सत्य के प्रयोग/ राजनिष्ठा और शुश्रूषा

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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कोई कमरा मुश्किल से बिना बदबू वाला होगा। पर एक घर में तो सोने के कमरे में मोरी और पाखाना दोनों देखे और यह सारा मैला नल में से नीचे उतरता था। इस कमरे में खड़ा होना मुश्किल था। अब पाठक ही इस बात का अंदाजा कर लें कि उसमें घर वाले सो कैसे सकते होंगे ?

समिति हवेली-वैष्णव मंदिर--देखने भी गई थी। हवेली के मुखियाजी से गांधी-कुटुंबका अच्छा संबंध था। मुखिया जी ने हवेली देखने देना तथा जितना हो सके सुधार करना स्वीकार किया। उन्होंने खुद उस हिस्से को कभी न देखा था; हवेली की पत्तलें और जूठन आदि पीछे की छत से फेंक दिये जाते। वह हिस्सा कौओं और चीलों का घर बन गया था। पाखाने तो गंदे थे ही। मुखिया जी ने कितना सुधार किया, यह मैं न देख पाया। हवेली की गंदगी देखकर दुःख तो बहुत हुआ। जिस हवेली को हम पवित्र स्थान समझते हैं, वहां तो आरोग्य के नियमों का काफी पालन होने की आशा रखते हैं। स्मृतिकारों ने जो बाह्यान्तर शौच पर बहुत जोर दिया है, यह बात मेरे ध्यान से बाहर उस समय भी न थी।

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राजनिष्ठा और शुश्रूषा

शुद्ध राजनिष्ठा का अनुभव मैंने जितना अपने अंदर किया है उतना शायद ही दूसरों में किया हो। मैं देखता कि इस राजनिष्ठा का मूल है मेरा सत्य के प्रति स्वाभाविक प्रेम। राजनिष्ठा का अथवा किसी दूसरी चीज का ढोंग मुझसे आजतक न हो सका। नेटाल में जिस किसी सभा में मैं जाता, ‘गॉड सेव दि किंग' बराबर गाया जाता। मैंने सोचा, मुझे भी गाना चाहिए। यह बात नहीं कि उस समय मुझे ब्रिटिश राज्य-नीति में बुराइयां न दिखाई देती थीं। फिर भी आमतौर पर मुझे यह नीति अच्छी मालूम होती थी। उस समय यह मानता था कि ब्रिटिश राज्य तथा राज्य-कर्ताओं की नीति कुल मिलाकर प्रजा-पोषक है।

पर दक्षिण अफ्रीका में उलटी नीति दिखाई देती; रंग-द्वेष नजर आता। मैं समझता कि यह क्षणिक और स्थानिक है। इस कारण राजनिष्ठा में मैं अंग्रेजों की प्रतिस्पर्द्धा करने की चेष्टा करता। बड़े श्रमके साथ अंग्रेजों के राष्ट्र-गीत ‘गॉड़
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सेव दि किंग'का स्वर मैंने साधा । सभाओं में जब वह गाया जाता, तब अपना सुर उसमें मिलाता । और बिना आडंबर किये वफादारी दिखाने के जितने अवसर आते सब में शरीक होता ।

अपनी जिंदगी में कभी मैंने इस राजनिष्ठा की दूकान नहीं लगाई । अपना निजी मतलब साध लेने की कभी इच्छा तक न हुई । वफादारी को एक तरह का कर्ज समझकर मैंने उसे अदा किया है ।

जब भारत आया, तब महारानी विक्टोरिया की डायमंड जुबिली की तैयारियां हो रही थीं । राजकोट में भी एक समिति बनाई गई । उसमें मैं निमंत्रित किया गया । मैंने निमंत्रण स्वीकार किया; पर मुझे उसमें ढकोसले की बू आई । मैंने देखा कि उसमें बहुतेरी बातें महज दिखावे के लिए की जाती हैं । यह देखकर मुझे दुःख हुआ । मैं सोचने लगा कि ऐसी दशा में समिति में रहना चाहिए, या नहीं ? अंत को यह् निश्चय किया कि अपने कर्तव्य का पालन करके संतोष मान लेना ही ठीक हैं ।

