी नहीं, मैं खुद ही आपके पास आऊंगा। मेरे पास पाठमाला भी है। उसे लेता आऊंगा।"

समय निश्चित हुआ। आगे चलकर हम दोनोंमें बड़ा स्नेह हो गया।

नारायण हेमचंद्र व्याकरण जरा भी नहीं जानते थे। 'घोड़ा' क्रिया और 'दौड़ना' संज्ञा बन जाती। ऐसे मजेदार उदाहरण तो मुझे कई याद हैं। परंतु नारायण हेमचंद्र ऐसे थे, जो मुझे भी हजम कर जायं। वह मेरे अल्प व्याकरणज्ञानसे अपनेको भुला देनेवाले जीव न थे। व्याकरण न जाननेपर वह किसी प्रकार लज्जित न होते थे।

"मैं आपकी तरह किसी पाठशालामें नहीं पढ़ा हूं। मुझे अपने विचार प्रकट करनेमें कहीं व्याकरणकी सहायताकी जरूरत नहीं दिखाई दी। अच्छा, आप बंगला जानते हैं? मै तो बंगला भी जानता हूं। मैं बंगालमें भी घूमा हूं। महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोरकी पुस्तकोंका अनुवाद तो गुजराती जनताको मैंने ही दिया है। अभी कई भाषाओंके सुंदर ग्रंथोंके अनुवाद करने हैं। अनुवाद करनेमें भी मैं शब्दार्थपर नहीं चिपटा रहता। भावमात्र दे देनेसे मुझे संतोष हो जाता है। मेरे बाद दूसरे लोग चाहे भले ही सुंदर वस्तु दिया करें। मैं तो बिना व्याकरण पढ़े मराठी भी जानता हूं, हिंदी भी जानता हूं और अब अंग्रेजी भी जानने लग गया हूं। मुझे तो सिर्फ शब्द-भंडारकी जरूरत है। आप यह न समझ लें कि अकेली अंग्रेजी जान लेनेभरसे मुझे संतोष हो जायगा। मुझे तो फ्रांस जाकर फ्रेंच भी सीख लेनी है। मैं जानता हूं कि फ्रेंच-साहित्य बहुत विशाल है। यदि हो सका तो जर्मन जाकर जर्मन भाषा भी सीख लूंगा।"

इस तरह नारायण हेमचंद्रकी वाग्धारा बे-रोक बहती रही। देश-देशांतरोंमें जाने व भिन्न-भिन्न भाषा सीखनेका उन्हें असीम शौक था।

"तब तो आप अमेरिका भी जरूर ही जावेंगे?"

"भला इसमें भी कोई संदेह हो सकता है? इस नवीन दुनियाको देखे बिना कहीं वापस लौट सकता हूं?"

"पर आपके पास इतना धन कहां है?"

"मुझे धनकी क्या जरूरत पड़ी है? मुझे आपकी तरह तड़क-भड़क तो रखना हैं ही नहीं। मेरा खाना कितना और पहनना क्या? मेरी पुस्तकोंसे [ ९७ ]
कुछ मिल जाता है और थोड़ा-बहुत मित्र लोग दे दिया करते हैं, वह काफी है। मैं तो सर्वत्र तीसरे दर्जेमें ही सफर करता हूं। अमेरिका तो डेकमें जाऊंगा।"

नारायण हेमचंद्रकी सादगी बस उनकी अपनी थी; हृदय भी उनका वैसा ही निर्मल था। अभिमान छूतक नहीं गया था। लेखकके नाते अपनी क्षमतापर उन्हें आवश्यकतासे भी अधिक विश्वास था।

हम रोज मिलते। हमारे बीच विचार तथा आचार-साम्य भी काफी था। दोनों अन्नाहारी थे। दोपहरको कई बार साथ ही भोजन करते। यह मेरा वह समय था, जब मैं प्रति सप्ताह सत्रह शिलिंगमें ही अपना गुजर करता और खाना खुद पकाया करता था। कभी मैं उनके मकानपर जाता तो कभी वह मेरे मकानपर आते। मैं अंग्रेजी ढंगका खाना पकाता था, उन्हें देसी ढंगके बिना संतोष नहीं होता था। उन्हें दाल जरूरी थी। मैं गाजर इत्यादिका रसा बनाता। इसपर उन्हें मुझपर बड़ी दया आती। कहींसे वह मूंग ढूंढ लाये थे। एक दिन मेरे लिए मूंग पकाकर लाये, जो मैंने बड़ी रुचिपूर्वक खाये। फिर तो हमारा इस तरहका देने-लेनेका व्यवहार बहुत बढ़ गया। मैं अपनी चीजोंका नमूना उन्हें चखाता और वह मुझे चखाते।

