सत्य के प्रयोग/ ब्रह्मचर्य-१

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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आँव कामंस की बैठक में भी मिसेज ग्लैडस्टन अपने पति को चाय बनाकर पिलाती थीं । यह बात उस नियम-निष्ठ दंपती के जीवन का एक नियम ही बन गया था । मैंने यह प्रसंग कविजी को पढ़ कर सुनाया और उसके सिलसिले में दंपती-प्रेम कि स्तुति की । रायचंदभाई बोले-“इसमें आपको कौन सी बात महत्त्व कि मालूम होती हैं -मिसेज ग्लैडस्टन का पत्नीपन या सेवा-भाव ? यदि वह ग्लैडस्टन कि बहन होतीं तो ? अथवा उनकी वफादार नौकर होतीं और फिर भी उसी प्रेम से चाय पिलातीं तो ? ऐसी बहनों, ऐसी नौकरानियों के उदाहरण क्या प्राय हमें न मिलेंगे ? और नारी-जाति के बदले ऐसा प्रेम यदि नर-जाति में देखा होता तो क्या आपको सानंदाश्चर्य न होता ? इस बात पर विचार कीजिएगा । ”

रायचंदभाई स्वयं विवाहित थे । उस समय तो उनकी यह बात मुझे कठोर मालूम हुई--ऐसा स्मरण होता है; परंतु इन वचनों ने मुझे लोह-चुंबक कि तरह जकड़ लिया । पुरुष नौकर से, ऐसी स्वामि-भक्ति कि कीमत, पत्नी के स्वामी-निष्ठा कि कीमत से हजार-गुना बढ़कर है। पति-पत्नी में एकता का अतएव प्रेम का होना कोई आश्चर्य कि बात नहीं; पर स्वामी और सेवक में ऐसा प्रेम पैदा करना पड़ता है। अतएव दिन-दिन कविजी के वचन का बल मेरी नजरों में बढ़ने लगा ।

अब मन में यह विचार उठने लगा कि मुझे अपनी पत्नी के साथ कैसा संबंध रखना चाहिए। पत्नी का विषय-भोग का वाहन बनाना पत्नी के प्रति वफादारी कैसे हो सकती है ? जब तक मैं विषय-वासना के अधीन रहूंगा तब तक मेरी वफादारी कि कीमत मामूली मानी जायगी । मुझे यहां यह बात कह देनी चाहिए कि हमारे पारस्परिक संबंध में कभी पत्नी कि तरफ से पहल नहीं हुई । इस दृष्टि से मैं जिस दिन से चाहूं ब्रह्मचर्य का पालन मेरे लिए सुलभ था; पर मेरी प्रशवित या प्रासक्ति ही मुझे रोक रही थी ।

जागरूक होने के बाद भी दो बार तो मैं असफल ही रहा । प्रयत्न करता, पर गिरता; क्योंकि उसमें मुख्य हेतु उच्च न था । सिर्फ संतानोत्पति को रोकना ही प्रधान लक्ष्य था । संतर्ति-निग्रह के बाह्य उपकरणों के विषय में विलायत में मैंने थोड़ा-बहुत साहित्य पढ़ लिया था । डा० एलिसन के इन उपायों का उल्लेख अन्नाहार संबंधी प्रकरण में कर चुका हु । उसका कुछ क्षणिक असर मुझ पर हुआ भी था। [ २२७ ]
परंतु मि० हिल्स के द्वारा किये गये उनके विरोध का नया अंत:साधन----संयम-के समर्थन का असर मेरे दिलपर बहुत हुआ और अनुभव में बह चिरस्थायी हो गया । इस कारण प्रजोत्पत्ति की अनावश्यकता जंचते ही संयम-पालन के लिए उद्योग प्रारंभ हुआ ।

संयम-पालन्द में कठिनाइयां बेहद थीं । अलग-अलग चारपाइयां रक्खीं । इधर मैं रात को थककर सोने की कोशिश करने लगा । इन सारे प्रयत्नों का विशेष परिणाम उसी समय तो न दिखाई दिया; पर जव में भूतकाल की ओर आंख उठाकर देखता हूं तो जान पड़ता है कि इन सारे प्रयत्नों ने मुझे अंतिम बल प्रदान किया है।

