सत्य के प्रयोग/ मृत्यु-शैय्यापर

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४७२ ]अध्याय २८ : मृत्यु-शैय्यापर ४५५ २८ मृत्यु-शैय्यापर रंगरूटोंकी भरती करनेमें मेरा शरीर काफी थक गया । उन दिनों केले इत्यादि कुछ फल, भुनी हुई मूंगफलीको कूटकर उसमें गुड़ मिला उसे दो-तीन नींबूके पानीके साथ लिया करता था । बस, यही मेरा भोजन था । मैं यह जानता तो था कि अधिक मूंगफली अपथ्य करती है, फिर भी वह अधिक खाने में आ गई । इससे जरा पेचिश हो गई । मुझे बार-बार आश्रम तो आना ही पड़ता था । मैंने इस पेचिशकी अधिक परवा नहीं की । रातको आश्रम पहुंचा । उन दिनों मैं दवा तो शायद ही कभी लेता था । मुझे विशवास था कि एक बारका खाना बंद कर दूंगा तो तबियत ठीक हो जायगी । दूसरे दिन सुबह कुछ नहीं खाया । इससे दर्द तो लगभग मिट गया । पर मैं जानता था कि मुझे उपवास और करना चाहिए, अथवा यदि कुछ खाना ही हो तो फलका रस जैसी कोई चीज लेनी चाहिए । उस दिन कोई त्यौहार था । मुझे स्मरण है कि मैंने कस्तूरबाईसे कह दिया था कि दोपहरको भी मैं भोजन नहीं करूंगा । पर उसने मुझे ललचाया और मैं भी लालचमें आ गया । उस समय मैं किसी भी पशुका दूध नहीं पीता था । इसलिए घी और मट्ठा भी मेरे लिए त्याज्य ही था । अतः मेरे लिए तेलमें गेहूंका दलिया बनाया गया । वह और साबत मूंग भी मेरे लिए खास तौरपर रक्खे हुए हैं, ऐसा मुझसे कहा गया । बस, स्वादने मुझे फंसा लिया । फिर भी इच्छा तो यही थी कि कस्तूरबाईकी बात रखनेके लिए थोड़ा-सा खा लूंगा । इससे स्वाद भी आ जायगा और शरीरकी रक्षा भी हो जायगी । पर शैतान तो मौकेकी ताकमें ही बैठा था । मैंने भोजन शुरू किया और थोड़ा खानेके बदले डटकर पेटभर खा लिया । जायका तो खूब रहा, पर साथ ही जमराजको निमंत्रण भी दे दिया ।खाये एक घंटा भी न हुआ कि पेटमें जोरोंसे दर्द शुरू हुश्रा। रातको नड़ियाद तो वापस जाना ही था । साबरमती स्टेशनतक पैदल गया । पर वह सवा मीलका रास्ता कटना मुश्किल हो गया । अहमदाबादके [ ४७३ ]४५६ आत्म-कथा : भाग ५ स्टेशनपर वल्लभभाई आने वाले थे । वह आये और मेरी तकलीफको जान गये । पर मेरी व्याधि असह्म थी, यह न तो मैंने उन्हें जानने दिया और न दूसरे साथियोंसे ही कहा । नड़ियाद पहुंचे । यहांसे अनाथाश्रम जाना था । सिर्फ श्राध मीलका फासला था । पर वह दस मील-सा मालूम हुआ । बड़ी मुश्किलसे वहां पहुंचा । पर मरोड़ा बढ़ता जाता था । पंद्रह-पंद्रह मिनटमें पाखाना जानेकी हाजत होने लगी । आखिर मैं हारा । अपनी असह्म वेदनाका हाल मित्रोंसे कहा और बिस्तर पकड़ा । अभीतक आश्रमकी मामूली टट्टियोंमें पाखानेके लिए जाता था । अब कमोड ऊपर मंगाया । लज्जा तो बहुत मालूम हो रही थी, पर लाचार था । फूलचंद बापूजी बिजलीकी तरह दौड़कर कमोड लाये । साथी चिंतातुर होकर मेरे आस-पास एकत्र हो गए । उन्होंने अपने प्रेमसे मुझे नहला दिया । पर मेरे दुःखको आप उठाकर तो बेचारे हलका कर नहीं सकते थे । इधर मेरी हठका कोई ठिकाना न था । डाक्टरको बुलानेसे मैंने इन्कार कर दिया--“ दवातो हर्गिज नहीं लूंगा । अपने कियेका फल भोगूंगा ।” साथियोंने यह सब दुखी मुंहसे सह लिया । चौबीस घंटेके अंदर तीस-चालीस बार मैं टट्टी गया । खाना तो मैंने बंद कर ही दिया था । शुरूके दिनोंमें तो फलोंका रस भी नहीं लिया । रुचि ही न थी ।

