सत्य के प्रयोग/ हाई स्कूलमें

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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हाई स्कूलमें

मैं पहले लिख चुका हूं कि जब मेरा विवाह हुआ तब मैं हाईस्कूलमें पढ़ता था। उस समय हम तीनों भाई एक ही स्कूलमें पढ़ते थे। बड़े भाई बहुत ऊपरके दरजेमें थे और जिन भाईका विवाह मेरे साथ हुआ वह मुझसे एक दरजा आगे थे। विवाहका परिणाम यह हुआ कि हम दोनों भाइयोंका एक साल बेकार गया। मेरे भाईको तो और भी बुरा परिणाम भोगना पड़ा। विवाहके पश्चात् वह विद्यालयमें रह ही न सके। परमात्मा जाने, विवाह के कारण कितने नवागंतुकोंको ऐसे अनिष्ट परिणाम भोगने पड़ते हैं। विद्याध्ययन और विवाह ये दोनों बातें हिंदु-समाजमें ही एक साथ हो सकती हैं । [ ३३ ]मेरा अध्ययन चलता रहा। हाईस्कूलमें मैं बुद्धू नहीं माना जाता था। शिक्षकोंका प्रेम हमेशा संपादन करता रहा। हर साल मां-बाप को विद्यार्थीकी पढ़ाई तथा चाल-चलनेके संबंधमें स्कूलसे प्रमाण-पत्र भेजे जाते। उनमें किसी बार मेरी पढ़ाई या चाल-चलनकी शिकायत नहीं की गई। दूसरे दरजेके बाद तो इनाम भी पाये और पांचवें तथा छठे दरजेमें तो क्रमशः ४) और १०) मासिककी छात्रवृत्तियां भी मिली थीं। छात्र-वृत्ति मिलनेमें मेरी योग्यताकी अपेक्षा तकदीरने ज्यादा मदद की। छात्रवृतियां सब लड़कोंके लिए नहीं थीं, सिर्फ सोरठ प्रांतके विद्यार्थियोंके लिए ही थीं और उस समय चालीस-पचास विद्यार्थियोंकी कक्षामें सोरठ-प्रांतके विद्यार्थी बहुत नहीं हो सकते थे।

अपनी तरफसे तो मुझे याद पड़ता है कि मैं अपनेको बहुत योग्य नहीं समझता था। इनाम अथवा छात्रवृति मिलती तो मुझे आश्चर्य होता; परंतु हां, अपने आचरणका मुझे बड़ा खयाल रहता था। सदाचारमें यदि चूक होती तो मुझे रोना आ जाता। यदि मुझसे कोई ऐसा काम बन पड़ता कि जिसके लिए शिक्षकको उलाहना देना पड़े, अथवा उनका ऐसा खयाल भी हो जाय, तो यह मेरे लिए असह्य हो जाता। मुझे याद है कि एक बार मैं पिटा भी था। मुझे इस बातपर तो दुःख न हुआ कि पिटा; परंतु इस बात का महादु:ख हुआ कि मैं दंडका पात्र समझा गया। मैं फूट-फूटकर रोया। यह घटना पहली अथवा दूसरी कक्षाकी है। दूसरी घटना सातवें दर्जे की है। उस समय दोराबजी एदलजी गीमी हेड-मास्टर थे। वह विद्यार्थी-प्रिय थे। क्योंकि वह सबसे नियमोंका पालन करवाते, विधिपूर्वक काम करते और काम लेते तथा पढ़ाई अच्छी करते। उन्होंने ऊंचे दरजेके विद्यार्थियोंके लिए कसरत-क्रिकेट लाजिमी कर दी थी। लेकिन मुझे उनसे अरुचि थी। लाजिमी होनेके पहले तो मैं कसरत, क्रिकेट या फुटबॉलमें कभी न जाता था। न जानेमें मेरा झेंपूपन भी एक कारण था। किंतु अब मैं देखता हूं कि कसरतको वह अरुचि मेरी भूल थी। उस समय मेरे ऐसे गलत विचार थे कि कसरत का शिक्षाके साथ कोई संबंधी नहीं। पीछे जाकर मैंने समझा कि व्यायाम अर्थात् शारीरिक शिक्षाके लिए भी विद्याध्ययनमें उतना ही स्थान होना चाहिए जितना मानसिक शिक्षाको है।

