सत्य के प्रयोग/ ब्रह्मचर्य-२

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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सोचकर कि ईश्वर शक्ति और सहायता देगा, मैं कूद पड़ा ।

आज २० साल के बाद उस व्रत को स्मरण करते हुए मुझे सानंदाश्चर्य होता है । संयम-पालन करने क का भाव तो मेरे मन में १९०१ से ही प्रबल था और उसका पालन में कर भी रहा था; परंतु जो स्वतंत्रता और आनंद मैं अब पाने लगा वह मुझे नहीं याद पड़ता कि १९०६ के पहले मिला हो; क्योंकि उस समय में वासना बद्ध था---कभी भी उसके अधीन हो जाने का भय रहता था; किंतु अब वासना मुझपर सवारी करने में असमर्थ हो गई ।

फिर अब मैं ब्रह्मचर्य की महिमा और अधिकाधिक समझने लगा ! यह व्रत मैने फीनिक्स में लिया था। घायलों की शुश्रूपा से छुट्टी पाकर मैं फीनिक्स गया था। वहां से मुझे तुरंत जोहान्सबर्ग जाना था। वहां जाने के एक ही महीने अंदर सत्याग्रह-संग्राम की तींव पड़ी । मानो यह ब्रह्मचर्य व्रत उसके लिए मुझे तैयार करने ही न आया हो । सत्याग्रह का खयाल मैंने पहले से ही बना रक्खा हो, सो बात नहीं । उसकी उत्पत्ति तो अनायास---अनिच्छा से--हुई । पर मैंने देखा कि उसके पहले मैने जो-जो काम किये थे--जैसे फीनिक्स जाना, जोहानसबर्ग का भारी घर-खर्च कम कर डालना और अंत को ब्रह्मचर्य को व्रत लेना---वे मानो इसकी पेश-बंदी थे ।

ब्रह्मचर्य का सोलह आने पालन का अर्थ है ब्रह्म-दर्शन । यह ज्ञान मुझे शास्त्रों द्वारा न हुआ था । यह तो मेरे सामने धीरे-धीरे अनुभव-सिद्ध होता गया । उससे संबंध रखने वाले शास्त्र-वन मैने बाद को पढे ब्रह्मचर्य में शरीर-रक्षण, बदि-रक्षण और आत्मा को रक्षण, सुब कुछ हैं--यह बात मैं व्रत के बाद दिनों दिन अधिकाधिक अनुभव करने लगा; क्योंकि अब ब्रह्मचर्य को एक घोर तपश्चर्या रहने देने के बदले रसमय बनाना था; उसी के बलपर काम चलाना था । इसलिए अब उसकी खूबियों के नित नये दर्शन मुझे होने लगे ।

पर मैं जो इस तरह उससे रस की घुटे पी रहा था, उससे कोई यह न समझे कि मैं उसकी कठिनता को अनुभव न कर रहा था। आज यद्यपि मेरै छप्पन साल पूरे हो गये हैं, फिर भी उसकी कठिनता का अनुभव तो होता ही है । यह अधिकाधिक समझता जाता हूँ कि यह असिधारा-द्रत है । अब भी निरंतर जागरूकता की आवश्यकता देखता हूँ । [ २३० ]
ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए पहले स्वादेंद्रिय को वश में करना चाहिए। मैंने खुद अनुभव करके देखा है कि यदि स्वाद को जीत ले तो फिर ब्रह्मचर्य अत्यंत सुगम हो जाता है। इस कारण इसके बाद मेरे भोजन प्रयोग केवल अन्नाहार की दृष्टि से नहीं, पर ब्रह्मचर्यं की दृष्टि से होने लगे । प्रयोग द्वारा मैंने अनुभव किया कि भोजन कम, सादा, बिना मिर्च-मसाले का और स्वाभाविक रूप में करना चाहिए । मैंने खुद छ: साल तक प्रयोग करके देखा है कि ब्रह्मचारी का आहार वन-पके फल हैं । जिन दिनों मैं हरे या सूखे वन-पके फलों पर ही रहता था, उन दिनों जिस निर्विकारता का अनुभव होता था, वह खुराक में परिवर्तन करने के बाद न हुआ । फलाहार के दिनों में ब्रह्मचर्य सरल था; दुग्धाहार के कारण अब कष्टसाध्य हो गया हैं । फलाहार छोड़कर दुग्धाहार क्यों ग्रहण करना पड़ा, इसका जिक्र समय आने पर होगा ही । यहां तो इतना ही कहना काफी है कि ब्रह्मचारी के लिए दूध का आहार विध्नकारक है, इसमें मुझ लेशमात्र संदेह नहीं । इससे कोई यह अर्थ न निकाल ले कि हर ब्रह्मचारी के लिए दूध छोड़ना जरूरी है । आहार का प्रसर ब्रह्मचर्य पर क्या और कितना पड़ता है, इस संबंध में अभी अनेक प्रयोगों की प्रावश्यकता है । दूध के सदृश शरीर के रग-रेशे मजबूत बनाने वाला और उतनी ही आसानी से हजम हो जानेवाला फलाहार अब तक मेरे हाथ नहीं लगा हैं । न कोई वैद्य, हकीम या डाक्टर ऐसे फल या अन्न बतला सके हैं । इस कारण दूध को विकारोंत्पादक जानते हुए भी अभी मैं उसे छोड़ने की सिफारिश किसी से नहीं कर सकता ।