इस समय कार्डिनल मैनिंगका नाम सबकी जबान पर था। डॉकके मजदूरों ने हड़ताल करदी थी। जॉनबर्न्स और कार्डिनल मैनिंगके प्रयत्नों से हड़ताल जल्दी बंद हो गई। कार्डिनल मैनिंगकी सादगीके विषय में जो डिसरैलीने लिखा था, वह मैंने नारायण हेमचंद्र को सुनाया।

"तब तो मुझे उस साधु पुरुषसे जरूर मिलना चाहिए।"

"वह तो बहुत बड़े आदमी हैं, आपसे क्योंकर मिलेंगे?"

"इसका रास्ता मै बता देता हूं। आप उन्हें मेरे नामसे एक पत्र लिखिए कि मैं एक लेखक हूं। आपके परोपकारी कार्योपर आपको धन्यवाद देनेके लिए प्रत्यक्ष मिलना चाहता हूं। उसमें यह भी लिख दीजिएगा कि मैं अंग्रेजी नहीं जानता, इसलिए-आपका नाम लिखिए-बतौर दुभाषियाके मेरे साथ रहेंगे।"

मैंने इस मजमूनका पत्र लिख दिया। दो-तीन दिनमें कार्डिनल मैनिंगका कार्ड आया। उन्होंने मिलनेका समय दे दिया था।

हम दोनों गये। मैंने तो, जैसा कि रिवाज था, मुलाकाती कपड़े पहन [ ९८ ]
लिये। नारायण हेमचंद्र तो ज्यों-के-त्यों, सनातन! वही कोट और वही पतलून। मैंने जरा मजाक किया, पर उन्होंने उसे साफ हंसीमें उड़ा दिया और बोले——

"तुम सब सुधारप्रिय लोग डरपोक हो। महापुरुष किसीकी पोशाककी तरफ नहीं देखते। वे तो उसके हृदयको देखते हैं।"

कार्डिनलके महलमें हमने प्रवेश किया। मकान महल ही था। हम बैठे ही थे कि एक दुबलेसे ऊंचे कदवाले वृद्ध पुरुषने प्रवेश किया। हम दोनोंसे हाथ मिलाया। उन्होंने नारायण हेमचंद्रका स्वागत किया।

"मैं आपका अधिक समय लेना नहीं चाहता। मैंने आपकी कीर्ति सुन रक्खी थी। आपने हड़तालमें जो शुभ काम किया है, उसके लिए आपका उपकार मानना था। संसारके साधु पुरुषोंके दर्शन करनेका मेरा अपना रिवाज है। इसलिए आपको आज यह कष्ट दिया है।"

इन वाक्योंका तरजुमा करके उन्हें सुनानेके लिए हेमचंद्रने मुझसे कहा।

"आपके आगमनसे मैं बड़ा प्रसन्न हुआ हूं। मैं आशा करता हूं कि आपको यहांका निवास अनुकूल होगा, और यहांके लोगोंसे आप अधिक परिचय करेंगे। परमात्मा आपका भला करें।" यों कहकर कार्डिनल उठ खड़े हुए।

एक दिन नारायण हेमचंद्र मेरे यहां धोती और कुरता पहनकर आये। भली मकान-मालकिनने दरवाजा खोला और देखा तो डर गई। दौड़कर मेरे पास आई (पाठक यह तो जानते ही हैं कि मैं बार-बार मकान बदलता ही रहता था) और बोली— "एक पागल-सा आदमी आपसे मिलना चाहता है।" मैं दरवाजेपर गया और नारायण हेमचंद्रको देखकर दंग रह गया। उनके चेहरेपर यही नित्यका हास्य चमक रहा था।

"पर आपको लड़कोंने नहीं सताया?"

"हां, मेरे पीछे पड़े जरूर थे, लेकिन मैंने कोई ध्यान नहीं दिया, तो वापस लौट गये।"

नारायण हेमचंद्र कुछ महीने इंग्लैंडमें रहकर पेरिस चले गये। यहां फ्रेंच का अध्ययन किया और फ्रेंच पुस्तकों का अनुवाद करना शुरू कर दिया। मैं इतनी फ्रेंच जान गया था कि उनके अनुवादोंको जांच लूं। मैने देखा कि वह तर्जुमा नहीं, भावार्थ था।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।