सत्य के प्रयोग/ पत्नीकी दृढ़ता

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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३२८ त्मि-कथा : भाग ४ ही कम हैं और ऐसा करते हुए यदि अनेक शरीरोंकी आहुति देना पड़े तो भी हमें उसकी परवा न करनी चाहिए। पर अभी आज-कल उल्टी गंगा बह रही है । नाशवान् शरीरको सुशोभित करने और उसकी आयुको बढ़ानेके लिए हम अनेक प्राणियोंका बलिदान करते हैं। पर यह नहीं समझते कि उससे शरीर और आत्मा दोनोंका हनन होता है । एक रोगको मिटाते हुए, इंद्रियोंके भोगोंको भोगनेका उद्योग करते हुए, हम नये-नये रोग पैदा करते हैं और अंतको भोग भोगनेकी शक्ति' भी खो बैठते हैं। सबसे बढ़कर आश्चर्यकी बात तो यह है कि इस क्रियाको अपनी आंखोंके सामने होते हुए देखकर भी हम उसे देखना नहीं चाहते । | भोजुनके प्रयोगोंका अभी मैं और वर्णन करना चाहता हूं; इसलिए उसका उद्देश्य और तद्विषयक मेरी विचार-सरणि पाठकोंके सामने रख देना आवश्यक था । पत्नीकी दृढ़ता कस्तूरबाईपर तीन घात हुई और तीनोंमें वह महज घरेलू इलाजसे बच गई। पहली घटना तो तबकी है जब सत्याग्रह-संग्राम चल रहा था । उसको बार-बार रक्तस्राव हुआ करता । एक डाक्टर भित्रने नश्तर लगवानेकी सलाह दी थी। बड़ी आनाकानीके बाद वह नश्तरके लिए राजी हुई। शरीर बहुत क्षीण हो गया था । डाक्टरने बिना बेहोश किये ही नश्तर लगाया । उस समय उसे दर्द तो बहुत हो रहा था; पर जिस धीरजसे कस्तूरबाईने उसे सहन किया है उसे देखकर मैं दांतों तले अंगुली देने लगा । नतर अच्छी तरह लग गया । डाक्टर और उसकी धर्मपत्नीने कस्तुरबाईकी बहुत अच्छी तरह शुश्रूषा की । यह घटना डरबनकी है। दो या तीन दिन बाद डॉक्टरने मुझे निश्चित होकर जोहान्सबर्ग जानेकी छुट्टी दे दी । मैं चला भी गया; पर थोड़े ही दिनमें • समाचार मिले कि कस्तूरबाईका शरीर बिलकुल सिमटता नहीं हैं और वह बिछौनेसे उठ-बैठ भी नहीं सकती । एक बार बेहोश भी हो गई थी। डाक्टर जानते थे कि सझसे पूछे बिना कस्तूरबाईको शराब या मांस--वामें अथवा [ ३४९ ]________________

