सत्य के प्रयोग/ बस गया

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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नहीं जानता । कानून की पुस्तकें देखनी होंगी; फिर ऐसे काम अकेले हाथों नहीं हो सकते । कई लोगों के सहयोग की जरूरत होगी । ”

बहुत-सी आवाज एक-साथ सुनाई दीं--" खुदा की मेहर है। रुपये पैसे की फिक्र मत कीजिए । आदमी भी मिल जायंगे। आप सिर्फ ठहरना मंजूर करें तो बस है ।"

फिर क्या था वह जलसा कार्यकारिणी-समिति के रूप में परिणत हो गया । मैंने सुझाया कि खा-पीकर जल्दी फारिग होकर हम लोग घर पहुंचें । मैंने मन में लड़ाई की रूप-रेखा बांधी । यह जान लिया कि मताधिकार कितने लोगों को है । मैंने एक मास ठहरजाने का निश्चय किया ।

इस प्रकार ईश्वर ने दक्षिण अफ्रीका में मेरे स्थायी रुप से रहने की नींव डाली और आत्म-सम्मान के संग्राम का बीजा रोपण हुआ ।

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बस गया

१८९३ ईस्वी में सेठ हाजी मुहम्मद हाजी दादा नेटाल की भारतीय जाति के अग्रगण्य नेता माने जाते थे । साम्पत्तिक स्थिति में सेठ अब्दुल्ला हाजी आदि मुख्य थे; परंतु वह तथा दूसरे लोग भी सार्वजनिक कामों में सेठ हाजी मुहम्मद को ही प्रथम स्थान देते थे । इसलिए उनकी अध्यक्षता में, अब्दुल्ला सेठ के मकान में, एक सभा की गई । उसमें फ्रेंचाइज बिलका विरोध करने का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ । स्वयंसेवकों की सूची भी बनी । इस सभा में नेटाल में जन्मे हिंदुस्तानी, अर्थात ईसाई नवयुवक भी बुलाये गये थे । मि० पॉल डरबन की अदालत के दुभाषिया थे । मि० सुभान गाडफ्रे मिशन स्कूल के हेडमास्टर थे । वे भी सभा में उपस्थित हुए थे; और उनके प्रभाव से ईसाई नवयुवक अच्छी संख्या में आये थे । इन सब लोगों ने स्वयंसेवकों में अपना नाम लिखाया । सभा में व्यापारी भी बहुतेरे थे । उनमें जानने योग्य नाम ये हैं--सेठ दाऊद मुहम्मद कासिम कमरुद्दीन, सेठ आदमजी मियां खान, ए० कोलंदावेल्लू पिल्ले, सी० लछीराम, रंगस्वामी पड़ियाची, आमद जीवा इत्यादि । पारसी रुस्तम जी तो थे ही । कारकुन लोगों में पारसी [ १६३ ]
मानेकजी, जोशी, नरसीराम इत्यादि दादा अब्दुल्ला की तथा दूसरी बड़ी दूकानों में कर्मचारी थे। पहले-पहल सार्वजनिक काम में पड़ते हुए इन लोगों को जरा अटपटा मालूम हुआ । इस तरह सार्वजनिक काम में निमंत्रित तथा सम्मिलित होने का उन्हें यह पहला अनुभव था । सिर आई विपत्ति के मुकाबले के लिए नीच-ऊंच, छोटे-बड़े, मालिक-नौकर, हिंदू-मुसलमान, पारसी, ईसाई, गुजराती, मदरासी, सिंधी इत्यादि भेद-भाव जाते रहे । उस समय सब भारत की संतान और सेवक थे ।

फ्रैंचाइज़ बिलका दूसरा वाचन हो चुका था अथवा होने वाला था । उस समय धारा-सभा में जो भाषण हुए, उनमें यह बात कही गई कि कानून इतना सख्त था, फिर भी हिंदुस्तानियों की और से उनका कुछ विरोध न हुआ। यह भारतीय प्रजा की लापरवाही और मतधिकार-संबंधी उनकी अपात्रता का प्रमाण था।