फिर भी मुझे कहना चाहिए कि कसरतमें न जाने से मुझे कोई नुकसान [ ३४ ] न हुआ। इसका कारण है। पुस्तकोंमें मैंने पढ़ा था कि खुली हवामें घूमना अच्छा होता हैं। यह मुझे पसंद आया और तभीसे- हाईस्कूलके दिनोंसे- घूमने जानेकी आदत मुझे पड़ गई थी, जो अबतक है। घूमना भी एक प्रकारका व्यायाम ही है। और इस कारण मेरा शरीर थोड़ा-बहुत गठीला हो गया।

अरुचिका दूसरा कारण था पिताजीकी सेवा-शुश्रूषा करने की तीव्र इच्छा। स्कूल बंद होते ही तुरंत घर पहुंचकर उनकी सेवामें जुट जाता। लेकिन जब कसरत लाजिमी कर दी गई तब इस सेवामें विघ्न आने लगा। मैंने गीमी साहबसे अनुरोध किया कि पिताजीकी सेवा करनेके लिए मुझे कसरतसे माफी मिलनी चाहिए, परंतु वे क्यों माफी देने लगे? एक शनिवारको सुबहका स्कूल था। शामको ४ बजे कसरतमें जाना था। मेरे पास घड़ी न थी। आकाशमें बादल छा रहे थे, इस कारण समयका पता न चला। बादलोंसे मुझे धोखा हुआ। जबतक कसरतके लिए पहुंचता हूं तबतक तो सब लोग चले गये थे। दूसरे दिन गीमी साहबने हाजिरी देखी तो मुझे गैरहाजिर पाया। मुझसे कारण पूछा। कारण तो जो था, सो ही मैंने बताया। उन्होंने उसे सच न माना और मुझपर एक या दो आना (ठीक याद नहीं कितना) जुर्माना हो गया। मुझे इस बातसे अत्यंत दुःख हुआ कि मैं झूठा समझा गया। मैं यह कैसे साबित करता कि मैं झूठ नहीं बोला। पर कोई उपाय न रहा था। मन मसोसकर रह जाना पड़ा। मैं रोया और समझा कि सच बोलनेवाले और सच करनेवालेको गाफिल भी न रहना चाहिए। अपनी पढ़ाईके दरमियान मुझसे ऐसी गफलत वह पहली और आखिरी थी। मुझे कुछ-कुछ स्मरण है कि अंतको मैं वह जुर्माना माफ करा पाया था।

अंतको कसरतसे छुट्टी मिल ही गई। पिताजीकी चिट्ठी जय हेडमास्टर-को मिली कि मैं अपनी सेवा-सुश्रूषाके लिए स्कूलके बाद इसे अपने पास चाहता हूं, तब उससे छुटकारा मिल गया।

