सत्य के प्रयोग/ बंबईमें सभा

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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बंबईमें सभा बहनोईके देहांतके दूसरे ही दिन मुझे सभाके लिए बंबई जाना था। मझे इतना समय न मिला था कि अपने भाषणकी तैयारी कर रखता। जागरण करते-करते थक रहा था। आवाज भी भारी हो रही थी। यह विचार करता हुआ कि ईश्वर किसी तरह निबाह लेगा,मैं बंबई गया। भाषण लिखकर लेजाने का तो मुझे स्वप्न में भी खयाल न हुआ था।

सभाकी तिथिके एक दिन पहले शाभको पांच बजे आज्ञानुसार मैं सर फिरोजशाहके दफ्तरमें हाजिर हुआ।

" गांधी,तुम्हारा भाषण तैयार है न?" उन्होंने पूछा

" नहीं तो,मैंने जबानी ही भाषण करनेका इरादा कर रखा है।" मैंने डरते-डरते उत्तर दिया।

* बंबईमें ऐसा न चलेगा। यहांका रिपोटिंग खराब हैं, और यदि हुन चाहते हों कि इस सभासे लाभ हो तो तुम्हारा भाषा लिखित ही होना चाहिए। और रातों-रात छपा लेना चाहिए। रातहीको भाषण लिख सकोगे न?"

मैं पसोपेशमें पड़ा;परंतु मैंने लिखनेकी कोशिश करता स्वीकार किया।

तो. मुंशी तुमसे भाषण लेने कर्ज अवें?"बंबईके सिंह बोले।

* ग्यारह बजे।”मैंने उत्तर दिया।।

सर फिरोजशाहने मुंशीको हुक्म दिया कि उतने बजे जाकर मुझसे भाषण ले आत्रे और रातों-रात उसे छपा लें। इसके बाद मुझे विदा किया।

दूसरे दिन सभामें गया। मैंने देखा कि लिखित भाषण पढ़ने की सलाह कितनी बुद्धिमत्तापूर्ण थी। फीमजी कावसजी इंस्टीट्यूटके हालमें सभा थी। मैने सुन रक्खा था कि सर फिरोजशाहके भाषण सभा-भवनमें खड़े रहनेको जगह न मिलती थी। इसमें विद्यार्थी लोग खूब दिलचस्पी लेते थे।

ऐसी सभाका मुझे यह पहला अनुभव था। मुझे विश्वास हो गया कि मेरी आवाज लोगोंतक नहीं पहुंच सकती। कांपते-कांपते मैंने अपना भाषण शुरू: [ १९९ ]
किया । सर फिरोजशाह मुझे उत्साहित करते जाते-- ‘ हां, जरा और ऊंची आवाज में ! ' ज्यों-ज्यों वह ऐसा कहते त्यों-त्यों मेरी आवाज गिरती जाती थी ।

मेरे पुराने मित्र केशवराव देशपांडे मेरी मदद के लिए दौड़े । मैंने उनके हाथ में भाषण सौंपकर छुट्टी पाई । उनकी आवाज् थी तो बुलंद; पर प्रेक्षक क्यों सुनने लगे ? 'वाच्छा’, ‘ वाच्छा की पुकार से हाल गूंज उठा । अब वाच्छा उठे । उन्होंने देशपांडे के हाथ से कागज लिया और मेरा काम बन गया । सभा में तुरंत सन्नाटा छा गया और लोगों ने 'आथ से इतितक' भाषण सुना । मामूली के मुताबिक प्रसंगानुसार शर्म', 'शर्म' की अथवा करतल-ध्वनि हुई । सभा के इस फलसे मैं खुश हुआ ।