एक तजवीज यह थी कि पेड़ लगाये जायं । इसमें मुझे पाखंड दिखाई दिया । मालूम हुआ कि यह सब महज साहब लोगों को खुश करने के लिए किया जाता है । मैंने लोगों को यह समझाने की कोशिश की कि पेड़ लगाना लाजिमी नहीं किया गया है, सिर्फ सिफारिश भर की गई है । यदि लगाना ही हो तो फिर सच्चे दिलसे लगाना चाहिए, नहीं तो मुतलक नहीं । मुझे कुछ-कुछ ऐसा याद पड़ता है कि जब मैं ऐसी बात कहता तो लोग उसे हंसी में उड़ा देते थे । जो हो, अपने हिस्से का पेड़ मैंने अच्छी तरह बोया और उसकी परवरिश भी की, यह अच्छी तरह याद है ।

'गॉड सेव दि किंग ’ में अपने परिवार के बच्चों को भी सिखाता था । मुझे याद है कि ट्रेनिंग कालेज के विद्यार्थियों को मैंने यह सिखाया था; पर तुझे यह ठीक-ठीक याद नहीं पड़ता कि यह इसी मौके पर सिखाया था, अथवा सप्तम । एडवर्ड के राज्यारोहण के प्रसंग पर । आगे चलकर मुझे यह गीत गाना अखरा । ज्यों-ज्यों मेरे मन में अहिंसा के विचार प्रबल होते गये, त्यों-त्यों मैं अपनी वाणी और विचार की अधिक चौकीदारी करने लगा । इस गीतमें ये दो पंक्तियां भी हैं-

‘उसके शत्रुओं का नाश कर;
उनकी चालों विफल कर ।’
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यह भाव मुझे खटका । अपने मित्र डा० बूथ के सामने मैंने अपनी कठिनाई पेश की । उन्होंने भी स्वीकार किया कि हां, अहिंसावादी मनुष्य को यह गान शोभा नहीं देता । जिन्हें हम शत्रु कहते हैं, वे दगाबाजी ही करते हैं, यह कैसे मान लें ? यह कैसे कह सकते हैं कि जिन्हें हमने शत्रु मान लिया है वे सब बुरे ही हैं । ईश्वर से तो हम न्याय की ही याचना कर सकते हैं । डा० बूथ को यह दलील जंची । उन्होंने अपने समाज में गाने के लिए एक नये ही गीत की रचना की । डा० बूथ का विशेष परिचय आगे दूंगा ।

जिस प्रकार वफादारी का स्वाभाविक गुण मुझमें था, उसी तरह शुश्रूता का भी था । बीमारों की सेवा-शुश्रूता का शौक, फिर बीमार चाहे अपने हों या पराये, मुझे क्या । राजकोट में दक्षिण अफरी का-संबंधी काम करते हुए मैं एक बार बंबई गया । इरादा यह था कि बड़े-बड़े शहरों में सभायें कर के लोकमत विशेष रूप से तैयार किया जाय । इसी सिलसिले में मैं बंबई गया था। पहले न्यायमूर्ति रानडे से मिला । उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी और सरफिरोज शाह से मिलने की सलाह दी । फिर मैं जस्टिस बदरुद्दीन तैयबजी से मिला। उन्होंने भी मेरी बात सुनकर यही सलाह दी ।'जस्टिस रानडे से और मुझसे आपको बहुत कम सहायता मिल सकेगी । हमारी स्थिति आप जानते हैं । हम सार्वजनिक कामों में योग नहीं दे सकते; परंतु हमारे मनोभाव और सहानुभूति आपके साथ हुई है । हां,सरफिरोज शाह आपकी सच्ची सहायता करेंगे ।'