व्यायामकी जगह मैंने घूमना जारी रक्खा। इस कारण शरीरसे मेहनत न लेनेकी भूलके लिए शायद मुझे सजा न भोगनी पड़ी हो; परंतु एक दूसरी भूलकी सजा मैं आजतक पा रहा हूं। पढ़ाई में खुशखत होनेकी जरूरत नहीं, यह गलत खयाल मेरे मनमें जाने कहांसे आ घुसा था, जो ठेठ विलायत जानेतक रहा। फिर, और खासकर दक्षिण अफ्रीकामें, जहां वकीलोंके और दक्षिण अफ्रीकामें [ ३५ ]
जन्मे और पढ़े नवयुवकोंके मोतीकी तरह अक्षर देखे तब तो बहुत लजाया और पछताया। मैंने देखा कि बेडौल अक्षर होना अधूरी शिक्षाकी निशानी है। अतः मैंने पीछेसे अपना खत सुधारनेकी कोशिश भी की, परंतु पक्के घड़ेपर कहीं मिट्टी चढ़ सकती है? जवानीमें जिस बातकी अवहेलना मैंने की उसे मैं फिर आजतक न सुधार सका। अतः हरेक नवयुवक और युवती मेरे इस उदाहरणको देखकर चेते और समझें कि सुलेख शिक्षा का एक आवश्यक अंग है। सुलेखके लिए चित्रकला आवश्यक है। मेरी तो यह राय बनी हैं कि बालकोंकोे आलेखन कला पहले सिखानी चाहिए। जिस प्रकार पक्षियों और वस्तुओं आदिको देखकर बालक उन्हें याद रखता है और आसानीसे पहचान लेता है उसी प्रकार अक्षरोंको भी पहचानने लगता है और जब आलेखन या चित्रकला सीखकर चित्र इत्यादि निकालना सीख जाता है तब यदि अक्षर लिखना सीखे तो उसके अक्षर छापेकी तरह हो जावें।

इस समयके मेरे विद्यार्थी-जीवन की दो बातें लिखने जैसी हैं। विवाहके बदौलत जो मेरा एक साल छूट गया था उसकी कसर दूसरी कक्षामें पूरी करानेकी प्रेरणा मास्टर साहबने की। परिश्रम विद्यार्थियों को ऐसा करनेकी इजाजत उन दिनों तो मिलती थी। अतएव मैं छः महीने तीसरे दरजे में रहा और गर्मियोंकी छुट्टी के पहलेवाली परीक्षाके बाद चौथे दरजेमें चढ़ा दिया। इस कक्षा से कुछ विषयोंकी शिक्षा अंग्रेजीमें दी जाती है, पर अंग्रेजी में कुछ न समझ पाता। भूमिति-रेखागणित भी चौथे दरजेसे शुरू होता है। एक तो मैं उसमें कमजोर था, और फिर समझमें भी कुछ न आता था। भूमिति-शिक्षक पढ़ानेमें तो अच्छे थे, पर मेरी कुछ समझ हीमें न आता था। इससे मैं बहुत बार निराश हो जाता। कभी-कभी यह भी दिलमें आता कि दो दरजोंकी पढ़ाई एक साल में करनेसे तो अच्छा हो कि मैं तीसरी कक्षामें ही फिर चला जाऊं। पर ऐसा करनेसे मेरी बात बिगड़ती और जिस शिक्षकने मेरी मेहनतपर विश्वास रखकर दरजा चढ़ानेकी सिफारिश की थी उनकी भी बात बिगड़ती। इस भयसे नीचे उतरनेका विचार तो बंद ही रखना पड़ा। आखिर परिश्रम करते-करते जब 'युक्लिड' के तेरहवें प्रमेयतक पहुंचा तब मुझे एकाएक लगा कि भूमिति तो सबसे सहज विषय है। जिस बातमें केवल बुद्धिका सीधा और सरल उपयोग ही करना है उसमें मुश्किल क्या है? उसके बाद से भूमिति मेरे लिए बड़ा सहज और रोचक विषय हो गया। [ ३६ ]संस्कृत मुझे रेखागणितसे भी अधिक मुश्किल मालूम पड़ी। रेखागणितमें तो रटनेकी कोई बात न थी, परंतु संस्कृतमें, मेरी समझसे, सब रटना ही रटना था। यह विषय भी चौथी कक्षासे शुरू होता था। आखिर छठी कक्षामें जाकर मेरा दिल बैठ गया। संस्कृत-शिक्षक बड़े सख्त आदमी थे। विद्यार्थियोंको बहुतेरा पढ़ा देनेका लोभ उन्हें रहा करता। संस्कृत-वर्ग और फारसी-वर्ग में एक प्रकार की प्रतिस्पर्धा रहती। फारसीके मौलवी साहब नरम आदमी थे। विद्यार्थी लोग आपसमें बातें करते कि फारसी बड़ी सरल हैं, और मौलवी साहब भी भले आदमी हैं। विद्यार्थी जितना याद करता है, उतनेही पर वह निभा लेते हैं। सहज होनेकी बातसे मैं भी ललचाया और एक दिन फारसीके दरजेमें जाकर बैठा। संस्कृत शिक्षकको इससे बड़ा दु:ख हुआ। उन्होंने मुझे बुलाया-"यह तो सोचो कि तुम किसके लड़के हो? अपने धर्मकी भाषा तुम नहीं पढ़ना चाहते? तुमको जो कठिनाई हो सो मुझे बताओं। मैं तो सारे विद्यार्थियोंको अच्छी संस्कृत पढ़ाना चाहता हूं। आगे चलकर तो उसमें तुम्हें रसकी घूंटें मिलेंगी। अतः तुमको इस तरह निराश न होना चाहिए। तुम फिर मेरी कक्षामें आकर बैठो।" मैं शरमिंदा हुआ। उन शिक्षक के इस प्रेमकी अवहेलना न कर सका। आज मेरी अंतरात्मा कृष्णशंकर मास्टरका उपकार मानती है, क्योंकि जितनी संस्कृत मैंने उस समय पढ़ी थी, यदि उतनी भी न पढ़ा होता तो आज मैं संस्कृत-शास्त्रोंका जो आनंद ले रहा हूं वह न ले पाता। बल्कि मुझे तो इस बातका पछतावा रहता है कि मैं अधिक संस्कृत न पढ़ सका। क्योंकि आगे चलकर मैंने समझा कि किसी भी हिंदू-बालकको संस्कृतका अच्छा अध्ययन किये बिना न रहना चाहिए।