सर फिरोजशाह को भाषण पसंद आया । मुझे गंगा नहाने के बराबर संतोष हुआ ।

इस सभा के फल-स्वरूप देश पांडे तथा एक पारसी सज्जन ललचाये । पारसी सज्जन आज एक पदाधिकारी हैं, इसलिए उनका नाम प्रकट करते हुए हिचकता हूं । जज खुरशेदजी ने उनके निश्चय को डांवाडोल कर दिया । उसकी तह में एक पारसी बहन थी । विवाह करें या दक्षिण अफ्रीका जायं ? यह समस्या उनके सामने थी । अंत को विवाह कर लेना ही उन्होंने अधिक उचित समझा, परंतु इन पारसी मित्र की तरफ से पारसी रुस्तमजी ने इसका प्रायश्चित्त किया । और उस पारसी बहन की ओर से दूसरी पारसी बहनें, सेविका बनकर खादी के लिए वैराग्य लेकर, प्रायश्चित्त कर रही हैं । इस कारण इस दंपती को मैनें माफ कर दिया है । देशपांडे को विवाह का प्रलोभन तो न था; पर वह भी न आ सके । इसका प्रायश्चित्त अब वह खुद ही कर रहे हैं। लौटती बार रास्ते में जंजीबार पड़ता था। वहां एक तैयबजी से मुलाकात हुई । उन्होंने भी आनेकी आशा दिलाई थी; पर वे भला दक्षिण अफ्रीका क्यों आने लगे ? उनके न आने के गुनाह का बदला अब्बास तैयबजी चुका रहे हैं; परंतु बैरिस्टर मित्रों को दक्षिण अफ्रीका आने के लिए लुभाने के मेरे प्रयत्न इस तरह विफल हुए ।

यहां मुझे पेस्तन जी बादशाह याद आते हैं । विलायत से ही उनका मेरा मधुर संबंध हो गया था । पेस्तन जी से मेरा परिचय लंदन के अन्नाहारी [ २०० ]
भोजनालय में हुआ था। उनके भाई बरजोरजी एक ‘सनकी' आदमी थे। मैंने उनकी ख्याति सुनी थी,पर मिला न था;मित्र लोग कहते, वह‘चंक्रम (सनकी) हैं। घोड़े पर दया खाकर ट्राममें नहीं बैठते। शतावधानी की तरह स्मरण-शक्ति होते हुए भी डिग्री के फेरमें नहीं पड़ते। इतने आजाद मिजाज कि किसी के दम-झांसे में नहीं आते और पारसी होते हुए भी अन्नाहारी! पेस्तनजी की डिग्री इतनी बढ़ी हुई नहीं समझी जाती थी;पर फिर भी उनका बुद्धि-वैभव प्रसिद्ध था। विलायत में भी उनकी ऐसी ही ख्याति थी; परंतु उनके-मेरे संबंध का मूल तो था उनका अन्नाहार। उनके बुद्धि-वैभव का मुकाबला करना मेरे सामथ्थ्र के बाहर था।

बंबईमें मैंने पेस्तनजी को खोज निकाला। वह प्रोथोनोटरी थे। जब मैं मिला तब वह बृहद् गुजराती शब्द-कोषके काममें लगे हुए थे। दक्षिण अफ्रीका के कामें मदद लेने के संबंध में मैने एक भी मित्र को टटोले बिना नहीं छोड़ा था। पेस्तनजी पादशाह ने तो मुझे ही उलटे दक्षिण अफ्रीका न जानेकी सलाह दी। मैं तो भला आपको क्या मदद दे सकता हूं;पर मुझे तो आपका ही वापस लौटना पसंद नहीं। यहीं,अपने देशमें ही,क्या कम काम है? देखिए,अभी अपनी मातृ-भाषा की सेवाका ही कितना क्षेत्र सामने पड़ा हुश्रा हैं? मुझे विज्ञान-संबंधी शब्दों के पर्याय खोजना है। यह हुआ एक काम। देश की गरीबी का विचार कीजिए। हां,दक्षिण अफ्रीका में हमारे लोगों को कष्ट है;पर उसमें आप् जैसे लोग खप जायं,यह मुझे बरदाश्त नहीं हो सकता। यदि हम यहीं राज-सत्ता अपने हाथमें ले सकें तो वहां उनकी मदद अपने-श्राप हो जायगी। आपको शायद मैं न समझा सकूंगा;परंतु दूसरे सेवकों को आपके साथ ले जानेमें मैं आपको हरगिज सहायता त दूंगा। ये बातें मुझे अच्छी तो न लगीं; परंतु पेस्तन जी पादशाह के प्रति मेरा आदर बढ़ गया। उनका देश-प्रेम व भाषा-प्रेम देखकर मैं मुग्ध हो गया। उस प्रसंगके बदौलत मेरी उनकी प्रेम-गांठ मजबूत हो गई। उनके दृष्टि-बिंदुको मैं ठीक-ठीक समझ गया;परंतु दक्षिण अफ्रीका के काम को छोड़ने के बदले,उनकी दृष्टिसे भी,मुझे तो उसीपर दृढ़ होना चाहिए-यह मेरा विचार हुआ। देश-प्रेमी एक भी अंगको,जहांतक हो,न छोड़ेगा। और मेरे सामने तो गीता का श्लोक तैयार ही था--

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