सत्य के प्रयोग/ पतिदेव

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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जोड़ना पाप है। फिर कोमल वयमें एक-पत्नी-व्रतके भंग होनेकी संभावना भी कम ही रहती है।

परंतु इन सद्विचारोंका एक बुरा परिणाम निकला। 'यदि मैं एक-पत्नी-व्रतका पालन करता हूं, तो मेरी पत्नीको भी एक-पति-व्रतका पालन करना चाहिए।' इस विचारसे मैं असहिष्णु-ईर्ष्यालु पति बन गया। फिर 'पालन करना चाहिए' मेंसे 'पालन करवाना चाहिए' इस विचारतक जा पहुंचा। और यदि पालन करवाना हो तो फिर मुझे पत्नीकी चौकीदारी करनी चाहिए। पत्नीकी पवित्रतापर तो संदेह करनेका कोई कारण न था; परंतु ईर्ष्या कहीं कारण देखने जाती है? मैंने कहा-'पत्नी हमेशा कहां-कहां जाती है, यह जानना मेरे लिए जरूरी है, मेरी इजाजत लिये बिना वह कहीं नहीं जा सकती। 'मेरा यह भाव मेरे और उनके बीच दु:खद झगड़ेका मूल बन बैठा। बिना इजाजत के कहीं न जा पाना तो एक तरहकी कैद ही हो गई। परंतु कस्तूरबाई ऐसी मिट्टीकी न बनी थी, जो ऐसी कैदको बरदाश्त करतीं। जहां जी चाहे, मुझसे बिना पूछे जरूर चली जातीं। ज्यों-ज्यों मैं उन्हें दबाता त्यों-त्यों वह अधिक आजादी लेतीं, और त्यों-ही-त्यों मैं और बिगड़ता। इस कारण हम बाल-दंपतीमें अबोला रहना एक मामूली बात हो गई। कस्तूरबाई जो आजादी लिया करतीं उसे मैं बिलकुल निर्दोष मानता हूं। एक बालिका जिसके मनमें कोई पाप नहीं हैं, देव-दर्शनको जानेके लिए अथवा किसीसे मिलने जानेके लिए क्यों ऐसा दबाव सहन करने लगी? 'यदि मैं उसपर दबाव रक्खूं तो फिर वह मुझपर क्यों न रक्खे?' पर यह बात तो अब समझ में आती है। उस समय तो मुझे पतिदेवकी सत्ता सिद्ध करनी थी।

पर इससे पाठक यह न समझें कि हमारे इस गार्हस्थ्य-जीवनमें कहीं मिठास थी ही नहीं। मेरी इस वकताका मूल था प्रेम। मैं अपनी पत्नीको आदर्श स्त्री बनाना चाहता था। मेरे मनमें एकमात्र यही भाव रहता था कि मेरी पत्नी स्वच्छ हो, स्वच्छ रहे, मैं सीखूं सो सीखे, में पढ़ूं सो पढ़े और हम दोनों एक-मन दो-तन बनकर रहें।

मुझे खयाल नहीं पड़ता कि कस्तूरबाईके भी मनमें ऐसा भाव रहा हो। वह निरक्षर थीं। स्वभाव उनका सरल और स्वतंत्र था। वह परिश्रमी भी थीं, पर मेरे साथ कम बोला करतीं। अपने अज्ञानपर उन्हें असंतोष न था। अपने [ ३१ ]
बचपनमें मैंने कभी उनकी ऐसी इच्छा नहीं देखी कि 'वह पढ़ते हैं तो मैं भी पढूं।' इससे मैं मानता हूं कि मेरी भावना इकतरफा थी। मेरा विषय-सुख एक ही स्त्रीपर अवलंबित था और मैं उस सुखकी प्रतिध्वनिकी आशा लगाये रहता था। अस्तु: प्रेम यदि एक पक्षीय भी हो तो वहां सर्वांशमें दु:ख नहीं हो सकता।

मुझे कहना चाहिए कि मैं अपनी पत्नीसे जहांतक संबंध हैं, विषयासक्त था। स्कूल में भी उसका ध्यान आता, और यह विचार मनमें चला ही करता कि कब रात हो और कब हम मिले। वियोग असह्य हो जाता था। कितनी ही ऊट-पटांग बातें कह-कहकर मैं कस्तूरबाईको देरतक सोने न देता। इस आसक्ति के साथ ही यदि मुझमें कर्त्तव्यपरायणता न होती, तो मैं समझता हूं, या तो किसी बुरी बीमारीमें फंसकर अकाल ही कालकवलित हो जाता अथवा अपने और दुनिया के लिए भारभूत होकर वृथा जीवन व्यतीत करता होता। 'सुबह होते ही नित्यकर्म तो हर हालत में करने चाहिए, झूठ तो बोल ही नहीं सकते' आदि अपने इन विचारों की बदौलत मैं अपने जीवनमें कई संकटोंसे बच गया हूं।