अब तो मैं यह मानता हूं कि भारतवर्षके उच्च शिक्षण-क्रम में मातृभाषाके उपरांत राष्ट्रभाषा हिंदी,[१] संस्कृत, फारसी, अरबी और अंग्रेजीके लिए भी स्थान होना चाहिए। इतनी भाषाओंकी गिनतीसे किसीको डर जानेकी जरूरत नहीं; यदि भाषाएं विधिपूर्वक पढ़ाई जायं और सब विषयोंका अध्ययन अंग्रेज़ी के द्वारा करनेका बोझ हमपर न हो तो पूर्वोक्त भाषाएं भाररूप न मालूम हो, बल्कि उनमें बड़ा रस आने लगे। फिर जो एक भाषाको विधि-पूर्वक सीख लेता। [ ३७ ]हैं उसे दूसरी भाषाओं का ज्ञान सुगम हो जाता है। सच पूछिए तो हिंदी, गुजराती, संस्कृत ये एक भाषा मानी जा सकती हैं। यही फारसी और अरबी के लिए कह सकते हैं। फारसी यद्यपि संस्कृतसे मिलती-जुलती है, और अरबी हिब्रुसे; तथापि दोनों भाषाएं इस्लामके प्रादुर्भावके पश्चात् फली-फूली हैं, इसलिए दोनोंमें निकट संबंध है। उर्दू को मैंने पृथक् भाषा नहीं माना, क्योंकि उसके व्याकरणका समावेश हिंदीमें होता हैं। अलबत्ता उसके शब्द फारसी और अरबी ही हैं। ऊंचे दरजेकी उर्दू जाननेके लिए अरबी और फारसी जानना आवश्यक होता है, जैसा कि उच्च कोटिकी गुजराती, हिंदी, बंगला, मराठी जाननेवालेके लिए संस्कृत जानना ज़रूरी है।

  1. अब इसे गांधीजी 'हिंदुस्तानी' कहते हैं।-अनु.