मैंने सभा को सारी हकीकत समझा दी । पहला काम तो यह हुआ कि धारा-सभा के अध्यक्ष को तार दिया कि वह बिलपर आगे विचार करना स्थगित कर दें । ऐसा ही तार मुख्य प्रधान सर जान राबिंसन को भी भेजा, तथा एक और तार दादा अब्दुल्ला के मित्र के नाते मि० ऐस्कंब कों गया । तार का जवाब मिला कि बिल की चर्चा दो दिन तक स्थगित रहेगी । इससे सब लोगों को खुशी हुई।

अब दरख्वास्त का मसविदा तैयार हुआ । उसकी तीन प्रतियाँ भेजी जानेवाली थी । अखबारों के लिए भी एक प्रति तैयार करनी थी । उसपर जितनी अधिक सहियां ली जा सकें, लेनी थीं । यह सब काम एक रात में पूरा करना था । वे शिक्षित स्वयंसेवक क तथा दूसरे लोग लगभग सारी रात जगे । उनमें एक मि० आर्थर थे, जो बहुत बूढ़े थे और जिनका खत अच्छा था । उन्होंने सुंदर हरफों में दरख्वास्त की नकल की । औरों ने उसकी और नकलें कीं । एक बोलता जाता और पांच लिखते जाते । इस तरह पांच नकलें एक साथ हो गईं। व्यापारी स्वयंसेवक अपनी-अपनी गाड़ियां लेकर या अपने खर्चे से गाड़ियां किराया करके सहियां देने दौड़ पड़े ।

दरख्वास्त गई । अखबारों में छपी । उसपर अनुकूल टिप्पणियां निकलीं। धारा-सभा पर भी उसका असर हुआ । उसकी चर्चा भी खूब हुई । दरख्वास्त में जो दलीलें पेश की गई थीं, उनपर आपतियां उठाई गई--परंतु खुद उठानेवालों-

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को ही वे लचर मालूम हुई । इतना करने पर भी बिल तो आखिर पास हो ही गया।

सब जानते थे कि यही होकर रहेगा; पर इतने आन्दोलन से हिंदुस्तानियों में नवीन जीवन आगया। सब लोग इस बात को समझ गये कि हम सबका समाज एक है। अकेले व्यापारी अधिकारों के लिए ही नहीं, बल्कि अपने कौमी अधिकारों के लिए भी लड़ना सबका धर्म है ।

इस समय लार्ड रिपन उपनिवेश-मंत्री थे । प्रस्ताव हुआ कि उन्हें एक भारी दरख्वास्त लिखकर पेश की जाय । इसपर जितनी अधिक सहियां मिलें ली जाय । यह काम एक दिन में नहीं हो सकता था । स्वयंसेवक तैनात हुए और सबने थोड़ा-थोड़ा काम का बोझ उठा लिया ।

दरख्वास्त तैयार करने में मैंने बड़ा परिश्रम किया । जितना साहित्य मेरे हाथ लगा, सब पढ़ डाला । हिंदुस्तान में हमें एक तरह का मताधिकार है, इस सिद्धांत की बात को तथा हिंदुस्तानियों की आबादी बहुत थोड़ी है, इस व्यावहारिक दलील को मैंने अपना मध्य बिंदु बनाया ।

