सत्य के प्रयोग/ लक्ष्मण-झूला

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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भ-कथा : भाग ५, और इन्होंने परीक्षा ली है तहां उन्होंने मेरे लिए ढालका भी काम दिया है। मैं मानता हूं कि इन व्रतोंने मेरी आयु बढ़ा दी है; इनकी बदौलत, भेरी धारणा है कि, मैं बहुत बार बीमारियोंसे बच गया हूँ । लक्ष्मण-झूला पहाड़-जैसे दीखनेवाले महात्मा मुंशीरामके दर्शन करने और उनके गुरुकुलको देखने जब मैं गया तब मुझे बहुत शांति मिली । हरद्वार के कोलाहल और गुरुकुलकी शांतिका भेद स्पष्ट दिखाई देता था। महात्माजीने मुझपर भरपूर प्रेमको दृष्टि की । ब्रह्मचारी लोग मेरे पाससे हटते ही नहीं थे। रामदेवजीसे भी उसी समय मलाकात हुई और उनकी कार्यशक्तिको में तुरंतु पहचान सका था। यद्यपि हमारी मत-भिन्नता हमें उस समय दिखाई पड़ गई थी, किर भी हमारे आपसमें स्नेह-गांठ बंध गई । गुरुकुलमें औद्योगिक शिक्षका प्रवेश करने की आवश्यकताके संबंधमें रामदेवजी तथा दूसरे शिक्षकोंके साश्रमें मेरा ठीक-ठीक वार्तालाप भी हुआ । इससे जल्दीही गुरुकुलको छोड़ते हुए मुझे दुःख हुआ । लक्ष्मणझूलाकी तारीक मैंने बहुत सुन रक्खी थी । ऋषिकेश गये विना हरद्वार न छोड़ने की सलाह मुझे बहुत-से लोगोंने दी। मैंने वहां पैदल जाना चाहा। एक मंजिल ऋषिकेशकी और दूसरी लक्ष्मण-झूलेकी की । ऋषिकेशमें बहुत से संन्यासी मिलनेके लिये आये थे। उनमेंसे एकको मेरे जीवन-क्रममें बहुत दिलचस्पी पैदा हुई । फिनिक्स-मंडली मेरे साथ थी ही। हम सबको देखकर उन्होंने बहुतेरे प्रश्न पूछे। हम लोगोंमें धर्म-चर्चा भी हुई। उन्होंने देख लिया कि मेरे अंदर तीव्र धर्मभाव है। मैं गंगा-स्नान करके आया था और मेरा शरीर खुला था। उन्होंने मेरे सिरपर न चोटी देखी और न बदनपर. जनेऊ। इससे उन्हें दुःख हुआ और उन्होंने कहा---

  • आप हैं तो आस्तिक, परंतु शिखा-सूत्र नहीं रखते, इससे हम जैसोंको दुःख होता है। हिंदू-धर्मकी ये दो बाह्य संज्ञाएं हैं और प्रत्येक हिंदूको इन्हें धारण । [ ४१६ ]________________

अध्याय ८ : लम-झूला करना चाहिए । जब मेरी उमर कोई दस वर्षकी रही होगी तब पोरबंदरमें ब्राह्मणोंके जनेऊसे बंधी चाबियोंकी झंकार मैं सुना करता था और उसकी मुझे ईष्र्या भी होती थी । मनमें यह भाव उठा करता कि मैं भी इसी तरह जनेऊमें चाबियां लटकाकर झंकार किया करूं तो अच्छा हो । काठियावाड़के वैश्य कुटुंबोंमें उस समय जनेऊका रिवाज नहीं था। हां, नये सिरेसे इस बातका प्रचार अलबत्ता हो रहा था किं द्विज-मात्रको जनेऊ अवश्य पहनना चाहिए। उसके फलस्वरूप गांधी-कुटुंबके कितने ही लोग जनेऊ पहनने लगे थे। जिन ब्राह्मणने हम दो-तीन सगे संबंधियों को राम-रक्षाका पाठ सिखाया था, उन्होंने हमें जनेऊ पहनाया। मुझे अपने पास चाबियां रखनेका कोई प्रयोजन नहीं था । तो भी मैने दो-तीन चाबियां लुटका लीं । जब वह जनेऊ टूट गया तब उसका मोह उतर गया था या नहीं, यह तो याद नहीं पड़ता, परंतु मैने नया जनेऊ फिर नहीं पहना । । . बड़ी उमरमें दूसरे लोगोंने फिर हिंदुस्तानमें तथा दक्षिण अफ्रीका में जनेऊ पहनानेका प्रयत्न किया था, परंतु उनकी दलीलोंका असर मेरे दिलर नहीं हुआ। शूद्र यदि जनेऊ नहीं पहन सकता तो फिर दूसरे लोगों को क्यों पहनना चाहिए ? जिस बाह्य चिह्नका रिवाज हमारे कुटुंबमें नहीं था उसे धारण करने का एक भी सबल कारण मुझे नहीं दिखाई दिया। मुझे जनेऊसे अरुचि नहीं थी, परंतु उसे पहननेके कारणोंका अभाव मालूम होता था। हां, वैष्णव होने के कारण मैं कंठी जरूर पहनता था । शिखा तो घरके बड़े-बूढ़े हम भाइयोंके सिरपर रखबाते थे, परंतु विलायतमें सिर खुला रखना पड़ता था। गोरे लोग देखकर हंसेंगे और हमें जंगल समझेंगे, इस शर्मसे शिखा कटा डाली थी। मेरे भतीजे छगनलाल गांधी, जो दक्षिण अफ्रीका में मेरे साथ रहते थे, बड़े भावके साथ शिला रख रहे थे; परंतु इस वहमसे कि उनकी शिखा वहां सार्वजनिक कामों में बाधा डालेगी, मैंने उनके दिलको दुखाकर भी छुड़ा दी थी। इस तरह शिखासे मुझे उस समय शर्म लगती थी । | इन स्वामीजीसे मैंने यह सब कथा सुनाकर कहा---- | " जनेऊ तो में धारण नहीं करूंगा; क्योंकि असंख्य हिंदू जनेऊ नहीं पहनते हैं फिर भी वे हिंदू समझे जाते हैं, तो फिर मैं अपने लिए उसकी जरूरत [ ४१७ ]________________

