सत्य के प्रयोग/ 'को जाने कलकी ?'

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अखबार के कोने में एक छोटी-सी खबर छपी थी---- इंडियन फ्रेंचाइज'। इसका अर्थं हुr-... हिंदुस्तानी मताधिकार ।' खबर का भावार्थ यह था कि नेटाल की धारा-सभा के सभ्यो को चुनने का? जो अधिकार हिंदुस्तानियों को था वह छीन लिया जाय। इसके विषय को एक कानून धारासभा में पेश था और उसपर चर्चा हो रही थी । मैं उस कानून के बारे में कुछ न जानता था । जलसे नें किसी को इस मसविदे की खबर न थी, जोकि भारतीयों के अधिकारों को छीनने के लिए तैयार हुआ था।

मैंने अब्दुल्ला सेठ से इसका जिक्र किया। उन्होंने कहा--" इन बातों को हम लोग क्या समझे ? हमारे तो व्यापार पर अगर कोई आफत आवे तो खवर पड़ सकती है। देखिए, आरेंज फ्री स्टेट में हमारे व्यापार की सारी जड़ उखड़ गई। उसके लिए हमने कोशिश भी की; पर हम तो ठहरे अपंग । अखबार पढ़ते हैं--पर अपने भाव-ताव की बातें ही समझ लेते हैं। कानून-कायदे की बातों का हमें क्या पता चले ? हमारे आंख-कान जो-कुछ हैं, गोरे वकील हैं।"

“पर यहीं पैदा हुए और अंग्रेजी पढ़े-लिखे इतने नौजवान हिंदुस्तानी जो यह हैं ? ' मैंने कहा ।

"अजी भाई साहब !" अब्दुल्ला सेठ ने सिरपर हाथ मारते हुए कहा----"उनसे क्या उम्मीद की जाय ?" वे बेचारे इन बातों में क्या समझे ? वे तो हमारे पास तक फटकते नहीं, और सच पूछिए तो हम भी उन्हें नहीं पहचानते । वे हैं ईसाई, इसलिए पादरियों के पंजे में हैं और पादरी लोग गोरे, वे सर्कार के ताबेदार हैं।

सुनकर मेरी आंखें खुलीं । सोचा कि इस दल को अपनाना चाहिए । ईसाई-धर्म के क्या यही मानी हैं ? क्या ईसाई हो जाने से उनका नाता देश से टूट गया, और ये विदेशी हो गये ?

पर मुझे तो देश वापस लौटना था, अतएव इन विचारों को मूर्त रूप न दिया । अब्दुल्ला सेठ से कहा---

“पर यदि यह बिल ज्यों-का-त्यों पास हो गया तो आप लोगों के लिए बहुत भारी पड़ेगा । यह तो भारतवासियोंके अस्तित्वको मिटा डालनै का पहला कदम हैं। इससे हमारा स्वाभिमान नष्ट होगा ।"

  • जो-कुछ हो । इस ‘फ्रैंचाइजी' (इस तरह अंग्रेजी के कितने ही शब्द [ १६१ ]
    देशी भाषा में रूढ़ हो गये थे । ‘मताधिकार' कहने से कोई नहीं समझता) का थोड़ा इतिहास सुन लीजिए। इस मामले में हमारी समझ काम नहीं देती; पर हमारे बड़े वकील मि० ऐस्कंब को तो आप जानते ही हैं, वह जबरदस्त लड़वैये हैं । उनकी तथा वहां के फुरजा के इंजीनियर की खूब चख-चख चला करती है । मि० ऐस्कंब के धारा-सभा में जाने में यह लड़ाई बाधक हो रही थी । इसलिए उन्होंने हमें हमारी स्थिति का ज्ञान कराया । उनके कहने से हमने अपने नाम मताधिकार-पत्र में दर्ज करा लिये और अपने तमाम मत मि० ऐस्बंक को दिये । अब आप सभझ जायंगे कि हम इस मताधिकार की कीमत आपके इतनी क्यों नहीं आंकते हैं; पर आपकी बात अब हमारी समझ में आ रही है--अच्छा तो अब आप क्या सलाह देते हैं ?”

यह बात दूसरे मेहमान लोग गौर से सुन रहे थे । इनमें से एक ने कहा-- “ मैं आपसे सच्ची बात कह दूँ? यदि आप इस जहाज से न जायें और एकाध महीना यहां रह जायें, तो आप जिस तरह बतायें हम लड़ने को तैयार हैं ।"

एक दूसरे ने कहा--“यह बात ठीक है ! अब्दुल्ला सेठ, आप गांधीजी को रोक लीजिए ।"

अब्दुल्ला सेठ थे उस्ताद आदमी । वह बोले--“अब इन्हें रोकने का अख्तियार मुझे नहीं । अथवा जितना मुझे है उतना ही आपको भी हैं; पर आपकी बात है ठीक । हम सब मिलकर इन्हें रोक लें, पर यह तो बैरिस्टर हैं । इनकी फीस का क्या होगा ?”

फीस की बात से मुझे दुख हुआ ! मैं बीच में ही बोला--

“अब्दुल्ला सेठ, इसमें फीस का क्या सवाल? सार्वजनिक सेवा में फीस किस बात की ? यदि मैं रहा तो एक सेवक की हैसियत से रह सकंता हूं । इन सब भाइयों से मेरा पूरा परिचय नहीं है; पर यदि आप यह समझते हों कि ये सब लोग मेहनत करेंगे तो मैं एक महीना ठहर जाने के लिए तैयार हूं; पर एक बात है । मुझे तो आपको कुछ देना-वेना नहीं पड़ेगा; पर ऐसे काम बिना रुपये-पैसे के नहीं चल सकते ! हमें तार वगैरा देने पड़ेंगे--कुछ छापना भी पड़ेगा । इधर-उधर जाना-आना पड़ेगा, उसका किराया आदि भी लगेगा । मौका पड़ने पर यहां के वकीलों की भी सलाह लेनी पड़ेगी । मैं यहां के सब कानून-कायदों को अच्छी तरह

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