सत्य के प्रयोग/ दक्षिण अफ्रीकाकी तैयारी

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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उस समय सर फीरोजशाह मेहता अपने किसी मुकदमेमें राजकोट आये थे। मुझ-जैसा नया बैरिस्टर भला उनसे कैसे मिल सकता था? जिस वकीलकी मार्फत वह आये थे उनके द्वारा कागज-पत्र भेजकर सलाह ली। उत्तर मिला कि गांधीसे कहना- 'ऐसी बातें तो तमाम वकील-बैरिस्टरोंके अनुभवमें आई होंगी। तुम अभी नये आये हो। तुमपर अभी विलायतकी हवा का असर है, तुम ब्रिटिश अधिकारीको पहचानते नहीं। यदि तुम चाहते हो कि सुखसे बैठकर दो पैसे कमा लें तो उस चिट्ठीको फाड़ डालो और अपमानकी यह घूंट पी डालो। मामला चलानेमें तुम्हें एक कौड़ी न मिलेगी और मुफ़्तमें बरबादी हाथ आएगी। जिंदगीका अनुभव तो तुम्हें अभी मिलना बाकी है।

मुझे यह नसीहत जहरकी तरह कड़वी लगी। परंतु इस कड़वी घूंटको पीये बिना चारा न था। मैं इस अपमान को भूल तो न सका; पर मैंने उसका सदुपयोग किया- 'अबसे मैं अपनेको ऐसी हालतमें न डालूंगा। इस तरह किसीकी सिफारिश आगे न करूंगा।' इस नियमका भंग मैंने फिर कभी न किया। इस आघातने मेरे जीवनकी दिशा बदल दी।

दक्षिण अफ्रीकाकी तैयारी

पोलिटिकल एजेंटके पास मेरा जाना अवश्य अनुचित था; परंतु उसकी अधीरता, उसका रोष, उसकी उद्धतताके सामने मेरा दोष बहुत छोटा हो गया। मेरे दोषकी सजा धक्का दिलाना न थी। मैं उसके पास पांच मिनट भी न बैठा होऊंगा। पर मेरा तो बात-चीत करना ही उसे नागवार हो गया। वह मुझे सौजन्यके साथ जानेके लिए कह सकता था, परंतु हुकूमतके नशेकी सीमा न थी। बादको मुझे मालूम हुआ कि धीरज जैसी किसी चीजको यह शख्स जानता न था। मिलने जानेवालेका अपमान करना उनके लिए मामूली बात थी। जहां उसकी रुचिके खिलाफ कोई बात हुई कि फौरन उसका मिजाज बिगड़ जाता।

मेरा ज्यादातर काम उसीकी अदालतमें था। इधर खुशामद मुझसे हो नहीं सकती थी। और उसे नाजायज तरीकेसे खुश करना मैं चाहता न था। [ १२२ ]
नालिश करनेकी धमकी देकर नालिश न करना और उसे कुछ भी जवाब न देना मुझे अच्छा न लगा।

इस बीच काठियावाड़की अंदरूनी खटपटका भी मुझे कुछ अनुभव हुआ। काठियावाड़ अनेक छोटे-छोटे राज्योंका प्रदेश है। वहां राजकाजी लोगोंकी बहुतायत होना स्वाभाविक था। राज्योंमें परस्पर गहरे षड्यंत्र; पद-प्रतिष्ठा पानेके लिए षड्यंत्र; राजा कच्चे कानके और पराधीन; साहबोंके चपरासियोंकी खुशामद; सरिश्तेदारको डेढ़ साहब समझिए- क्योंकि सरिश्तेदार साहबकी आंख, साहबके कान, और उसका दुभाषिया सब कुछ। सरिश्तेदार जो बता दे वही कायदा। सरिश्तेदार की आमदनी साहबकी आमदनीसे ज्यादा मानी जाती थी। संभव है कि इसमें कुछ अत्युक्ति हो। पर यह बात निर्विवाद है कि सरिश्तेदारके थोड़े वेतनके मुकाबलेमें उसका खर्च ज्यादा रहता था।

यह वायुमंडल मुझे जहरके समान प्रतीत हुआ। दिन-रात मेरे मनमें यह विचार रहने लगा कि यहां अपनी स्वतंत्रताकी रक्षा किस तरह कर सकूंगा?

