सत्य के प्रयोग/ भोजनके प्रयोग

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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लिए है; अथवा जिस प्रकार मनुष्य एक-दूसरेका उपयोग करता है परंतु एक-दूसरेको खाता नहीं, उसी प्रकार पशु-पक्षी भी ऐसे उपयोगके लिए हैं, खा डालनेके लिए नहीं। फिर उन्होंने यह भी दिखाया कि खाना भी भोगके लिए नहीं, बल्कि जीनेके लिए ही है। इसपरसे कुछ लोगोंने भोजनमें मांस ही नहीं, अंडे और दूधतकको निषिद्ध बताया और खुद भी परहेज किया। विज्ञानकी तथा मनुष्यकी शरीररचनाकी दृष्टिसे कुछ लोगोंने यह अनुमान निकाला कि मनुष्यको खाना पकानेकी बिलकुल आवश्यकता नहीं। उसकी सृष्टि तो सिर्फ डाल-पके फलोंको ही खानेके लिए हुई है। दूध पिये भी तो वह सिर्फ माताका ही। दांत निकलनेके बाद उसे ऐसा ही खाना खाना चाहिए, जो चबाया जा सके। वैद्यकी दृष्टिसे उन्होंने मिर्च-मसालेको त्याज्य ठहराया और व्यावहारिक तथा आर्थिक दृष्टिसे बताया कि सस्ते-से-सस्ता भोजन अन्न ही है। इन चारों दृष्टि-बिंदुओंका असर मुझपर हुआ और अन्नाहारवाले भोजनालयोंमें चारों दृष्टि-बिंदु रखनेवाले लोगोंसे मेल-मुलाकात बढ़ाने लगा। विलायतमें ऐसे विचार रखनेवालोंकी एक संस्था थी। उसकी ओरसे एक साप्ताहिक पत्र भी निकलता था। मैं उसका ग्राहक बना और संस्थाका भी सभासद हुआ। थोड़े ही समयमें मैं उसकी कमेटीमें ले लिया गया। यहां मेरा उन लोगोंसे परिचय हुआ, जो अन्नाहारियोंके स्तंभ माने जाते हैं। अब मैं अपने भोजन-संबंधी प्रयोगोंमें निमग्न होता गया।

घरसे जो मिठाई, मसाले आदि मंगाये थे उन्हें मना कर दिया और अब मन दूसरी ही तरफ दौड़ने लगा। इससे मिर्च-मसालेका शौक मंद पड़ता गया और जो साग रिचमंडमें मसाले बिना फीका मालूम होता था वह अब केवल उबाला हुआ होनेपर भी स्वादिष्ट लगने लगा। ऐसे अनेक अनुभवोंसे मैंने जाना कि स्वादका सच्चा स्थान जीभ नहीं, बल्कि मन है।

आर्थिक दृष्टि तो मेरे सामने थी ही। उस समय एक ऐसा दल भी था जो चाय-कॉफीको हानिकारक मानता और कोकोका समर्थन करता। केवल शरीर-व्यापारके लिए जो चीज जरूरी है उसीको खाना चाहिए यह मैं समझ चुका था। इसीलिए चाय-कॉफी मुख्यतः छोड़ दी और कोकोको उनका स्थान दिया।

भोजनालयमें दो विभाग थे। एकमें जितनी चीज खाते उतने ही दाम
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देने पड़ते। इसमें एक बारमें एक-दो शिलिंग भी खर्च हो जाते। इसमें अच्छी स्थितिके लोग आते। दूसरे विभागमें छः पेनीमें तीन चीजें और डबल रोटीका एक टुकड़ा मिलता। जब मैंने खूब किफायतशारी इख्तियार की तब ज्यादातर मैं छः पेनीवाले विभागमें भोजन करता।

इन प्रयोगोंमें उप-प्रयोग तो बहुतेरे हो गये। कभी स्टार्चवाली चीजें छोड़ देता। कभी सिर्फ रोटी और फलपर ही रहता। कभी पनीर, दूध और अंडे ही लेता।

