सामग्री पर जाएँ

सत्य के प्रयोग/ नेटाल पहुंचा

विकिस्रोत से
सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ १२४ से – १२६ तक

 


नेटाल पहुंचा

विलायत जाते समय जो वियोग दु:ख हुआ था, वह दक्षिण अफ्रीका जाते हुए न हुआ; क्योंकि माताजी तो चल बसी थीं और मुझे दुनियाका और सफरका अनुभव भी बहुत-कुछ हो गया था। राजकोट और बंबई तो आया-जाया करता ही था। इस कारण अबकी बार सिर्फ पत्नीका ही वियोग दुःखद था। विलायतसे आनेके बाद दूसरे एक बालकका जन्म हो गया था। हम दम्पतीके प्रेममें अभी विषय-भोगका अंश तो था ही। फिर भी उसमें निर्मलता आने लगी थी। मेरे विलायतसे लौटनेके बाद हम बहुत थोड़ा समय एक साथ रहे थे और मैं ऐसा-वैसा ही क्यों न हो, उसका शिक्षक बन चुका था। इधर पत्नीकी बहुतेरी बातोंमें बहुत-कुछ सुधार करा चुका था और उन्हें कायम रखनेके लिए भी साथ रहनेकी आवश्यकता हम दोनोंकी मालूम होती थी। परंतु अफ्रीका मुझे आकर्षित कर रहा था। उसने इस वियोगको सहन करनेकी शक्ति दे दी थी। 'एक सालके बाद तो हम मिलेंगे ही' कहकर और दिलासा देकर मैंने राजकोट छोड़ा, और बंबई पहुंचा।

दादा अब्दुल्लाके बंबईके एजेंटकी मार्फत मुझे टिकट लेना था। परंतु जहाजपर केबिन खाली न थी। यदि मैं यह चूक जाऊं तो फिर मुझे एक मासतक बंबईमें हवा खानी पड़े। एजेंटने कहा- "हमने तो खूब दौड़-धूप कर ली। हमें टिकट नहीं मिला। हां, डेकमें जायं तो बात दूसरी है। भोजनका इंतजाम सैलूनमें हो सकता है।" ये दिन मेरे फर्स्ट क्लासकी यात्राके थे। बैरिस्टर भला कहीं डेकमें सफर कर सकता है? मैंने डेकमें जानेसे इन्कार कर दिया। मुझे एजेंटकी बात पर शक भी हुआ। यह बात मेरे माननेमें न आई कि पहले दर्जेका टिकट मिल ही नहीं सकता। अतएव एजेंटसे पूछकर खुद मैं टिकट लाने चला। जहाजपर पहुंचकर बड़े अफसरसे मिला। पूछनेपर उसने सरल भावसे उत्तर दिया- "हमारे यहां मुश्किलसे इतनी भीड़ होती है। परंतु मोजांविकके गवर्नर जनरल इसी जहाजसे जा रहे हैं। इससे सारी जगह भर गई है।" "तब क्या आप किसी प्रकार मेरे लिए जगह नहीं कर सकते?" अफसरने मेरी ओर देखा, हंसा और बोला- "एक उपाय है। मेरी केबिनमें एक बैठक खाली रहती है। उसमें हम यात्रियोंको नहीं बैठने देते। पर आपके लिए मैं जगह कर देने को तैयार हूं।" मैं खुश हुआ। अफसरको धन्यवाद दिया व सेठसे कहकर टिकट मंगाया। १८९३ के अप्रैल मासमें मैं बड़ी उमंगके साथ अपनी तकदीर आजमानेके लिए दक्षिण अफ्रीका रवाना हुआ।

पहला बंदर लामू मिला। कप्तानको शतरंज खेलनेका शौक था। पर वह अभी नौसिखया था। कोई तेरह दिनमें वहां पहुंचे। रास्तेमें कप्तानके साथ खासा स्नेह हो गया था। उसे अपनेसे कम जानकार खिलाड़ीकी जरूरत थी और उसने मुझे खेलनेके लिए बुलाया। मैंने शतरंजका खेल कभी देखा न था। हां, सुन खूब रक्खा था। खेलनेवाले कहा करते कि इसमें बुद्धिका खासा उपयोग होता है। कप्तानने कहा-"मैं तुम्हें सिखाऊंगा।" मैं उसे मनचाहा शिष्य मिला; क्योंकि मुझमें धीरज काफी था। मैं हारता ही रहता। और ज्यों-ज्यों मैं हारता, कप्तान बड़े उत्साह और उमंगसे सिखाता। मुझे यह खेल पसंद आया। परंतु जहाजसे नीचे वह कभी साथ न उतरा। राजा-रानीकी चालें जाननेसे अधिक मैं न सीख सका।