अध्याय २८ : पत्नीको दृढ़ता भोजतर्भ----नहीं दिया जा सकता था । तो उन्होंने मुझे जोहान्सबर्ग टेलीफोन किया-- “आपकी पत्नीको में मांसका शोरवा और 'बीफ टी' देने की जरूरत समझता हूं। मुझे इजाजत दीजिए ।' | मैंने जवाब दिया, “मैं तो इजाजत नहीं दे नुकता । परंतु कस्तूरबाई आजाद है। उसकी हालत पूछने लायक हो तो पूछ देखिए और वह लेना चाहे तो ज़रूर दीजिए । “बीमारसे में ऐसी बातें नहीं पूछना चाहता । ग्राप खुद यहां आ जाइए । जो चीजें में बताता हूँ उनके खानेको इजाजत यदि अप न दें तो मैं आपकी पत्नी की जिंदगीके लिए जिम्मेदार नहीं हूं। यह सुनकर मैं उन दिन डरबन रवाना हुआ । डाक्टरले मिलने उन्होंने कहा--- " मैंने तो शोरबा पिलाकर आपको टेलीफोन किया था।" मैंने कहा--- “डाक्टर, यह तो विश्वासघात है । इलाज करते वक्त मैं दगा-वगा कुछ नहीं समझता । हम' डाक्टर लो; ऐसे समय बीमारको, उसके रिश्तेदारोको, धोखा देना पुण्य समझते हैं। हमारा धर्म तो है जिस तरह हो सके रोगीको बचाना । " डाक्टरने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया ।। यह सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ । पर मैने शांति धारण की । डाक्टर मित्र थे, सज्जन थे । उनका और उनकी पत्नीका मुझपर बड़ा अहसान था । पर में उनके इस व्यवहारको बर्दाश्त करनेके लिए तैयार न था । । * डाक्टर, अब साफ-साफ बातें कर लीजिए । बताइए, अप क्या करना चाहते हैं ? मेरी पत्नीको बिना उसकी इच्छाके मांस नहीं देने दूंगा, उसके न लेनेसे यदि वह मरती हो तो इसे सहन करनेके लिए मैं तैयार हूं।" डाक्टर बोले-..-"आपकः यह सिद्धांत मेरे घर नहीं चल सकता है | तो आपसे कहता हूं कि आपकी पत्न' जबतक मेरे यहां है तबतक मैं भांस अथवा जो कुछ देना मुनासिब समझंग जरूर दूंगा। अगर आपको यह मंजूर नहीं हैं तो आप अपनी पत्नीको यहांसे ले जाइए। अपने ही घर में इस तरह उन्हें नहीं मरने दूंगा।" [ ३५० ]________________

आत्म-कथा : भY ४ 1: तो क्या आपका यह मतलब है कि मैं पत्नीको अभी ले जा ?? 4 में कहां कहता हूं कि ले जाओ । मैं तो यह कहता हूं कि मुझपर कोई शर्त न लादो तो हम दोनोंसे इनकी जितनी सेवा हो सकेगी करेंगे और आप आरामसे जाइए। जो यह सीधी-सी बात समझमें न आती हो तो मुझे मजबूरीसे कहना होगा कि आप अपनी पत्नीको मेरे धरसे ले जाइए।" मेरा खयाल है कि मेरा एक लड़का उस समय मेरे साथ था । उससे मैंने पूछा तो उसने कहा--- "हां, आपका कहना ठीक है । बा को मांस कैसे दे सकते हैं ? फिर मैं कस्तूरबाईके पास गया । वह बहुत कमजोर हो गई थी । उससे कुछ भी पूछना मेरे लिए-दुःखदायी था। पर अपना धर्म समझकर मैने ऊपर बातचीत उसे थोड़े में समझा दी। उसने दृढ़तापूर्वक जवाब दिया--- “मैं मांसका शोरबा नहीं लेंगी । यह मनुष्य-देह बार-बार नहीं मिला करती । आपकी गोदी मैं मर जाऊं तो परवाह नहीं; पर अपनी देहको मैं भ्रष्ट नहीं होने देंगी ।” मैंने उसे बहुतेरा समझाया और कहा कि तुम मेरे विचारोंके अनुसार, चलनेके लिए बाध्य नहीं हो । मैने उसे यह भी बता दिया कि कितने ही अपने परिचित हिंदू भी दबाके लिए शराब और मांस लेने परहेज नहीं करते । पर वह अपनी बातसे बिलकुल न डिगी और मुझसे कहा-- “मुझे यहांसे ले चलो।".. यह देखकर में बड़ा खुश हुआ। किंतु ले जाते हुए बड़ी चिंता हुई । .. पर मैंने तो निश्चय कर ही डाला और डाक्टरको भी पत्नीका निश्चय' सुना दिया है : | वह बिगड़कर बोले---- “आप तो बड़े घातक पति मालूम होते हैं । ऐसी नाजुक हालत उस बेबारीसे ऐसी बात करते हुए आपको शरम नहीं मालूम हुई ? मैं कहता हूं कि आपकी पत्नीकी हालत यहांसे ले जानेके लायक नहीं हैं। उनके शरीर की हालत ऐसी नहीं है कि जरा भी धक्का सहन कर सके। रास्ते ही दम निकल जाय तो ताज्जुब नहीं । फिर भी आप हठ-धर्मसि न माने तो आप जाने । यदि शोरबा न देने में तो एक रात भी उन्हें मेरे घर में रखनेकी' जोखिम में नहीं लेता ।" रिमझिम-रिमझिम में बरस रहा था। स्टेशन दूर था । डरबनसे. फिनिक्सतक रेल रास्ते और फिनिक्ससे लगभग ढाई मीलतक पैदल जाना था । [ ३५१ ]________________