होते-होते मैं उदासीन रहने लगा। भाईने मेरा यह भाव देखा। यह विचार आया कि कहीं कोई नौकरी मिल जाय तो इन षड्यंत्रोंसे पिंड छूट सकता है। परंतु बिना षड्यंत्रोंके न्यायाधीश अथवा दीवानका पद कहांसे मिल सकता था? और वकालत करनेके रास्तेमें साहबके साथ वाला झगड़ा खड़ा हुआ था।

पोरबंदरमें राणा साहबको अख्तियार न थे, उसके लिए कुछ अधिकार प्राप्त करनेकी तजवीज चल रही थी। मेर लोगोंसे ज्यादा लगान लिया जाता था। उसके संबंधमें भी मुझे वहांके एडमिनिस्ट्रेटर- मुख्य राज्याधिकारी- से मिलना था। मैंने देखा कि एडमिनिस्ट्रेटरके देशी होते हुए भी उनका रौबदाब साहबसे भी ज्यादा था। वह थे तो योग्य; परंतु उनकी योग्यताका लाभ प्रजाजनको बहुत न मिलता था। अंतमें राणा साहबको तो थोड़े अधिकार मिले। परंतु मेर लोगोंके हाथ कुछ न आया। मेरा खयाल है कि उनकी तो बात भी पूरी न सुनी गई।

इसलिए यहां भी अपेक्षाकृत निराश हुआ। मुझे लगा कि इन्साफ नहीं हुआ। इन्साफ पानेके लिए मेरे पास कोई साधन न था। बहुत हुआ तो बड़े साहबके यहां अपील करदी। वह हुक्म लगा देता- 'हम इस मामलेमें दखल [ १२३ ]
नहीं दे सकते।' ऐसा फैसला यदि किसी कानून-कायदेमें बलपर किया जाता हो तब तो आशा की जा सकती है। पर यहां तो साहबकी इच्छा ही कानून था।

आखिर मेरा जी ऊब उठा। इसी अवसरपर भाई साहबके पास पोरबंदरकी एक मेमन दूकानका संदेशा आया- 'दक्षिण अफ्रीकामें हमारा व्यापार है? बड़ा कारोबार है। एक भारी मुकदमा चल रहा है। दावा चालीस हजार पौंडका है। बहुत दिनोंसे मामला चल रहा है। हमारी तरफसे अच्छे-से-अच्छे वकील बैरिस्टर हैं। यदि आप अपने भाईको हमारे यहां भेज दें तो हमें भी मदद मिलेगी और उसकी भी कुछ मदद हो जायगी। वह हमारा मामला वकीलोंको अच्छी तरह समझा सकेंगे। इसके सिवा नये देशकी यात्रा होगी और नये-नये लोगोंसे जान-पहचान होगी सो अलग।'

भाई साहबने मुझसे जिक्र किया। मैं सारी बात अच्छी तरह न समझ सका। मैं यह न जान सका कि सिर्फ वकीलोंको समझानेका काम है या मुझे अदालतमें भी जाना पड़ेगा। पर मेरा जी ललचाया जरूर।

दादा अब्दुल्लाके हिस्सेदार स्वर्गीय सेठ अब्दुलकरीम जवेरीकी मुलाकात भाईने कराई। सेठने कहा- "तुमको बहुत मिहनत नहीं करनी पड़ेगी। बड़े-बड़े गोरोंसे हमारी दोस्ती है। उनसे तुम्हारा परिचय होगा। हमारी दूकानके काममें भी मदद कर सकोगे। हमारे यहां अंग्रेजी चिट्ठी-पत्री बहुत होती है। उसमें भी तुम्हारी मदद मिल सकेगी। तुम्हारे रहनेका प्रबंध हमारे ही बंगलेमें रहेगा। इस तरह तुमपर कुछ भी खर्च न पड़ेगा।"

मैंने पूछा- "कितने दिनतक मुझे वहां काम करना पड़ेगा? मुझे वेतन क्या मिलेगा?"

"एक सालसे ज्यादा तुम्हारा काम न रहेगा। आने-जानेका फर्स्टक्लासका किराया और भोजन-खर्चके अलावा १०५ पौंड दे देंगे।"

यह वकालत नहीं, नौकरी थी। परंतु मुझे तो जैसे-तैसे हिंदुस्तान छोड़ देना था। सोचा कि नई दुनिया देखेंगे और नया अनुभव मिलेगा सो अलग। १०५ पौंड भाई साहबको भेज दूंगा तो घर-खर्चमें कुछ मदद हो जायगी। यह सोचकर मैनें तो वेतनके संबंधमें बिना कुछ खींच-तान किये सेठ अब्दुल करीमकी बात मान ली और दक्षिण अफ्रीका जानेके लिए तैयार हो गया।

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