जिस शरीरको आजतक मैं पत्थरके जैसा मानता था, वह मिट्टी-सा हो गया । सारी शक्ति जाने कहां चली गई । डॉ० कानूगो आये । उन्होंने दवा लेनेके लिए मुझे बहुत समझाया । पर मैंने इन्कार कर दिया । इंजेक्शन देनेकी बात कही । मैंने इसपर भी इन्कार ही किया । इंजेक्शनके विषयमें मेरा उस समयका अज्ञान हास्यजनक था । मेरा यही खयाल था कि इंजेक्शन तो किसी प्रकार की लस- सीरम होगी । बादमें मुझे मालूम हुआ कि डॉक्टरने जो इंजेक्शन बताया था वह तो एक प्रकारका वनस्पति-तत्व था । पर जब यह ज्ञान हुआ तब तो अवसर बीत गया था । टट्टियां जारी थीं । बहुत परिश्रमके कारण बुखार और बेहोशी भी आ गई । मित्र और भी घबराये । अन्य डॉक्टर भी आये, जो बीमार ही उनकी न सुने तब उसके लिए वे क्या कर सकते थे ? सेठ अंबालाल और उनकी धर्मपत्नी नड़ियाद आईॱ। साथियोंसे सलाह[ ४७४ ]अध्याय २८: मृत्यु-शैय्यापर ४५७ मशविरा किया और बड़ी हिफाजतसे मुझे वे अपने मिरजापुरवाले बंगले पर ले गये । मैं यह तो जरूर कहूंगा कि इस बीमारीमें जो निर्मल निष्काम सेवा मुझे मिली उससे अधिक सेवा तो कोई नहीं प्राप्त कर सकता । मंद ज्वर आने लगा और शरीर भी क्षीण होता चला । मालूम हुआ कि बीमारी बहुत दिनतक चलेगी औरै शायद मैं बिस्तरसे भी न उठ सकूं । अंबालाल सेठके बंगलेमें प्रेमसे घिरा हुआ होनेपर भी मेरे चित्तमें अशांति पैदा हुई और मैंने उनसे मुझे आश्रममें पहुंचानेके लिए कहा । मेरा अत्यंत आग्रह देकर वह मुझे आश्रम ले आये । आश्रममें में यह पीड़ा भोग रहा था कि इतनेमें वल्लभभाई यह खबर लाये कि जर्मनी पूरी तरह हार गया और कमिशनरने कहलाया है कि अब रंगरूटोंकी भरती करनेकी जरूरत नहीं है । इसलिए रंगरूटोंकी भरती करनेकी चिंतासे मैं मुक्त हो गया और इससे मुझे शांति मिली । अब पानीको उपचारोंपर शरीर टिका हुश्रा था । दर्द चला गया पर शरीर किसी तरह पनप नहीं रहा था । वैद्य और डाक्टर मित्र अनेक प्रकारकी सलाह देते थे । पर मैं किसी तरह दवा लेनेके लिए तैयार न हुआ । दो-तीन मित्रोंने दूध लेनेमें कोई बाधा हो तो मांस का शोरबा लेनेकी सिफारिश की और अपने कथनकी पुष्टिमें आयुर्वेदसे इस श्राशयके प्रमाण बताये कि दवाके बतौर मांसादि चाहे जिस वस्तुका सेवन करनेमें कोई हानि नहीं । एक मिसने अंडे खानेकी सलाह दी । पर उनमेंसे किसीकी भी सलाहको मैं स्वीकार न कर सका । सबके लिए मेरा तो एक ही जवाब था। खाद्याखाद्यका सवाल मेरे लिए महज शास्त्रोंके