सत्य के प्रयोग/ प्रिटोरिया में पहला दिन
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अभिवचन मैंने दिया था। वकीलने किसी भी आदमीको स्टेशनपर नहीं भेजा। पीछे मुझे मालूम हुआ कि जिस दिन मैं पहुंचा, रविवार था। और वह बिना असुविधा उठाये उस दिन किसीको न भेज सकते थे। मैं असमंजसमें पड़ा। कहां जाऊं? मुझे भय था कि होटलमें कहीं जगह मिलनेकी नहीं। १८९३ का प्रिटोरिया स्टेशन १९१४ के प्रिटोरिया स्टेशनसे भिन्न था। मंद-मंद बत्तियां जल रही थीं। मुसाफिर भी बहुत न थे। मैंने सोचा कि जब सब यात्री चले जायंगे तब अपना टिकट टिकट-कलेक्टरको दूंगा और उससे किसी मामूली होटल अथवा मकानका पता पूछ लूंगा; अन्यथा स्टेशनपर ही पड़कर रात काट दूंगा। इतनी पूछताछ करनेको जी न होता था; क्योंकि अपमानित होनेका भय था। आखिर स्टेशन खाली हुआ। मैंने टिकट कलेक्टरको टिकट देकर पूछ-ताछ प्रारंभ की। उसने विनय-पूर्वक उत्तर दिये। पर मैंने देखा कि उससे अधिक सहायता न मिल सकती थी। उसके नजदीक एक अमेरिकन हबशी खड़ा था। वह मुझसे बातें करने लगा—'मालूम होता है, आप बिलकुल अनजान हैं और यहां आपका कोई साथी नहीं है। आइए, मेरे साथ चलिए, मैं आपको एक छोटे-से होटलमें ले चलता हूं। उसका मालिक अमेरिकन है और उसे मैं अच्छी तरह जानता हूं। मैं समझता हूं वह आपको जगह दे देगा।' मुझे कुछ शक तो हुआ; पर मैंने उसे धन्यवाद दिया और उसके साथ जाना स्वीकार किया। वह मुझे जान्स्टनके फेमिली होटलमें ले गया। पहले उसने मि॰ जान्स्टनको एक ओर ले जाकर कुछ बातचीत की। मि॰ जान्स्टनने मुझे एक रातके लिए जगह देना मंजूर किया—वह भी इस शर्तपर कि मेरा खाना मेरे कमरेमें पहुंचा दिया जाय।
"मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि मैं तो काले-गोरेका भेदभाव नहीं रखता; पर मेरे ग्राहक सब गोरे लोग ही हैं। यदि मैं आपको भोजनालयमें ही भोजन कराऊं तो मेरे ग्राहकोंको आपत्ति होगी और शायद मेरी गाहकी टूट जाय।" मि॰ जान्स्टनने कहा।
मैंने उत्तर दिया—"मैं तो यह भी आपका उपकार समझता हूं, जो आपने एक रातके लिए भी रहनेका स्थान दिया। इस देशकी हालतसे मैं कुछ-कुछ वाकिफ हो गया हूं। आपकी कठिनाई मैं समझ सकता हूं। आप मुझे खुशीसे मेरे कमरेमें खाना भिजवा दीजिएगा। कल तो मैं दूसरा प्रबंध कर लेने की आशा
करता हूं।"
कमरा मिला। अंदर गया। एकांत मिलते ही भोजनकी राह देखता हुआ विचारोंमें लीन हो गया। इस होटलमें अधिक मुसाफिर नहीं रहते थे। थोड़ी ही देर में वेटरको भोजन लाते हुए देखनेके बजाय मि॰ जान्स्टनको देखा। उन्होंने कहा—"मैंने आपसे यह कहा तो कि खाना यहीं भिजवा दूंगा, पर बादको मुझे शर्म मालूम हुई। इसलिए मैंने अपने ग्राहकोंसे आपके संबंधमें बातचीत की और उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि भोजनालयमें आकर आपके भोजन करनेमें हमें कोई ऐतराज नहीं है। इसलिए आप चाहें तो भोजनशालामें आकर भोजन करें और जबतक चाहें यहां रहें।"