यह आखिरी प्रयोग लिखने लायक है। यह पंद्रह दिन भी न चला। जो बिना स्टार्चकी चीजें खाने का समर्थन करते थे, उन्होंने अंडोंकी तारीफके खूब पुल बांधे थे और यह साबित किया था कि अंडे मांस नहीं हैं। हां, इतनी बात तो थी कि अंडे खानेसे किसी जीवित प्राणीको कष्ट नहीं होता था। सो इस दलीलके चक्करमें अपनी प्रतिज्ञाके रहते हुए भी मैंने अंडे खाये। पर मेरी यह मूर्च्छा थोड़ी ही देर ठहरी। प्रतिज्ञाका नया अर्थ करनेका मुझे अधिकार न था। अर्थ तो वही ठीक है, जो प्रतिज्ञा दिलानेवाला करे। मैं जानता था कि जिस समय मांने मांस न खानेकी प्रतिज्ञा दिलाई थी, उस समय उसे यह खयाल नहीं हो सकता था कि अंडा मांससे अलग समझा जा सकेगा। इसलिए ज्योंही प्रतिज्ञाका यह रहस्य मेरे ध्यानमें आया मैंने अंडे छोड़ दिये और यह प्रयोग बंद कर दिया।

यह रहस्य सूक्ष्म और ध्यानमें रखने योग्य है। विलायतमें मैंने मांसकी तीन व्याख्यायें पढ़ी थीं। एकमें मांसका अर्थ था पशु-पक्षीका मांस। इसलिए इस व्याख्याके कायल लोग उसको तो न छूते, परंतु मछली खाते और अंडे तो खाते ही। दूसरी व्याख्या के अनुसार जिन्हें आमतौरपर प्राणी या जीव कहते थे उनका मांस वर्जित था। इसके अनुसार मछली त्याज्य थी, परंतु अंडे ग्राह्य थे। तीसरी व्याख्यामें आमतौरपर प्राणीमात्र और उनमेंसे बनने वाली चीजें निषिद्ध मानी गई थीं। इस व्याख्या के अनुसार अंडे और दूध भी छोड़ देना लाजिमी था। इसमें यदि पहली व्याख्याको मैं मानता तो मैं मछली भी खा सकता था। परंतु मैंने अच्छी तरह समझ लिया था कि मेरे लिए तो माताजीकी व्याख्या ही ठीक थी। इसलिए यदि मुझे उनके सामने की गई प्रतिज्ञा का पालन करना हो तो मैं अंडे नहीं ले सकता था। इसलिए अंडे छोड़ दिये, पर इससे कठिनाईमें पड़ गया, क्योंकि [ ७९ ]
बारीकीसे जब मैंने खोज की तो पता लगा कि अन्नाहारवाले भोजनालयोंमें भी बहुत-सी चीजें ऐसी बना करती थीं, जिनमें अंडे पड़ा करते थे। फलत: यहां भी परोसने-वालेसे पूछ-ताछ करना मेरे नसीबमें बदा रहा, जबतक कि मैं खूब वाकिफ न हो गया था; क्योंकि बहुतेरे पुडिंग और केकमें अंडे जरूर ही रहते हैं। इस कारण एक तरहसे तो मैं जंजालसे छूट गया; क्योंकि फिर तो मैं बिलकुल सादी और मामूली चीजें ही ले सकता था। हां, दूसरी तरफ दिलको कुछ धक्का अलबत्ता लगा, क्योंकि ऐसी कितनी ही वस्तुएं छोड़नी पड़ीं, जिनका स्वाद जीभको लग गया था। पर यह धक्का क्षणिक था। प्रतिज्ञा-पालनका स्वच्छ, सूक्ष्म और स्थायी स्वाद मुझे उस क्षणिक स्वादसे अधिक प्रिय मालूम हुआ।