मैं ऊपर कह आया हूं कि कस्तूरबाई निरक्षर थीं। उन्हें पढ़ानेकी मुझे बड़ी चाह थी। पर मेरी विषय-वासना मुझे कैसे पढ़ाने देती? एक तो मुझे उनकी मर्जीके खिलाफ पढ़ाना था, फिर रातमें ही ऐसा मौका मिल सकता था। बुजुर्गोंके सामने तो पत्नीकी तरफ देखतक नहीं सकते-बात करना तो दूर रहा। उस समय काठियावाड़में घूंघट निकालनेका निरर्थक और जंगली रिवाज था, आज भी थोड़ा-बहुत बाकी है। इस कारण पढ़ानेके अवसर भी मेरे प्रतिकूल थे। इसलिए मुझे कहना होगा कि युवावस्थामें पढ़ानेकी जितनी कोशिशें-मैंने कीं वे सब प्रायः बेकार गईं; और जब मैं विषय-निद्रासे जगा तो तब सार्वजनिक जीवनमें पड़ चुका था। इस कारण अधिक समय देने योग्य मेरी स्थिति नहीं रह गई थी। शिक्षक रखकर पढ़ानेके मेरे यत्न भी विफल हुए। इसके फलस्वरूप आज कस्तूरबाई मामूली चिट्ठी-पत्री व गुजराती लिखने-पढ़नेसे अधिक साक्षर न होने पाईं। यदि मेरा प्रेम विषयसे दूषित न हुआ होता, तो मैं मानता हूं आज वह विदुषी हो गई होतीं। उनके पढ़नेके आलस्यपर मैं विजय प्राप्त कर पाता। क्योंकि मै जानता हूं कि शुद्ध प्रेमके लिए दुनियामें कोई बात असंभव नहीं।

इस तरह अपनी पत्नीके साथ विषय-रत रहते हुए भी मैं कैसे बहुत[ ३२ ]
कुछ बच गया, इसका एक कारण मैंने ऊपर बताया। इस सिलसिले में एक और बात कहने जैसी है। सैकड़ों अनुभवोंसे मैंने यह निचोड़ निकाला है कि जिसकी निष्ठा सच्ची है, उसे खुद परमेश्वर ही बचा लेता है। हिंदू-संसारमें जहां बाल-विवाहकी घातक प्रथा है, वहां उसके साथ ही उसमेंसे कुछ मुक्ति दिलाने वाला भी एक रिवाज है। बालक वर-वधू को मां-बाप बहुत समयतक एकसाथ नहीं रहने देते। बाल-पत्नीका आधेसे ज्यादा समय मायके में जाता है। हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ। अर्थात् हम १३ और १८ सालकी उमरके दरमियान थोड़ा-थोड़ा करके तीन सालसे अधिक साथ न रह सके होंगे। छ:-आठ महीने रहना हुआ नहीं कि पत्नीके मां-बापका बुलावा आया नहीं। उस समय तो वे बुलावे बड़े नागवार मालूम होते। परंतु सच पूछिए तो उन्हींके बदौलत हम दोनों बहुत बच गये। फिर १८ सालकी अवस्थामें मैं विलायत गया-लंबे और सुन्दर वियोगका अवसर आया। विलायतसे लौटनेपर भी हम एकसाथ तो छः महीने मुश्किलसे रहे होंगे, क्योंकि मुझे राजकोट-बंबई बार-बार आना-जाना पड़ता है। फिर इतने में ही दक्षिण अफ्रीका का निमंत्रण आ पहुँचा-और इस बीच तो मेरी आंखें बहुत-कुछ खुल भी चुकी थीं।


हाई स्कूलमें

मैं पहले लिख चुका हूं कि जब मेरा विवाह हुआ तब मैं हाईस्कूलमें पढ़ता था। उस समय हम तीनों भाई एक ही स्कूलमें पढ़ते थे। बड़े भाई बहुत ऊपरके दरजेमें थे और जिन भाईका विवाह मेरे साथ हुआ वह मुझसे एक दरजा आगे थे। विवाहका परिणाम यह हुआ कि हम दोनों भाइयोंका एक साल बेकार गया। मेरे भाईको तो और भी बुरा परिणाम भोगना पड़ा। विवाहके पश्चात् वह विद्यालयमें रह ही न सके। परमात्मा जाने, विवाह के कारण कितने नवागंतुकोंको ऐसे अनिष्ट परिणाम भोगने पड़ते हैं। विद्याध्ययन और विवाह ये दोनों बातें हिंदु-समाजमें ही एक साथ हो सकती हैं ।

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