मैंने दुबारा उनका उपकार माना, भोजनशालामें खाने गया और आरामसे भोजन किया।
दूसरे दिन सुबह वकीलके यहां गया। उनका नाम था ए॰— डबल्यू॰ बेकर। उनसे मिला। अब्दुल्ला सेठने उनका थोड़ा-बहुत परिचय दे रक्खा था, इसलिए उनकी पहली मुलाकातसे मुझे कुछ आश्चर्य न हुआ। वह मुझसे बड़ी अच्छी तरह मिले और मुझसे अपना हाल-चाल पूछा, जो मैंने उन्हें बता दिया। उन्होंने कहा—"बैरिस्टरकी हैसियतसे तो आपका यहां कुछ भी उपयोग न हो सकेगा। हमने अच्छे-से-अच्छे बैरिस्टर इस मामलेमें कर लिये हैं। मुकदमा मुद्दततक चलेगा और उसमें कई गुत्थियां हैं। इसलिए आपसे तो मैं इतना काम ले सकूंगा कि आवश्यक वाकफियत वगैरा मुझे मिल जाय। हां, हमारे मुवक्किलसे पत्रव्यवहार करना अब आसान हो जायगा। और जो बातें मुझे जाननी होंगी वे आपके मार्फत उनसे मंगाई जा सकेंगी, यह लाभ जरूर है। आपके लिए मकान तो मैंने अबतक नहीं खोजा है। सोचा था कि आपसे मिल लेनेके बाद ही खोजना ठीक होगा। यहां रंग-भेद जबरदस्त है। इसलिए घर मिलना आसान भी नहीं है; परंतु एक बाईको मैं जानता हूं। वह गरीब है। भटियारेकी औरत है। मैं समझता हूं, वह आपको अपने रहां रहने देगी। उसे भी कुछ मिल जायगा। चलो वहीं चलें।"
यह कहकर यह मुझे वहां ले गये। मि॰ बेकरने पहले बाईके साथ अकेलेमें बातचीत की। उसने मुझे अपने यहां टिकाना स्वीकार किया। ३५ शिलिंग
प्रति सप्ताह देना ठहरा।
मि॰ बेकर वकील और साथ ही कट्टर पादरी भी थे। अभी वह मौजूद है। अब तो सिर्फ पादरीका ही काम करते हैं। वकालत छोड़ दी है। खा-पीकर सुखी हैं। अबतक मुझसे चिट्ठी-पत्री करते रहते हैं। चिट्ठी-पत्रीका विषय एक ही होता है। ईसाई-धर्मकी उत्तमताकी चर्चा वह भिन्न-भिन्न रूपमें अपने पत्रोंमें किया करते हैं, और यह प्रतिपादन करते हैं कि ईसामसीहको ईश्वरका एकमात्र पुत्र तारनहार माने बिना परम शांति कभी नहीं मिल सकती।
हमारी पहली ही मुलाकातमें मि॰ बेकरने धर्म-संबंधी मेरी मनोदशा जान ली। मैंने उनसे कहा—"जन्मतः मैं हिंदू हूं; पर मुझे उस धर्मका विशेष ज्ञान नहीं। दूसरे धर्मोंका ज्ञान भी कम है। मैं कहां हूं, मुझे क्या मानना चाहिए, यह सब नहीं जानता। अपने धर्मका गहरा अध्ययन करना चाहता हूं। दूसरे धर्मोंका भी यथाशक्ति अध्ययन करनेका विचार हैं।"
यह सब सुनकर मि॰ बेकर प्रसन्न हुए और मुझसे कहा—"मैं खुद 'दक्षिण अफ्रीका जनरल मिशन'का एक डाइरेक्टर हूं। मैंने अपने खर्चसे एक गिरजा बनाया है। उसमें मैं समय-समयपर धर्म-संबंधी व्याख्यान दिया करता हूं। मैं रंग-भेद नहीं मानता। मेरे साथ और लोग भी काम करनेवाले हैं। हमेशा एक बजे हम कुछ समय के लिए मिलते हैं और आत्माकी शांति तथा प्रकाश (ज्ञानके उदय) के लिए प्रार्थना करते हैं। उसमें आप आया करेंगे तो मुझे खुशी होगी। वहां अपने साथियोंका भी परिचय आपसे कराऊंगा। वे सब आपसे मिलकर प्रसन्न होंगे, और मुझे विश्वास है कि आपको भी उनका समागम प्रिय होगा। आपको कुछ धर्म-पुस्तकें भी मैं पढ़नेके लिए दूंगा। परंतु सच्ची पुस्तक तो बाइबिल ही है। मैं खास तौरपर सिफारिश करता हूं कि आप इसे पढ़े।"