श्लोकोंपर निर्भर न था। उसका तो मेरे जीवनके साथ स्वतंत्र रीतिसे निर्माण हुआ था । हर कोई चीज खाकर हर किसी तरह जीनेका मुझे जरा भी लोभ न था। अपने पुत्रों, स्त्री और स्नेहियोंके लिए मेने जिस धर्मपर अमल किया उसका त्याग मैं अपने लिए कैसे कर सकता था । इस तरह इस बहुत लंबी बीमारीमें, जो कि गंभीरताके खयालसे मेरे जीवनमें मुझे पहले ही पहल हुई थी, मुझे धर्म-निरीक्षण करनेका तथा उसे कसौटीपर चढ़ानेका अलभ्य लाभ मिला । एक रात ताे मैं जीवनसे बिल्कुल निराश हो गया था । मुझे मालूम हुआ कि अंतकाल अा पहुंचा । श्रीमती अनसूयाबहनको [ ४७५ ]४५८ आत्म-कथा : भाग ५ समाचार भिजवाये । वह आईं। वल्लभभाई आये । डा० कानूगोने नब्ज देखकर कहा, “मुझे तो ऐसा एक भी चिह्न नहीं दिखाई देता, जो भयंकर हो । नब्ज बिलकुल अच्छी है, केवल कमजोरीके कारण यह मानसिक अशांति आपकाे है।” पर मेरा दिल गवाही नहीं देता था । रात तो बीती । उस रात शायद ही मुझे नींद आई हो । सवेरा हुआ । मृत्यु न आई। फिर भी मुझे जीनेकी आशा नहीं हो पाई थी । मैं तो यही समझ रहा था कि मृत्यु नजदीक आ पहुंची है । इसलिए जहां तक हो सका, अपने साथियोंसे गीता सुनने हीमें अपने समयका उपयोग मैं करने लगा । कुछ काम-काज करनेको शक्ति तो थी ही नहीं । पढ़नेकी शक्ति भी न रह गई थीं । किसीसे बाततक करनेको जी न चाहता था । जरा-सी बातचीत करने में दिमाग थक जाता था । इससे जीने में कोई आनंद नहीं रहा था । महज जीनेके लिए जीना मुझ कभी पसंद नहीं था । बिना कुछ काम-काज किये साथियों से सेवा लेते हुए दिन-ब-दिन क्षीण होनेवाली देह को टिकाये रखना मुझे बड़ा कष्टकर प्रतीत होता था । इस तरह मृत्युकी राह देख रहा था कि इतनेमें डा० तलवलकर एक विचित्र प्राणीको लेकर आए । वह महाराष्ट्रीय हैं। उनको हिंदुस्तान नहीं जानता । पर मेरे ही जैसे ‘चक्रम' हैं, यह मैंने उन्हें देखते ही जान लिया । वह अपना इलाज मुझपर आजमानेके लिए आये थे । बंबईके ग्रेंड मेडिकल कॉलेजमें पढ़ते थे । पर उन्होंने द्वारकाकी छाप- उपाधि-- प्राप्त न की थी । मुझे बादमें मालूम हुआ कि वह सज्जन ब्रह्मसमाजी हैं । उनका नाम है केलकर । बड़े स्वतंत्र मिजाजके आदमी हैं । बरफके उपचारके बड़े हिमायती हैं । मेरी बीमारीकी बात सुनकर जब वह अपने बरफके उपचार मुझपर आजमानेके लिए आये, तबसे हमने उन्हें 'आइस डाक्टर' की उपाधि दे रक्खी है । अपनी रायके बारे में वह बड़े आग्रही हैं। डिग्रीवारी डाक्टरोंकी अपेक्षा उन्होंने कई अच्छे अविष्कार किये हैं, ऐसा उन्हें विश्वास हैं । वह अपना यह विश्वास मुझमें उत्पन्न नहीं कर सके, यह उनके और मेरे दोनोंके लिए दुःखकी बात है । मैं उनके उपचारोंको एक हद तक तो मानता हूं। पर मेरा खयाल है कि उन्होंने कितने ही अनुमान बांधनेमें कुछ जल्दबाजी की है । उनके आविष्कार सच्चे

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