सत्य के प्रयोग/ भोजनके और प्रयोग

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ३४६ ]इसलिए इन प्रयोगोंके प्रसंगोंके क्रमको जो सज्जन अविच्छिन रखना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे अब अपने सामने 'दक्षिण अफ्रीकाके इतिहास के उन अध्यायोंको रख लें।


भोजनके और प्रयोग

अब मुझे एक फिक्र तो यह लगी कि मन, कर्म और वचनसे ब्रह्मचर्यका . पालन किस प्रकार हो और दूसरी यह कि सत्याग्रह-संग्राम के लिए अधिक-से-अधिक समय किस तरह बचाया जाय और अधिक शुद्धि कैसे हो। इन दो फिक्रोने मुझे अपने भोजनमें अधिक संयम और अधिक परिवर्तनकी प्रेरणा की। फिर जो परिवर्तन मैं पहले मुख्यतः आरोग्यकी दृष्टिसे करता था वे अब धार्मिक दृष्टिसे होने लगे। इसमें उपवास और अल्पाहारने अधिक स्थान लिया। जिनके अंदर विषय-वासना रहती है उनकी जीभ बहुत स्वाद-लोलुप रहती है । यही स्थिति मेरी भी थी। जननेंद्रिय और स्वाद्रियपर कब्जा करते हुए मुझे बहुत विडंबनाएं सहनी पड़ी है और अब भी मैं यह दावा नहीं कर सकता कि इन दोनोंपर मैंने पूरी विजय प्राप्त कर ली है । मैंने अपनेको अत्याहारी माना है । मित्रोंने जिसे मेरा संयम माना है उसे मैंने कभी वैसा नहीं माना। जितना अंकुश मैं अपनेपर रख सका हूं उतना यदि न रख सका होता तो मैं पशुसे भी गया-बीता होकर अबतक कभीका नाशको प्राप्त हो गया होता ! मैं अपनी खामियोंको ठीक-ठीक जानता हूं और कह सकता हूं कि उन्हें दूर करनेके लिए मैंने भारी प्रयत्न किये है। और उससे मैं इतने सालतक इस शरीरको टिका सका हूं और उससे कुछ काम ले सका हूं ।

इस वातका भान होने के कारण और इस प्रकारको संगति अनायास मिल जाने के कारण मैंने एकादशीके दिन फलाहार अथवा उपवास शुरू किये। जन्माष्टमी' इत्यादि दूसरी तिथियोंपर भी उपवास करने लगा; परंतु संयमकी दृष्टिसे फलाहार और अन्नाहारमें मुझे बहुत भेद दिखाई न दिया । अनाजके नामसे हम जिन वस्तुओंको जानते हैं उनमें से जो रस मिलता है वहीं फलाहारसे [ ३४७ ]
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अभ्यास २७ : भोजनके और प्रयोग

ফ্লাঃ ১ ; মীন সীং এমী भी मिलता है और आदत पड़ने के बाद तो मैंने देखा कि उनले अधिन ही रस मिनट है। इस कारण इन तिथियोंके दिन' सुख उपवास अथवा काकाने को अधिक महत्व देता था। फिर प्रायश्चित्त आदिका कोई निमित्त मिल जाता है उस दिन भर एकासन्हा कर डालता । इसने मैंने यह अनुभव किया कि शररके अधिक स्वच्छ हो जानेसे लकी वृद्धि हुई, भूख बढ़ी और मैंने देखा कि उग्रवादि जहां एक ओर संयम सावन है वहीं दूसरी ओर वे भोरके सावन : बद सकते हैं। यह ज्ञान हो जाने पर इसके समर्थनमें उसी प्रकारके मेरे तथा दूसरोके कितने ही अनुभव हुए हैं। मुझे तो यद्यपि अपना शरीर अधिक अच्छा और सुगठन बनाना था तथापि अब तो मुख्य हेतु था संयमको साधना और रसोंको जीतना । इसलिए भोजनकी चीजों और उनकी मात्रामें परिवर्तन करने लगा, परंतु रस तो हाथ धोकर पीछे ही पड़े रहते ! एक वस्तुको छोड़कर जब उसकी जगह दूसरी वस्तु लेता तो उससे भी नये और अधिक रस उत्पन्न होने लगते ।। | इन प्रयोग में मेरे साथ और साथी भी थे । हरसद केलदर्जक इन मुख्य थे । इनका परिचय दक्षि-अझीकाके सत्याग्रहके इतिहा' में दे चुका हैं ! इसलिए फिर यहां देनेका इरादा छोड़ दिया है। उन्होंने मेरे प्रत्येक उपवार, एकासने एवं दूसरे परिवर्तन में, मेरा साथ दिया था। जब हमारे आंदोलनका रं खूब जमा था तब तो मैं उन्हींके धरमें रहता था। हम दोनों अपने इन परिबर्तन्दोंके विषयमें चर्चा करते और नये परिवर्तनोंमें पुराने रसोंसे भी अधिक रस पीते । उस समय तो ये संवाद बड़े मीठे भी लगते थे। यह नहीं मालूम होता था कि उनमें कोई बात अनुचित होती थी । पर अनुभवने सिखाया कि ऐसे रसोंमें गोते खाना भी अनुचित था । इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्यको रसके लिए नहीं बल्कि शरीरको कायम रखने के लिए ही भोजन करना चाहिए । प्रत्येक इंद्रियां जब केवल शरीरके और शरीरके द्वारा आत्माके दर्शनके ही लिए काम करती है तब उसके इस शून्यवत् हो जाते हैं और तभी कह सकते हैं कि वह स्वाभाविक रूपमें अपना काम करती है ।। ऐसी स्वाभाविकता प्राप्त करनेके लिए जितने प्रयोग कियें जायं उनै

३ दिनमें एक बार भोजन करना।

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