सर फिरोजशाह से तो मैं मिलने ही वाला था । परंतु इन दो बुजुर्गों की यह राय जानकर कि उनकी सलाह से चलो, मुझे इस बात का ज्ञान हुआ कि सर फिरोजशाह का कितना अधिकार लोगों पर है ।

मैं सर फिरोजशाह से मिला । मैं उनसे चकाचौंध होने के लिए तैयार ही था। उनके नाम के साथ लगे बडे-बडे विशेषण् मैने सुन रक्खे थे ।'बॉबी के शेर', 'बॉबी के बेताज के बादशाह' से मिलना था । परंतु बादशाह ने मुझे भयभीत नही किया। जिस प्रकार पिता अपने जवान पुत्र से प्रेम के साथ मिलता है, उसी प्रकार वह मुझसे मिले । उनके चेंबर में उनसे मिलना था। अनुयायिपंसि तो सदा घिरे हुए रहते ही थे। वाच्छा थे; कामा थे । उनसे मेरा परिचय कराया । वाच्छा का नाम मैने सुना था; वह फिरोजशाह के दाहिने हाथ माने जाते थे । अंक [ १९७ ]
शास्त्रीके नामसे वीरवन्द गांधीने मुझे उनका परिचय कराया था। उन्होंने कहा-- * गांधी,हम फिर भी मिलेंगे।"

कुल दो ही मिनटमें यह सब हो गया। सर फिरोजशाहले मेरी बात सुन ली। न्यायमूर्ती रानडे और तैयबजीसे मिलनेकी भी बात मैंने कही। उन्होंने कहा-“ गांधी,तुम्हारे कामके लिए मुझे एक सभा करनी होगी। तुम्हारे काममें जरूर मदद देनी चाहिए।' मुंशकी ओर देखकर सभाका दिन निश्चय करने के लिए कहा है दिन तय हुआ और मुझे छुट्टी मिली। कहा-“ सभा के एक दिन पहले मुझसे मिल लेना।",निश्चित होकर इन फूलता हुन्ना मैं अपने घर गया है।

मेरे बहनोई बंबईमें रहते थे,उनसे मिलने गया। वह बीमार थे। गरीब होलत थी। वहन अकेली उनकी सेवा-शुश्रूषा नहीं कर सकती थी। बीमारी सख्त थी। मैंने कहा----* मेरे साथ राजकोट चलिए।' दह राजी हुए। बहन-बहनोईको लेकर मैं राजकोट गया। बीमारी अंदाजसे बाहर भीषण हो गई थी। मैंने उन्हें अपने कमरेमें रखा। दिन भर मैं उनके पास ही रहता। रातको भी जाना पड़ता। उनकी सेवा करते हुए दक्षिण का काम में कर रहा था। अंतमें बहनोईका स्वर्गवास हो गया;पर मुझे इस तसे कुछ संतोष रहा कि अंत सुमय उनकी सेवा करनेका अवसर मुझे मिल गया।

शुश्रूषके इस कने आगे चलकर व्यापक रूप धारण किया। वह यहांतक कि उसमें मैं अपना काम-धंधा छोड़ बैठता है अपनी धर्मपत्नीको भी उसमें शता और सारे घरको भी शामिल कर लेता था। इस वृत्तिको मैंने “शौक'कहा है;क्योंकि मैंने देखा कि यह गुण तभी निभता है,जब आनंददायक हो जाता है। खींचातानी करके दिखावे या मुलाहिजेके लिए जब ऐसे काम होते हैं,तब वह मनुष्यको कुचल डालते हैं और उनक-हुए-मनुष्य सुरक्षा जाता है। •जिस सेवासे चित्तको आनंद नहीं मालभ होता,वहून सेदकको फलती है,न सेव्यको सुहाती है। जिस सेवासे चित्त आनंदित होता है उसके सामने ऐशोआराम या नोपार्जन इत्यादि दाते तुच्छ मालूम होती हैं।

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