४०० अम-कथा : भाग ५ : नहीं देखता । फिर जनेऊ धारणके मानी हैं---दूसरा जन्म लेना अर्थात् हम विचार पूर्वक शुद्ध हों, ऊर्ध्वगामी हों । आज तो हिंदू-समाज और हिंदुस्तान दोनों गिरी दशामें हैं। इसलिए हमें जनेऊ पहननेका अधिकार ही कहां है ? जब हिंदू-समाज अस्पृश्यताका दोष धो डाले, ऊंच-नीचको भेद भूल जायेगा, दूसरी गहरी बुराइयोंको मिटा देगा, चारों तरफ फैले अधर्म और पाखंडको दूर कर देगा, तब उसे भले ही जनेऊ पहननेका अधिकार हो । इसलिए जनेऊ धारण करनेकी आपकी बात तो मुझे पट नहीं रही है। हां, शिखा-संबंधी' आपकी बातपर मुझे अवश्य विचार करना पड़ेगा । शिखा तो मैं रखता था, परंतु शर्म और डरसे उसे कटा डाला । मैं समझता हूं कि वह तो मुझे फिर धारण कर लेनी चाहिए। अपने साथियों साथ इस बातका विचार कर लूंगा।" स्वामीजीको जनेऊ-विषयक मेरी दलील न जंची। जो कारण मैंने जनेऊ न पहननेके पक्षमें पेश किये, वे उन्हें पहननेके पक्षमें दिखाई दिये। अस्तु ।। जनेऊके संबंधमें उस समय ऋषिकेश में जो विचार मैंने प्रदर्शित किया था वह आज भी प्रायः वैसा ही कायम है। जबतक संसारमें भिन्न-भिन्न धर्मोका अस्तित्व हैं, . तबतक प्रत्येक धर्मके लिए बाह्य संज्ञाकी आवश्यकता भी शायद हो; परंतु जव वह बाह्य संज्ञा आडंबरका रूप धारण कर लेती है अथवा अपने धर्म को दूसरे धर्मसे पृथक् दिखलानेका साधन हो जाय, तब वह त्याज्य हो जाती है । आजकल मुझे जनेऊ हिंदू-धर्मको ऊंचा उठाने का साधन नहीं दिखाई पड़ता है इसलिए मैं उसके संबंधों उदासीन रहता है। ... शिखाके त्यागकी बात जुदा हैं। यह शर्म और भयके कारण हुआ। था; इसलिए अपने साथियों के साथ विचार करके मैने उसे धारण करने का निवः किया । पर अब हमको लक्ष्मण-झुलेकी ग्रोर चलना चाहिए । ऋषिकेश और लक्ष्मण-झूलेके प्राकृतिक दृश्य मुझे बहुत पसंद आये । हमारे पूर्वजों की प्राकृतिक कलाको पहचानने की क्षमताके प्रति और कलाको बार्मिक स्वरूप देने की उनकी दूरदेशीके प्रति मेरे मनमें बड़ा आदर उत्पन्न हुआ, परंतु दूसरी ओर मनुष्यकी कृतिको वहां देखकर चित्तको शांति न हुई । हट्टाकी तरह ऋषिकेशमैं भी लोग रास्तोंको और गंगाके सुंदर किनारोंको गंदा कर डालते थे । गंगाके पवित्र पानीको

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