परंतु सच्ची परीक्षा तो अभी आगे आनेवाली थी, उसका संबंध था दूसरे व्रतसे। परंतु——

'जाको राखे साइयां मार सके ना कोय'।

इस प्रकरणको पूरा करने के पहले प्रतिज्ञाके अर्थके संबंधमें कुछ कहना जरूरी है। मेरी प्रतिज्ञा मातासे किया हुआ एक इकरार था। दुनिया में बहुतेरे झगड़े इकरारोंके अर्थकी खींचातानीसे पैदा होते हैं। आप चाहे कितनी ही स्पष्ट भाषामें इकरारनामा लिखिए, फिर भी भाषा-शास्त्री उसे तोड़-मरोड़कर अपने मतलबका अर्थ निकाल ही लेंगे। इसमें सभ्यासभ्यका भेद नहीं रहता। स्वार्थ सबको अंधा बना डालता है। राजासे लेकर रंकतक इकरारोंके अर्थ अपने मनके मुआफिक लगाकर दुनियाको, अपनेको और ईश्वरको धोखा देते हैं। इस प्रकार जिस शब्द अथवा वाक्यका अर्थ लोग अपने मतलबका लगाते हैं उसे न्यायाशास्त्र 'द्विअर्थी मध्यमपद' कहता है। ऐसी दशामें स्वर्ण-न्याय तो यह है कि प्रतिपक्षीने हमारी बातका जो अर्थ समझा हो वही ठीक समझना चाहिए, हमारे मन में जो अर्थ रहा हो वह झूठा और अधूरा समझना चाहिए। और ऐसा दूसरा स्वर्ण-न्याय यह है कि जहां दो अर्थ निकलते हों वहां वह अर्थ ठीक मानना चाहिए, जिसे कमजोर पक्ष ठीक समझता हो। इन दो स्वर्ण-मार्गोंपर न चलनेके कारण ही बहुत-कुछ झगड़े होते हैं और अधर्म चला करता है। और इस अन्यायकी जड़ है असत्य। जो सत्यके ही रास्ते चलना चाहता है, उसे स्वर्ण-मार्ग सहज ही प्राप्त हो जाता है। उसे शास्त्रोंकी पोथियां नहीं उलटनी पड़तीं। माताजीने मांस [ ८० ]
शब्दका जो अर्थ माना था और जो मैं उस समय समझता था, वही मेरे लिए सच्चा अर्थ था। और जो अर्थ मैंने अपनी विद्वताके मदमें किया अथवा यह मान लिया कि अधिक अनुभवसे सीखा, वह सच्चा न था।

अबतक मेरे प्रयोग आर्थिक और आरोग्यकी दृष्टि से होते थे। विलायतमें उन्हें धार्मिक स्वरूप प्राप्त नहीं हुआ था। धार्मिक दृष्टिसे तो कठोर प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में हुए, जिनका जिक्र आगे आयेगा। पर हां, यह जरूर कह सकते हैं कि उनका बीजारोपण विलायतमें हुआ।

मसल मशहूर है कि 'नया मुसलमान जोरसे बांग देता है।' अन्नाहार विलायतमें एक नया धर्म ही था, और मेरे लिए तो वह नया था ही। क्योंकि बुद्धिसे मांसाहारका हिमायती बननेके बाद ही मैं विलायत गया था। समझबूझकर अन्नाहार तो मैंने विलायतमें ही स्वीकार किया था। इसलिए मेरी हालत 'नये मुसलमान' की-सी थी। नवीन धर्मको ग्रहण करनेवालेका उत्साह मुझमें आ गया था, अतएव जिस मुहल्लेमें मैं रहता था वहां अन्नाहारी-मंडल स्थापित करनेका प्रस्ताव मैंने किया। मुहल्लेका नाम था 'बेज़-वाटर'। उसमें सर एडविन एर्नाल्ड रहते थे। उन्हें उपाध्यक्ष बनानेका यत्न किया और वह हो भी गये। डाक्टर ओल्डफील्ड अध्यक्ष बनाये गये, और मंत्री बना मैं। थोड़े समय तो वह संस्था कुछ चली; परंतु कुछ महीनोंके बाद उसका अंत आ गया। क्योंकि अपने दस्तूरके मुताबिक उस मुहल्लेको कुछ समयके बाद मैंने छोड़ दिया। परंतु इस छोटे और थोड़े समयके अनुभवसे मुझे संस्थाओंकी रचना और संचालनका कुछ अनुभव प्राप्त हुआ।

१८

झेंप-मेरी ढाल

अन्नाहारी-मंडलकी कार्य-समितिमें मैं चुना तो जरूर गया, उसमें हर समय हाजिर भी जरूर होता; परंतु बोलनेको मुंह ही न खुलता था। डाक्टर ओल्डफील्ड कहते-"तुम मेरे साथ तो अच्छी तरह बातें करते हो; परंतु समितिकी बैठकमें कभी मुंह नहीं खोलते। तुम्हें 'नर-मक्खी' क्यों न रहना चाहिए?" मैं इस विनोदका भाव समझा। मक्खियां तो निरंतर काम करती रहती हैं;

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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।