दरख्वास्त पर दस हजार आदमियों के दस्तखत हुए । एक सप्ताह में दरख्वास्त भेजने के लिए आवश्यक सहियां प्राप्त हो गई । इतने थोड़े समय में नेटाल में दस हजार दस्तखत प्राप्त करने को पाठक ऐसा-वैसा काम न समझें । सारे नेटाल मैं से दस्तखत प्राप्त करने थे । लोग इस काम से अपरिचित थे । इधर यह निश्चय किया गया था कि तब तक किसी की सही न ली जाय, जब तक कि वे दस्तखत का आशय न समझ लें । इसलिए खास तौर पर स्वयंसेवकों को भेजने से ही सहियां मिल सकती थीं । गांव दूर-दूर थे । ऐसी अवस्था में ऐसे काम उसी हालत में जल्दी हो सकते हैं, जब बहुतेरे काम करने वाले निश्चय-पूर्वक काम में जुट पड़ें । ऐसा ही हुआ भी । सबने उत्साह-पूर्वक काम किया । इनमें से सेठ दाऊद मुहम्मद, पारसी रुस्तम जी, आदम जी मियां खान और आमद जीवा की मूर्तियां आज भी मेरी आखों में सामने आ जाती हैं। वे बहुतों के दस्तखत लाये थे । दाऊद सेठ दिन-भर अपनी गाड़ी लिये-लिये घूमते । किसी ने जेब-खर्च तक न मांगा ।

दादा अब्दुल्ला का मकान तो धर्मशाला अथवा सार्वजनिक कार्यालय जैसा हो गया था । शिक्षित भाई तो मेरे पास डटे ही रहते । उनका तथा दूसरे [ १६५ ]
कर्मचारियों का खाना-पीना दादा अब्दुल्ला के ही यहां होता । इस तरह सब लोगों ने काफी खर्च बरदाश्त किया।

दरख्वास्त गई, उसकी एक हजार प्रतियां छपवाई गई थीं । उस दरख्वास्त ने हिंदुस्तान के देश-सेवकों को नेटाल का पहली बार परिचय कराया । जितने अखबारों तथा देश कें नेताओं का नाम-ठाम मैं जानता था, सबको दरख्वास्त की नकल भेजी गई थीं ।

"टाइम्स आफ इंडिया" ने उसपर अग्रलेख लिखा और भारतीयों की मांगका खासा समर्थन किया । विलायत में भी प्रार्थना-पत्र की नकलें तमाम दलके नेताओं को भेजी गई थीं । वहां "लंदन टाइम्स" ने उनकी पुष्टि की । इस कारण बिल के मंजूर न होने की आशा होने लगी।

अब ऐसी हालत हो गई कि में नेटाल न छोड़ सकता था । लोगों ने मुझे चारों और से आ घेरा और बड़ा आग्रह करने लगे कि अब मैं नेटाल में ही स्थायी रूप से रह जाऊं । मैंने अपनी कठिनाइयां उनपर प्रकट की । अपने मन में मैंने यह निश्चय कर लिया था कि मैं यहां सर्व-साधारण के खर्च पर न रहूंगा ।

अपना अलग इंतजाम करने की आवश्यकता मुझे दिखाई दी । घर भी अच्छा और अच्छे मुहल्ले में होना चाहिए-इस समय मेरा यही मत था । मेरा खयाल था कि दूसरे बैरिस्टरों की तरह ठाठ-बाठ से रहने में अपने समाज का मान-गौरव बढ़ेगा । मैंने देखा कि इस तरह तो मैं ३०० पौंड साल के बिना काम न चला सकूगा । तब मैंने निश्चय किया कि यदि यहां के लोग इतनी आमदनी के लायक वकालत का इंतजाम करा देने का जिम्मा लें तो रह जाऊंगा ! और मैंने लोगों को इसकी इत्तिला दे दी।

"पर इतनी रकम तो यदि आप सार्वजनिक कामों कें लिए ले तो कोई बात नहीं, और इतनी रकम जुटाना हमारे लिए कोई कठिन बात भी नहीं है। वकालत जो कुछ मिल जाय वह आपका।” साथियों ने कहा ।

“इस तरह में आर्थिक सहायता लेना नहीं चाहता । अपने सार्वजनिक काम का मैं इतना मूल्य नहीं समझता । इसमें मुझे वकालत का आडंबर थोड़े ही रचना है-मुझे तो लोगों से काम लेना है । इसका मुआवजा में द्रव्य के रूप में कैसे ले सकता हूं? फिर् आप लोगों से भी तो मुझे सार्वजनिक कामों के लिए

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