सत्य के प्रयोग/ तीसरे दर्जेकी फजीहत

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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तीसरे दर्जेकी फजीहते बर्दवान पहुंचकर हम तीसरे दर्जेका टिकट लेना चाहते थे; पर टिकट लेनेमें बड़ी मुसीबत हुई । टिकट लेने पहुंचा तो जवाब मिला--- " तीसरे दर्जे के मुसाफिरके लिए पहलेसे टिकट नहीं दिया जाता।" तब स्टेशन-मास्टर के पास गया। मुझे भला वहां कौन जाने देता? किसीने दया करके बताया कि स्टेशन'मास्टर वहां हैं। मैं पहुंचा। उनके पाससे भी वहीं उत्तर मिला । जब खिड़की खुली तब टिकट लेने गया; परंतु टिकट मिलना आसान नहीं था। हट्टे-कट्टे मुसाफिर मुझ-जैसोंको पीछे धकेलकर आगे घुस जाते। आखिर टिकट तो किसी तरह मिल गया ।। गाड़ी झाई। उसमें भी जो जबर्दस्त थे, वे घुस गये । उतरनेवालों और चढ़नेवालोंके सिर टकराने लगे और धक्का-मुक्की होने लगी। इसमें भला मैं कैसे शरीक हो सकता था ? इसलिए हम दोनों एक जगहसे दूसरी जगह जाते ।। सब जगहसे यही जवाब मिलता--- " यहां जगह नहीं है ।" तब मैं गार्डके पास गया। उसने जवाब दिया--- " जगह मिले तो बैठ जाओ, नहीं तो दूसरी गाड़ीसे जाना ।” मैंने नरमी से उत्तर दिया--- " पर मुझे जरूरी काम है । गार्डको यह सुननेका वक्त नहीं था । अब मैं सब तरहसे हार गया । मगनलालसे कहा--- " जहां जगह मिल जाय, बैठ जाओ।" और मैं पत्नीको लेकर तीसरे दर्जेके टिकटसे ही ड्यौढ़े दर्जे में घुसा। गार्डने मुझे उसमें जाते हुए देख लिया था । • आसनसोल स्टेशनपर गार्ड ड्यौढ़े दर्जेका किराया लेने आया । मैंने कहा--- " आपका फर्ज था कि आप मुझे जगह बताते । वहां जगह न मिलने से मैं यहां बैठ गया। मुझे तीसरे दर्जेमें जगह दिलाइए तो मैं वहां जानेको तैयार हूं।" ...गार्ड साहव बोले- “मुझसे तुम दलील न करो । मेरे पास जगह : नहीं है, किराया न दोगे तो तुमको गाड़ीसे उतर जाना होगा।" मुझे तो किसी तरह जल्दी पूना पहुंचना था । गार्डसे लड़ने की मेरी : हिम्मत नहीं थी । लाचार होकर मैंने किराया चुका दिया । उसने ठेठ पुनातक [ ४०८ ]________________

अध्याय ५ : तीसरे दर्जेको फजीहतं ड्यौड़े दर्जेका किराया वसूल किया । मुझे यह अन्याय बहुत अखरा । सुबह हम मुगलसराय आये। मगनलालको तीसरे दर्जेमें जगह मिल गई थी। वहां मैने टिकट-कलेक्टरको सब हाल सुनाया और इस घटनाका प्रमाण पत्र उससे मांगा। उसने इन्कार कर दिया। मैंने रेलवेके बड़े अफसरको अधिक भाड़ा वापस मिलने के लिए दरख्वास्त दी । उसका इस आशयका उत्तर मिला--- * प्रमाण-पत्रके बिना अधिक भाडेका रुपया लौटानेका रिवाज हमारे यहां नहीं है, परंतु यह अापका मामला है, इसलिए आपको लौटा देते हैं। बर्दवानसे मुगलसरायतकका अधिक किराया वापस नहीं दिया जा सकता ।” इसके बाद तीसरे दर्जे के सफरके इतने अनुभव हुए हैं कि उनकी एक पुस्तक बन सकती है; परंतु प्रसंगोपात्त उनका जिक्र करनेके उपरांत इन अध्यायोंमें उनका समावेश नहीं हो सकता । शरीर-प्रकृतिको प्रतिकूलताके कारण मेरी तीसरे दर्जेकी यात्रा बंद हो गई। यह बात मुझे सदा खटकती रहती है और खटकती रहेगी । तीसरे दर्जेके सफर में कर्मचारियोंकी ‘जो हुक्मी'की जिल्लत तो उठानी ही पड़ती है; परंतु तसरे दर्जे के यात्रियोंकी जहालत, गंदगी, स्वार्थ-भाव और अज्ञानका भी कम अनुभव नहीं होता। खेदकी बात तो यह है कि बहुत बार तो मुसाफिर जानते ही नहीं कि वे उड्डता करते हैं या गंदगई बढ़ाते हैं या स्वार्थ-सिद्धि चाहते हैं। वे जो कुछ करते हैं वह उन्हें स्वाभाविक मालूम होता है । और इधर हम, जो सुधारक कहे जाते हैं, उनकी बिलकुल पर्वाह नहीं करते ।। | कल्याण जंक्शनपर हम किसी तरह थके-मांदे पहुंचे। नहानेकी तैयारी की । मगनलाल और मैं स्टेशनकै नलसे पानी लेकर नहाये । पत्नी के लिए मैं कुछ तजवीज कर रहा था कि इतने में भारत-सेवक-समितिके भाई कौलने हमको पहचाना। वह भी पूना जा रहे थे। उन्होंने कहा-- “इनको तो नहाने के लिए दूसरे दर्जे के कमरेमें ले जाना चाहिए। उनके इस सौजन्यसे लाभ उठाते हुए मुझे संकोच हुआ। मैं जानता था कि पत्नीको दूसरे दर्जे के कमरेसे लाभ उठानेका अधिकार न था; परंतु मैंने इस अनौचित्यकी ओर उस समय प्रांखें मूंद लीं । सत्यके पुजारीको सत्यका इतना उल्लंघन भी शोभा नहीं देता। पत्नीका आग्रह नहीं था कि वह उसमें जाकर नहावे; परंतु प्रतिके मोहरूपी' सुवर्णपात्रने सत्यको डोक लिया था ।

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