बाहरी उपचारों में जिस प्रकार आहार के प्रकार की और परिमाण की मर्यादा आवश्यक है उसी प्रकार उपवास की बात भी समझनी चाहिए । इंद्रियां ऐसी बलवान् हैं कि उन्हें चारों ओर से, ऊपर-नीचे दशों दिशाओं से, जब घेरा डाला जाता हैं तभी वे कब्जे में रहती हैं । सब लोग इस बात को जानते हैं कि आहार बिना वे अपना काम नहीं कर सकती । इसलिए इस बात में मुझे जरा भी शक नहीं हैं कि इंद्रिय-दमन के हेतु इच्छा पूर्वक किये उपवासों से इंद्रिय-दमन में बड़ी सहायता मिली हैं । कितने ही लोग उपवास करते हुए भी सफल नहीं होते । इसका कारण यह हैं कि वे यह मान लेते हैं कि केवल उपवास से ही सब काम हो जायगा और बाहरी उपवास-मात्र करते हैं; पर मन में छप्पन भोगों का ध्यान करते रहते हैं । उपवास के दिनों में इन विचारों का स्वाद चक्खा करते हैं कि उपवास पूरा होने पर [ २३१ ]
क्या-क्या खायंगे; और फिर शिकायत करते हैं कि न तो स्वदेद्रयका संयम हो पाया और न जननेंद्रियका। उपवास से वास्तविक लाभ बहीं होता है, जहां मन भी देह-दमन में साथ देता है। इसका यह अर्थ हुआ कि मन में विषय-भोग के प्रति वैराग्य हो जाना चाहिए। विषय-भोग की जड़ तो मन में हैं। उपवासादि साधनों से मिलनेवाली सहायताएं बहुत होते हुए भी अपेक्षाकृत थोड़ी ही होती हैं। यह कहा जा सकता है कि उपवास करते हुए भी मनुष्य विषयासक्त रहता है; परंतु उपवास के बिना विषयासक्ति का समूल विनाश संभवनीय नहीं। इसलिए उपवास ब्रह्मचर्यपालन का एक अनिवार्य अंग हैं।

ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले बहुतेरे विफल हो जाते हैं। क्योंकि वे आहार-विहार तथा दृष्टि इत्यादि में अ-ब्रह्मचारी की तरह रहना चाहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं। यह कोशिश गर्मी के मौसम में सदी के मौसिम का अनुभव करने जैसी समझनी चाहिए। संयमी और स्वच्छंदी के, भोगी और त्यागी के जीवन में भेद अवश्य होना चाहिए। साम्य तो सिर्फ ऊपर ही ऊपर रहता है। किंतु भेद स्पष्ट रूप से दिखाई देना चाहिए। आंख से दोनों काम लेते हैं; परंतु ब्रह्मचारी देव-दर्शन करता है, भोगी नाटक-सिनेमा में लीन रहता है। कान का उपयोग दोनों करते हैं; परंतु एक ईश्वर-भजन सुनता हैं और दूसरा विलासमय गीतों को सुनने में आनंद मानता है। जागरण दोनों करते हैं; परंतु एक तो जाग्रत अवस्था में अपने हृदय-मंदिर में विराजित राम की आराधना करता है, दूसरा नाच-रंग की धुन में सोने की याद भूल जाता है। भोजन दोनों करते हैं; परंतु एक शरीर-रूपी तीर्थ-क्षेत्र को रक्षा-मात्र के लिए शरीर को किराया देता है और दूसरा स्वाद के लिए देह में अनेक चीजों को ठुसकर उस दुर्गधित बनाता है। इस प्रकार दोनों के प्रचार-विचार में भेद रहा ही करता हैं और वह अंतर दिन-दिन बढ़ता है, घटता नहीं।

ब्रह्मचर्य का अर्थ है मन, वचन और काया से समस्त इंद्रियों का संयम। इस संयम के लिए पूर्वोक्त त्यागों की आवश्यकता है, यह बात मुझे दिन-दिन दिखाई देने लगी और आज भी दिखाई देती है। त्याग के क्षेत्र की कोई सीमा ही नहीं है। जैसी कि ब्रह्मचर्य की महिमा के नहीं है। ऐसा ब्रह्मचर्य अल्पप्रयत्न से साध्य नहीं होती। करोड़ों के लिए तो यह हमेशा एक आदर्श के रूप में ही रहेगा; क्योंकि [ २३२ ]
प्रयत्नशील ब्रह्मचारी तो नित्य अपनी त्रुटियों का दर्शन करेगा, अपने हृदय के कोने-कचरे में छिपे विकारोंं को पहचान लेगा और उन्हें निकाल बाहर करने का सतत उद्योग करेगा। जबतक अपने विचारों पर इतना कब्जा न हो जाय कि अपनी इच्छा के बिना एक भी विचार मन में न आने पावे तबतक वह संपूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं। जितने भी विचार हैं, वे सब एक तरह विकार हैं। उनको वशमें करने के मानी है मन को वश में करना। और मन को वश में करना बायु को वश में करने से भी कठिन हैं। इतना होते हुए भी यदि आत्मा है तो फिर यह भी साध्य है ही। रास्ते में बड़ी कठिनाइयां आती हैं, इससे यह न मान लेना चाहिए कि वह असाध्य हैं। वह तो परम-अर्थ है। और परम-अर्थ के लिए परम प्रयत्न की आव्श्यकता हो तो इसमें कौन आश्चर्य की बात है ?

परंतु देस आने पर मैंने देखा कि ऐसा अह्मचर्य महज प्रयत्नसाध्य नहीं है। कह सकते हैं कि जबतक मैं इस मूच्र्छा था कि फलाहार से विकार समूल नष्ट हो जायंगे; और इसलिए अभिमानसे मानता था कि अब मुझे कुछ करना बाकी नहीं रहा है।

परंतु इस विचार के प्रकरण तक पहुंचने में अभी विलंब है। इस बीच इतना कह देना आवश्यक है कि ईश्वर-साक्षात्कार करने के लिए मैंने जिस ब्रह्मचर्य की व्याख्या की है उसका पालन जो करना चाहते हैं वे यदि अपने प्रयत्न के साथ ही ईश्वर पर श्रद्धा रखने वाले होंगे तो उन्हें निराश होने का कोई कारण नहीं है।

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्णं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।

निराहार के विषय तो शांत हो जाते हैं; परंतु रसोंका शमन नहीं होता। ईश्वर-दर्शन से रस भी शांत हो जाते हैं।

इसलिए आत्मार्थीका अंतिम साधन तो राम-नाम और राम-कृपा ही है। इस बात का अनुभव मैंने हिंदुस्तान आनेपर ही किया।

गीता, अध्याय ३, इलोक्र ५६
 

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