सत्य के प्रयोग/ मेरा प्रयत्न

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अस्म-कथा : भाग ३ मैरी प्रयत्न | पूनां पहुंचकर उत्तर-क्रिया इत्यादिसे निवृत्त हो हम सब लोग इस बातपर विचार करने लगे कि समितिका काम कैसे चलाया जाय और मैं उसका सदस्य बनू या नहीं। इस समय मुझपर बड़ा बोझ ा पड़ा था । गोखलेके जीतेजी मुझे समितिमें प्रवेश करनेकी आवश्यकता ही नहीं थी। मैं तो सिर्फ गोखलेकी आज्ञा और इच्छाके अधीन रहना चाहता था । यह स्थिति मुझे भी पसंद थी; क्योंकि भारतवर्धके-जैसे तुफानी समुद्रमें कूदते हुए मुझे एक दक्ष कर्णधारकी आवश्यकता थी और गोखले-जैसे कर्णधारके आश्रयमें मैं अपनेको सुरक्षित समझता था ।. . .। • अब मेरा मन कहने लगा कि मुझे समितिमें प्रविष्ट होनेके लिए जरूर प्रयत्न करना चाहिए । मैंने सोचा कि गोखलेकी आत्मा यही चाहती होगी । मैंने बिना संकोचके दृढ़ताके साथ प्रयत्न शुरू किया । इस समय समितिके सब सदस्य वहां मौजूद थे। मैंने उनको समझाने और मेरे संबंध जो भय उन्हें था उसको दूर करनेकी भरसक कोशिश की, पर मैंने देखा कि सदस्योंमें इस विषयपर मतभेद था। कुछ सदस्योंकी राय थीं कि मुझे समितिमें ले लेना चाहिए और कुछ दृढ़तापूर्वक इसका विरोध करते थे; परंतु दोनोंके मनमें मेरे प्रति प्रेम-भाव की कम न थी; किंतु हां, मेरे प्रति प्रेमकी अपेक्षा समिति के प्रति उनकी वफादारी शायद अधिक थी; मेरे प्रति प्रेमसे तो कम किसी हालत न थी' ।। - इससे हमारी यह सारी बहस मीठी थी और केवल सिद्धांतपर हीं थी। जो भित्र मेरा विरोध कर रहे थे उनका यह खयाल हुआ कि कई बातोंमें मेरे और उनके विचारोंमें जमीन-आसमानका अंतर है। इससे भी आगे चलकर उनका यह खयाल हुआ कि जिनः ध्येयोंको सामने रखकर गोखलेने समितिकी रचना की थी, मेरे समितिमें आ जानेसे उन्हींके जोखिममें पड़ जानेकी संभावना थी और यह बात उन्हें स्वाभाविक तौरपर ही असह्य मालूम हुई । बहुत-कुछ चर्चा हो जाने के बाद हम अपने-अपने घर गये । सभ्योंने अंतिम निर्णय सभाकी दूसरी [ ४१० ]________________

अध्याय ७ : कुंभ बैठक स्थगित रक्खा । घर जाते हुए मैं बड़े विचारके भंवर में पड़ गया । बहुमतके बलपर मेरा समितिमें दाखिल होना क्या उचित है ? क्या गोखलेके प्रति यह मेरी वफादारी हो ? यदि बहुमत मेरे खिलाफ हो जाय तो क्या इससे समितिकी स्थितिको विषम बनानैका निमित्त न बनूंगा ? मुझे यह साफ दिखाई पड़ा कि जबतक समिति सदस्यों मुझे सदस्य बनाने के विषय मतभेद हो तबतक मुझे खुद ही उसमें दाखिल हो जानेका अन्नह छोड़ देना चाहिए और इस तरह विरोधी पक्षको नाजुक स्थितिमें पड़ने से बचा लेना चाहिए। इसी में मुझे समिति और गोखले प्रति अपनी वफादारी दिखाई दी । अंतरात्मामें यह निर्णय होते ही तुरंत मैंने श्रीशास्त्रीको पत्र लिखा कि आप मुझे सदस्य बनानेके बिषयमें सभा न बलावें । विरोधी पक्षको मेरा यह निश्चय बहुत पसंद आया । वे धर्म-संकटसे बच गये । उनकी मेरे साथ स्नेह-गांठ अधिक मजबूत हो गई और इस तरह समितिमें दाखिल होनेकी मेरी दरख्वास्तको वापस लेकर मैं समितिका सच्चा सदस्य बना। - अब अनुभवसे मैं देखता हूं कि मेरा बाकायदा समितिको सदस्य न होना ठीक ही हुआ और कुछ सदस्योंने मेरे सदस्य बननेका जो विरोध किया था, वह वास्तविक था। अनुभवने दिखला दिया है कि उनके और मेरे सिद्धांतोंमें भेद था; परंतु मत-भेद जान लेने के बाद भी हम लोगों की आत्मामें कभी अंतर न पड़ा, न कभी मन-मुटाव ही हुआ । मतभेद रहते हुए भी हम' बंधु और मित्र बने हुए हैं । समितिका स्थान मेरे लिए यात्रा-स्थल हो गया है। लौकिक दृष्टिसे भले ही मैं उसका सदस्य न बना हूं, पर आध्यात्मिक दृष्टिसे तो हूँ ही । लौकिक संबंधकी अपेक्षा आध्यात्मिक संबंध अधिक कीमती हैं। आध्यात्मिक संबंधसे हीन लौकिक संबंध प्राण-हीन शरीरके समान है । मुझे डाक्टर प्राणजीवनदास मेहतासे मिलने रंगून जाना था। रास्तेमें वांलकत्तामें श्री भूपेंद्रनाथ बसुके निमंत्रणसे मैं उनके यहां ठहो । यहां तो मैंने

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