अध्याय २४ : पत्तीकी दृढ़त खतरा पूरा-पूरा था । पर मैंने यही सोच लिया कि ईश्वर सुन्न तरह मदद करेगा । पहले एक आदमीको फिनिक्स भेज दिया । फिनिक्समें हमारे यहां एक हैमक था । हुँमक कहते हैं। जालीदार कपड़े की झोली अथवा पालनेको । उसके सिरोंको बांससे बांध देने पर बीमार उसमें आभसे झूला करता है। मैंने वेस्टको कहलाया कि वह है मक, एक बोतल गरम दूध, एक बोतल गरम पानी अौर छः आदमियोंको लेकर फिनिक्स स्टेशनपर आ जायं ।। | जब दूसरी ट्रेन चलने का समय हुआ तब मैंने रिक्शा मंगाई और उस भयंकर स्थिति पत्नीको लेकर चल दिया ।। पत्नीकी हिम्मत दिलानेकी मुझे जरूरत नहीं पड़ी, उलटा मुझीको हिम्मत दिलाते हुए उसने कहा--- "मुझे कुछ नुकसान न होगा, आप चिंता न करें । | इस कठरीमें वजन तो कुछ रही नहीं गया था । खाना पेट में जाता ही न था। ट्रेन के डब्बेतक पहुंचनेके लिए स्टेशनके लंबे-चौड़े प्लेटफार्म पर दूरक चलकर जाना था; क्योंकि रिक्शा वहांतक पहुंच नहीं सकती थी । मैं उसे सहारा देकर डब्बेतक ले गया । फिनिक्स स्टेशनपर तो वह झोली आ गई थी, उसमें हम रोगीको आराम से घराक ले गये । वहां केवल पानीके उपचारसे धीरे-धीरे उसका शरीर बनने लगा। फिनिक्स पहुंचनेके दो-तीन दिन बाद एक स्वामीजी हमारे यहां पधारे । जब हमारी -धर्मीकी कथा उन्होंने सुनी तो हमपर उनको बड़ा तरस आया और वह हम दोनोंको समझाने लगे । मुझे जहांतक याद आता है, मणिलाल और रामदास भी उस समय मौजूद थे। स्वामीजीने मांसाहारकी निर्दोषतीपर एक व्याख्यान झाड़ा; मनुस्मृति के श्लोक सुनाये । पत्नीके सामने जो इसकी बहस उन्होंने छेड़ी, यह मुझे अच्छा न मालूम हुआ; परंतु शिष्टाचारकी खातिर मैंने उसमें दखल न दिया । मुझे मांसाहारके समर्थनमें मनुस्मृतिके प्रमाणको आवश्यकता न थी। उनका पता मुझे था। मैं यह भी जानता था कि ऐसे लोग भी हैं जो उन्हें प्रक्षिप्त समझते हैं । यदि वे प्रक्षिप्त न हो तो भी अनाहार-वधी भेरे विचार स्वतंत्र-रूपसे बन चुके थे; पर कस्तुरबाई की तो श्रद्धा ही काम कर रही थी, वह बेचारी शास्त्र के प्रमाणको क्या जानती ? उसके नजदीक तो परम्परागत रूढ़ि ही धर्म था । लड़कोंको अपने पिताके धर्मपर विश्वास था, इससे वे स्वामीजीके साथ विनोद कुरते जाते

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