लामू बंदर आया। जहाज वहां तीन-चार घंटे ठहरने वाला था। मैं बंदर देखनेको नीचे उतरा। कप्तान भी गया था। पर उसने मुझे कह दिया था-'यहांका बंदर दगाबाज है। तुम जल्दी वापस आ जाना।'

गांव छोटा-सा था। वहां डाकघरमें गया तो हिंदुस्तानी आदमी देखे। मुझे खुशी हुई। उनके साथ बातें कीं। हवशियोंसे मिला। उनकी रहन-सहन में दिलचस्पी पैदा हुई। उसमें कुछ समय चला गया। डेकके और यात्री भी वहां आ गये थे। उनसे परिचय हो गया था। वे भोजन पकाकर आराम से खाना खाने नीचे उतरे थे। मैं उनकी नावमें बैठा। समुद्रमें ज्वार भी खासा था। हमारी नावमें बोझ भी काफी था। तनाव इतने जोरका था कि नावकी रस्सी जहाजकी सीढ़ी के साथ किसी तरह न बंधती थी। नाव जहाजके पास जाकर फिर हट जाती। जहाज रवाना होनेकी पहली सीटी हुई। मैं घबराया। कप्तान ऊपरसे देख रहा था। उसने जहाज ५ मिनट रोकनेके लिए कहा। जहाजके
पास एक मछवा था । उसे १०)देकर एक मित्रने किराये किया। मछवे ने मुझे नावमेंसे उठा लिया। जहाजकी सीढ़ी ऊपर चढ़ चुकी थी। रस्सीके बल मैं ऊपर खींचा गया और जहाज चलने लगा। बेचारे दूसरे यात्री रह गये। कप्तानकी उस चेतावनीका मतलब अब मैं समझा।

लामूसे मोंबासा और वहांसे जंजीबार पहुंचे। जंजीबारमें बहुत ठहरना था- ८ या १० दिन। यहांसे नये जहाजमें बैठना था।

कप्तानके प्रेमकी सीमा न थी। इस प्रेमने मेरे लिए विपरीत रूप धारण किया। उसने मुझे अपने साथ सैर करनेके लिए बुलाया। उसका एक अंग्रेज मित्र भी साथ था। हम तीनों कप्तानके मछवेमें उतरे। इस सैरका मर्म मैं बिलकुल न जानता था। कप्तानको क्या खबर थी कि ऐसी बातोंमें मैं बिल्कुल अनजान होऊंगा। हम तो हवशी औरतोंके मुहल्लोंमें जा पहुंचे। एक दलाल हमें वहां ले गया। तीनों एक-एक कमरेमें दाखिल हुए। पर मैं तो शर्मका मारा कमरेमें घुसा बैठा ही रहा। उस बेचारी बाईके मनमें क्या-क्या विचार आये होंगे, यह तो वही जानती होगी। थोड़ी देरमें कप्तानने आवाज लगाई। मैं तो जैसा अंदर घुसा था, वैसा ही वापस बाहर आ गया। यह देखकर कप्तान मेरा भोलापन समझ गया। शुरूमें तो मुझे बड़ी शर्म मालूम हुई; परंतु इस काम को तो मैं किसी तरह पसंद नहीं कर सकता था, इससे शर्म चली गई और मैंने ईश्वरका उपकार माना कि इस बहनको देखकर मेरे मनमें किसी प्रकारका विकारतक उत्पन्न न हुआ। मुझे अपनी इस कमजोरीपर बड़ी ग्लानि हुई कि मैं कमरेमें प्रवेश करनेसे इन्कार करनेका साहस क्यों न कर सका।

मेरे जीवनमें यह इस प्रकार की तीसरी परीक्षा थी। कितने ही नवयुवक शुरूआतमें निर्दोष होते हुए भी झूठी शर्मसे बुराईमें लिप्त हो जाते होंगे। मेरा बचाव मेरे पुरुषार्थके बदौलत नहीं हुआ था। यदि मैंने कमरेमें जानेसे साफ इन्कार कर दिया होता तो पुरुषार्थ समझा जा सकता था। सो मेरे इस बचावके लिए तो एकमात्र ईश्वरका ही उपकार मानना चाहिए। इस घटनासे ईश्वरपर मेरी आस्था दृढ़ हुई और झूठी शर्म छोड़नेका साहस भी कुछ आया।

जंजीबारमें एक सप्ताह रहना था। इसलिए एक मकान किराये का लेकर मैं शहरमें रहा। खूब घूम-फिरकर शहरको देखा। जंजीबारकी हरियाली

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।