सत्य के प्रयोग/ आश्रमकी स्थापना

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४१८ ]बिगाड़ते हुए भी उन्हें कुछ संकोच न होता था। दिशा-जंगल जानेवाले आम जगह और रास्तोंपर ही बैठ जाते, यह देखकर मेरे चित्तको बड़ी चोट पहुंची।


लक्ष्मण-झूला जाते हुए रास्तेमें लोहेका एक झूलता हुआ पुल देखा। . लोगोंसे मालूम हुआ कि पहले यह पुल रस्सीका और बहुत मजबूत था, उसे तोड़कर एक उदार-हृदय मारवाड़ी सज्जनने बहुत रुपये लगाकर यह लोहेका पुल बना दिया और उसकी कुंजी सौंप दी सरकारको ! रस्सीके पुलका तो मुझे कुछ खयाल नहीं हो सकता, परंतु यह लोहेका पुल तो वहांके प्राकृतिक सौंदर्यको कलुषित करता था और बहुत भद्दा मालूम होता था। फिर यात्रियोंके इस रास्तेकी कुंजी सरकारको सौंप दी गई, यह बात तो मेरी उस समयकी वफादारीको भी असह्य मालूम हुई ।

वहांसे भी अधिक दुःखद दृश्य स्वर्गाश्रमका था। टीनके तले-जैसे कमरोंका नाम स्वर्गाश्रम रक्खा गया था। कहा गया था कि ये साधकोंके लिए बनाये गये हैं; परंतु उस समय शायद ही कोई साधक वहाँ रहता हो। वहांकी मुख्य इमारतमें जो लोग रहते थे उन्होंने भी मेरे दिलपर अच्छी छाप नहीं डाली।

जो हो; पर इसमें संदेह नहीं कि हरद्वारके अनुभव मेरे लिए अमूल्य साबित हुए। मैं कहां जाकर बसूं और क्या करू, इसका निश्चय करने में हरिद्वारके :: अनुभवोंने मुझे बहुत सहायता दी ।

आश्रमकी स्थापना .:

कुंभकी यात्राके पहले मैं एक बार और हरद्वार आ चुका था। सत्याग्रहआश्रमकी स्थापना २५ मई १९१५ को हुई। श्रद्धानंदजीकी. यह राय थी कि मैं हरद्वारमें बसू । कलकत्तेके कुछ मित्रोंकी सलाह थी कि वैद्यनाथ-धाममें डेरा डालूं । और कुछ मित्र इस बातपर जोर दे रहे थे कि राजकोटमें रहूं।. पर जब मैं अहमदाबादसे गुजरा तो बहुतेरे मित्रोंने कहा कि आप अहमदाबादको चुनिए। और आश्रमके खर्चका भार भी अपने जिम्मे उन्होंने ले लिया। मकान खोजनेका भी आश्वासन दिया । .... [ ४१९ ]________________

४०२ आत्म-कथा : भाग ५ अहमदाबादपर मेरी नजर ठहर गई थी । मैं मानता था कि गुजराती होने के कारण मैं गुजराती भाषाके द्वारा देशकी अधिक-से-अधिक सेवा कर सकेंगा । अहमदाबाद पहले हाथ-बुनाईका बड़ा भारी केंद्र था, इससे चरखेका काम यहां अच्छी तरह हो सकेगा; और गुजरातका प्रधान नगर होने के कारण यहांके धनाढ्य लोग धन-द्वारा अधिक सहायता दे सकेंगे, यह भी खयाल था । • अहमदाबादके मित्रोंके साथ जब अाश्रमके विषयमें बातचीत हुई तो अस्पृश्योंके प्रश्नकी भी चर्चा उनसे हुई थी। मैंने साफ तौरपर कहा था कि यदि कोई योग्य' अंत्यज' भाई अाश्रममें प्रविष्ट होना चाहेंगे तो मैं उन्हें अवश्य आश्रममें लंगा ।' “आपकी शर्तोका पालन कर सकने वाले अंत्यज ऐसे कहां रास्तेमें पड़े हुए हैं ? एक वैष्णव मित्रने ऐसा कहकर अपने मनको संतोष दे लिया और अंतको अहमदाबादमें बसने का निश्चय हुआ । ...' अब हम मकानकी तलाश करने लगे। श्री जीवनलाल बैरिस्टरका मकान, जो कोचरबमें है, किरायेपर लेना तय पाया । वही मुझे अहमदाबादमें बसानेवालोंमें अग्रणी थे। .. इसके बाद आश्रमका नाम रखनेका प्रश्न खड़ा हुआ । मित्रोंसे मैंने मशवरा किया। कितने ही नाम आये । सेवाश्रम, तपोवन इत्यादि नाम सुझाये गये । सेवाश्चम नाम हम लोगोंको पसंद आता था, परंतु उससे सेवाक' पद्धतिका परिचय नहीं होता था । तपोवन नाम तो भला स्वीकृत कैसे हो सकता था ? क्योंकि यद्यपि तपश्चर्या हम लोगोंको त्रिय थी, फिर भी यह नाम हम लोगों को अपने लिए भारी मालूम हुआ। हम लोगोंका उद्देश्य तो थी सत्यकी पूजा, सत्यकी शोध करना, उसीका अाग्रह रखना और दक्षिण अफ्रीकामें जिस पद्धतिका उपयोग हुम लोगोंने किया था, उसीका परिचय भारतवासियोंको कराना, एवं हमें यह भी देखना था कि उसकी शक्ति और प्रभाव कहांतक व्यापक हो सकता हैं । इस लिए मैंने और साथियोंने ‘सत्याग्रहाश्रम' नाम पसंद किया। उसमें सेवा और . सेवा-पद्धति दोनोंका भाव अपने-आप आ जाता था। आश्रमके संचालनके लिए नियमावलीकी आवश्यकता थी, इसलिए नियमावली बनाकर उसपर जगह-जगहुसे राये मंगवाई गईं । बहुतेरी सम्मतियों

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