मैंने मि॰ बेकरको धन्यवाद दिया और कहा कि जहांतक हो सकेगा आपके मंडलमें एक बजे प्रार्थनाके लिए आया करूंगा।
"तो कल एक बजे आप यहीं आइएगा, हम साथ ही प्रार्थना-मंदिर चलेंगे।"
और हम अपने-अपने स्थानोंको बिदा हुए। अधिक विचार करनेकी फुरसत मुझे न थी। मिस्टर जान्स्टनके पास गया। बिल चुकाया। नये घर गया और
वहीं भोजन किया। मकान-मालकिन भलीमानुस थी। उसने मेरे लिए अन्न-भोजन तैयार किया था। इस कुटुंबके साथ हिलमिल जानेमें मुझे समय न लगा। खा-पीकर मैं दादा अब्दुल्लाके उन मित्रसे मिलने गया, जिनके नाम उन्होंने प्रत्र दिया था। उनसे परिचय किया। उनसे हिंदुस्तानियोंके कष्टोंका और हाल मालूम हुआ। उन्होंने मुझे अपने यहां रहनेका आग्रह किया। मैंने उनको धन्यवाद दिया और अपने लिए जो प्रबंध हो गया था उसका हाल सुनाया। उन्होंने जोर देकर मुझसे कहा कि जिस किसी बातकी जरूरत हो, मुझे खबर कीजिएगा।
शाम हुई। खाना खाया और अपने कमरेमें जाकर विचारके भंवरमें जा गिरा। मैंने देखा कि अभी हाल तो मेरे लिए कोई काम नहीं हैं। अब्दुल्ला सेठको खबर की। मि॰ बेकर जो मित्रता बढ़ा रहे हैं इसका क्या अर्थ है? इनके धर्म-बंधुओंके द्वारा मुझे कितना ज्ञान प्राप्त होगा? ईसाई-धर्मका अध्ययन मैं किस हद तक करूं? हिंदू-धर्मका साहित्य कहांसे प्राप्त करूं? उसे जाने बिना ईसाई-धर्मका स्वरूप मैं कैसे समझ सकूंगा? मैं एक ही निर्णय कर पाया। जो चीज मेरे सामने आ जाय उसका अध्ययन मैं निष्पक्ष रहकर करूं और बेकरके समुदायको जिस समय ईश्वर जो बुद्धि दे वह उत्तर दे दिया करूं। जबतक मैं अपने धर्मका ज्ञान पूरा-पूरा न कर सकें तबतक मुझे दूसरे धर्मको अंगीकार करनेका विचार न करना चाहिए। यह विचार करते-करते मुझे नींद आ गई।
११
दूसरे दिन एक बजे मैं मि॰ बेकरके प्रार्थना-समाजमें गया। वहां कुमारी हैरिस, कुमारी गेव, मि॰ कोट्स आदिसे परिचय हुआ। सबने घुटने टेककर प्रार्थना की। मैंने भी उनका अनुकरण किया। प्रार्थनामें जिसका जो मन चाहता, ईश्वरसे मांगता। दिन शांतिके साथ बीते, ईश्वर हमारे हृदयके द्वार खोलो, इत्यादि प्रार्थना होती। उस दिन मेरे लिए भी प्रार्थना की गई। 'हमारे साथ जो यह नया भाई आया है, उसे तू राह दिखाना। तूने जो शांति हमें प्रदान की है। वह इसे भी देना। जिस ईसामसीहने हमें मुक्त किया हैं, वह इसे भी मुक्त करे।
यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।
यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।