अंतिम निश्चय तो ठेठ १९०३ ई० में ही कर सका । उस समय सत्याग्रह का श्रीगणेश नहीं हुआ था । उसका स्वापनत्‍क में मुझे खयाल न था । बोअरयुद्ध के बाद नेटाल में ‘जुलू' बलवा हुआ । उस समय में जोहान्सबर्ग में वकालत करता था; पर मनने कहा कि इस समय बलवे में मुझे अपनी सेवा नेटाल-सरकार को अर्पित करनी चाहिए। तदनुसार मैंने अर्पित की भी और वह स्वीकृत भी हुई । उसका वर्णन अब आगे आवेगा; परंतु इस सेवा के सिलसिले से मेरे मन में तीव्र विचार उत्पन्न हुए । अपने स्वभाव के अनुसार अपने साथियों से मैंने उसकी चर्चा की । मुझे जंचा किं संतानोत्पत्ति और संतान-पालन लोक-सेवा के विरोधक हैं । इस ‘बलवे' के काम, में शरीक होने के लिए मुझे अपना जोहानसबर्ग वाला घर तितर-बितर करना पड़ा । टीमटाभ के साथ सजाये घर को और जुटाई हुई विविध सामग्री को अभी एक महीना भी न हुआ होगा कि मैंने उसे छोड़ दिया । पत्नी और बच्चों को फीनिक्स में रक्खा और मैं घायलों की शुश्रूषा करने वालों की टुकड़ी बनाकर चल निकला । इन कठिनाइयों का सामना करते हुए मैंने देखा कि यदि मुझे लोक-सेवा में ही लीन हो जाना है तो फिर पुत्रैषणा एवं अनैषणा को भी नमस्कार कर लेना चाहिए और वानप्रस्थ-धर्म का पालन करना चाहिए ।

‘बलवे' में मुझे डेढ़ महीने से ज्यादा न ठहरना पड़ा; परंतु ये छः सप्ताह मेरे जीवन का बहुत बेशकीमती समय था । व्रत का महत्त्व मैंने इस समय सबसे अधिक समझा । मैंने देखा कि व्रत बंधन नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का द्वार है । आज तक मेरे प्रयत्नों में अवश्यक सफलता नहीं मिलती थी; क्योंकि मुझमें निश्चय का अभाव था । मुझे अपनी शक्ति पर विश्वास न था । मुझे ईश्वर की कृपा [ २२८ ]
अविश्वास था । और इसलिए मेरा मन अनेक तरंगों में और अनेक विकारो के अधीन रहता था। मैंने देखा कि व्रतबंधन से दूर रहकर मनुष्य मोह में पड़ता हैं। व्रत से अपने को बांधना मानो व्यभिचार से छूटकर एक पत्नी से संबंध रखता है। मेरा तो विश्वास प्रयत्न में है, व्रत के द्वारा मैं बंधना नहीं चाहता यह वचन निर्बलता सूचक हैं और उसमें छिपे-छिपे भोग की इच्छा रहती हैं। जो चीज त्याज्य है, उसे सर्वथा छोड़ देने में कौन-सी हानि हो सकती है? जो सांप मुझे डसने वाला है उसको मैं निश्चय-पूर्वक हटा ही देता हूं, हटाने का केवल उद्योग नहीं करता; क्योंकि मैं जानता हूं कि महज प्रयत्न का परिणाम होने वाला है मृत्यु । ‘प्रयत्न में सांप की विकरालता के स्पष्ट ज्ञान का अभाव है । उसी प्रकार जिस चीज के त्याग का हम प्रयत्न-मात्र करते हैं उसके त्याग की आवश्यकता हमें स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं दी है, यही सिद्ध होता है । 'मेरे विचार यदि बाद को बदल जाये तो ?' ऐसी शंका से बहुत बार हम व्रत लेते हुए डरते हैं। इस विचार में स्पष्ट दर्शन का अभाव है। इसीलिए निष्कुलानंद ने कहा है----

त्याग न टके रे वैराग बिना

जहां किसी चीज से पूर्ण बैराग्य हो गया है वहां उसके लिए व्रत लेना अपने आप अनिवार्य हो जाता है ।


ब्रह्मचर्य-----२

खूब चर्चा और दृढ़ विचार करने के बाद १९०६ में मैंने ब्रह्मचर्य-व्रत धारण किया । व्रत लेने तक मैंने धर्म-पत्नी से इस विषय में सलाह न ली थी । व्रत के समय अलबत्ता ली । उसने उसका कुछ विरोध न किया ।

यह व्रत लेना मुझे बड़ा कठिन मालूम हुआ । मेरी शक्ति कम थी । मुझे चिंता रहती कि विकारों को क्योंकर दबा सकेंग ? और स्वपत्नी के साथ विकारों से अलिप्त रहना एक अजीब बात मालूम होती थी । फिर भी मैं देख रहा था कि वही मैरा स्पष्ट कर्तव्य है । मेरी नीयत साफ थी । इसलिए यह

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